एकाकी चलती जाऊँगी

एकाकी चलती जाऊँगी।

रोकेंगी बाधाएँ फिर भी
बाँधेंगी विपदाएँ फिर भी
राहें नई बनाऊँगी
एकाकी चलती जाऊँगी।

संकल्पों के सेतु होंगे
निष्ठा दिशा दिखाएगी
साहस होगा पथ प्रदर्शक
आशा ज्योत जलाएगी

विश्वासों के पंख लगा मैं
नभ में उड़ती जाऊँगी।
अपनी डगर बनाऊँगी।

संग चलेंगी सुधियाँ ‘कल’ की
और ‘आज’ का धैर्य होगा
मंज़िल कितनी दूर भी होगी
रस्ता कितना दुर्गम होगा

वायु से ले वेग की दीक्षा
शून्य भेदती जाऊँगी।
नभ में राह बनाऊँगी।

काले मेघा घिर-घिर आएँ
सूर्य किरण बन चलना होगा
बीहड़ जंगल राह भुलाएँ
ध्रुव तारा बन हँसना होगा।

उलकाओं के दीप जला कर
जीवन पर्व मनाऊँगी।
एकाकी चलती जाऊँगी।

*****

– शशि पाधा

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