नियम की तरह

वे लोग जिनसे मिले बिना शाम ढलती ही नहीं थी
उदास बैठ जाती थी गुलमोहर की किसी नर्म शाख पर
लगता था जैसे ये न होंगे तो कैसे कटेगा तवील सफर जिंदगी का
कि ये ही सोख्ता हैं मेरे अयाचित दुखों के
अब उनमें से कइयों से मिले ज़माना हुआ
कइयों ने पकड़ ली ऐसी राह कि उनसे मिलने की उत्कंठा ही सो गई चिर निद्रा में
और मैं भी कहाँ रहा निरापद!

शामें आती रहीं अपनी आदत के अनुरूप
और हम बदलते गए अपनी आदतें
कभी संभालने के लिए जिंदगी की गति
और कभी अपने अनुरूप करने के लिए
हाथ से छूटती जिंदगी की रफ्तार

ऐसे में छूटना ही था बहुत कुछ प्रिय
और संचित ही होना था ढेर सारा अनिच्छित
इच्छित त्वचा के ठीक नीचे हर नियम को धता बताते हुए

वैसे भी नियमों की यांत्रिकता
और जीवन के बहाव में रहता ही आया है संघर्ष
कभी – कभी तो एक दूसरे के विलोम की तरह मिले हैं ये

इसलिए आज जो अप्रिय है वह
संभव है अप्रिय ही रहे सदा
लेकिन लिख-कह नहीं सकते इसे नियम की तरह

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-जितेन्द्र श्रीवास्तव

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