
मुलाक़ात
नहीं है, तो न सही
फ़ुर्सत किसी को,
चलो आज ख़ुद से,
मुलाक़ात कर लें!
वो मासूम बचपन,
लड़कपन की शोख़ी,
चलो आज ताज़ा,
वो दिन रात कर लें।
वो बिन डोर उड़ती,
पतंगों सी ख़्वाहिशें,
बेझिझक, ज़िंदगी से,
होती फ़रमाइशें,
चलो ढूँढ़ें उनको
कभी थे जो अपने,
पिरो लाएँ, मोती-से,
कुछ बिखरे सपने।
यूँ तो बुझ चुकी है
आग हसरतों की,
कुछ चिंगारियाँ पर हैं
अब भी दहकतीं,
दबे, ढके अंगारों की
क़िस्मत सजा दें,
नाउम्मीद चाहतों को
फिर से पनाह दे!
न गिला, न शिकवा
सब कुछ भुला दें,
ख़ुश्क आँगन में दिल के
बेशर्त, बेशुमार, नेह बरसा दें!
चलो आज ख़ुद से
मुलाक़ात कर लें . . .!
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– प्रीति अग्रवाल ‘अनुजा’