धीरे-धीरे रीतती है करूणा

धीरे -धीरे रीतती है करूणा
धीरे-धीरे संवेदनाएं बदलने लगती हैं प्रस्तर में
धीरे-धीरे सूख जाती है भावुकता की नदी
धीरे-धीरे मनुष्य परिवर्तित हो जाता है किसी यंत्र में

धीरे-धीरे वह सिर्फ जीने के लिए जीने लगता है
लोगों को यह भ्रम देते हुए कि
वह अब महज अपने लिए जी रहा है
पर कोई नहीं देखता
कि धीरे -धीरे
अक्सर वे लोग ही सोख लेते हैं उसकी करूणा, संवेदना और भावुकता
जिनके लिए खुद को दांव पर लगाता रहा वह

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-जितेन्द्र श्रीवास्तव

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