द्वितीय अध्याय / तृतीय वल्ली / भाग २ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति

यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह ।

बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिम् ॥ १० ॥

जब मन सहित ज्ञानेन्द्रियों , होती हैं स्थिर ध्यान में,

तब बुद्धि भी निश्चेष्ट होकर लीन होती महान में।

अतिरिक्त प्रभु परमेश के साधक को विश्व अदृश्य है,

बस है वही स्थिति परम, जब ब्रह्म उसको दृश्य है॥ [ १० ]


तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम् ।

अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ ॥ ११ ॥

जब इन्द्रियों की धारणा स्थिर हो तब ही योग है,

किंतु अस्थिर योग इसमें, उदय अस्त का रोग है।

ऋत योग स्थिर सतत साधक, का ही केवल सिद्ध है,

शुचि तत्वगत सामायिकी योगी का योग प्रसिद्ध है॥ [ ११ ]


नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा ।

अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ॥ १२ ॥

ना वाणी और ना मन से ही, ना चक्षु ना कर्मेंद्रियों,

ना बाह्य साधन विश्व के, ना बुद्धि मन ज्ञानेंद्रियो।

से सुलभ कतिपय किसी को, पर ब्रह्म होता अवश्य है,

दृढ़ निश्चयी जिज्ञासु साधक, ब्रह्म पाते अशक्य हैं॥ [ १२ ]


अस्तीत्येवोपलब्धव्यस्तत्त्वभावेन चोभयोः ।

अस्तीत्येवोपलब्धस्य तत्त्वभावः प्रसीदति ॥ १३ ॥

है ब्रह्म का अस्तित्व निश्चय, हो यही दृढ भावना,

पुनि तदंतर तत्व भाव से, प्राप्त करने की कामना।

अस्तित्व के प्रति अटल निश्चय, तत्व रूप की साधना,

से प्रभु प्रत्यक्ष होते चाहे जब स्नेही मना॥ [ १३ ]


यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः ।

अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥ १४ ॥

कामनाएं सकल जब साधक के मन की शेष हों,

मरणशील मनुष्य पर, तब कृपा प्रभु की विशेष हो।

जब समूल हो नष्ट वृतियों, ब्रह्म तब ही विज्ञ हो,

ब्रह्म उतना निकट जितना कि विज्ञ लक्ष्य प्रतिज्ञ हो॥ [ १४ ]


यथा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः ।

अथ मर्त्योऽमृतो भवत्येतावद्ध्यनुशासनम् ॥ १५ ॥

जब जड़, अहंता ,मोह, माया, ममता और अज्ञान की,

ग्रंथियों कट जाती तब ही दृष्टि मिलती ज्ञान की।

तब मुक्त हो जाता वह निश्चय,इसी मानव वेश में,

शुचि सत सनातन तत्व है यह गूंजता उपदेश में॥ [ १५ ]


शतं चैका च हृदयस्य नाड्य-

स्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका ।

तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति

विष्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति ॥ १६ ॥

शतम एका नाडियों हैं , हृदय की उनमें से ही,

एक नाड़ी मुख्य सुषुम्ना, उर्ध्वगामी अति मही।

उसके ही द्वारा अंत काल, प्रयाण करता जीव है,

अन्य स्वकर्मानुगति पुनि जन्म पाते वे जीव हैं॥ [ १६ ]


अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा

सदा जनानां हृदये संनिविष्टः ।

तं स्वाच्छरीरात्प्रवृहेन्मुञ्जादिवेषीकां धैर्येण ।

तं विद्याच्छुक्रममृतं तं विद्याच्छुक्रममृतमिति ॥ १७ ॥

अंगुष्ठ के परिमाण वाला है, ब्रह्म सबके ह्रदय में,

स्थित तथापि, पृथक अद्भुत, व्याप्त है वह समय में।

परमात्मा भी आत्मा और देह से यौं पृथक है,

ज्यों मूंज सींक से पृथक अद्भुत, व्यंजना भी अकथ है॥ [ १७ ]


मृत्युप्रोक्तां नचिकेतोऽथ लब्ध्वा

विद्यामेतां योगविधिं च कृत्स्नम् ।

ब्रह्मप्राप्तो विरजोऽभूद्विमृत्यु-

रन्योऽप्येवं यो विदध्यात्ममेव ॥ १८ ॥

नचिकेता अथ यह ब्रह्म विद्या , प्राप्त कर यमराज से,

मृत्यु विहीन, विकार हीन,विशुद्ध बन प्रिय आज से।

वह ब्रह्म वेत्ता मर्म ज्ञाता, जन्म मृत्यु विहीन हो,

जो श्रद्धा से अध्यात्म ज्ञान में,ब्रह्म में लवलीन हो॥ [ १८ ]


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ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

इति काठकोपनिषदि द्वितीयाध्याये तृतीया वल्ली ॥

ॐ सह नाववतु ।

सह नौ भुनक्तु ।

सहवीर्यं करवावहै ।

तेजस्वि नावधीतमस्तु ।

मा विद्विषावहै ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

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