
फिर वही
वही खिड़की
वही कुर्सी
वही इलायची वाली चाय
वही पसन्दीदा कप
वही थकन
वही सवाल
और वही जवाब!
उफ्फ!
ये बेहिसाब ज़िम्मेदारियाँ!
लाइन लगाकर
हमेशा तैनात,
जाने कब ख़त्म होंगी . . .
जाने कब सब बड़े होंगे..
जाने कब मुझे छुट्टी मिलेगी . . .??
और फिर,
वही उदास ख़्याल–
धीरे धीरे
सब अपने अपने
पथ पर चल देंगे . . .
मैं अकेली हो जाऊँगी . . .
जीवन सन्ध्या के
गहराते अँधेरे में
क्या करूँगी
अपनी क्षीण होती
शक्ति से . . .
सारी सीमाएँ
सिमट जाएँगी . . .!
और एक बार फिर,
चाय की अंतिम चुस्की का
वही जादू-भरा
जोशीला सुझाव–
मैं क्या करूँगी?
ख़ूब आराम करूँगी!
कोई काम न होगा
कोई बंदिश न होगी
कोई भागम-भाग न होगी . . .
बस मैं,
और मेरी क़लम . . .
काग़ज़, कैनवस
और रंग . . .!
हाँ, और वही खिड़की
वही आराम कुर्सी
इलायची वाली चाय
और पसन्दीदा कप भी . . .
बहुत मज़ा आएगा
है न!! . . ..है न??
*****
– प्रीति अग्रवाल ‘अनुजा’