रिमझिम बरसे बदरा

रिमझिम बरस बदरा भीगा है तन
तेरी प्रिय यादों में भीगे मेरा मन।
सर्पीली रातें
मायावी दिन
शबनमी शिकवे
छेड़े हर छिन
सावन बुझा ना पाया मेरी ये तपन।

वीरानी चाहत
सपने अनगिन
सूना जग लागे
है तेरे बिन
मिलने को आतुर बाहें और नयन।

अधरों में सिमटा
गदराया विश्वास
सपनों में पलती
गर्वीली आस
भाग्य के आदेशों को करते नमन।

ढलती जाती है
शर्मीली शाम
मौन चिपका कर
हम कर लें आराम
इतना इतराता क्यों है पागल पवन।

*****

– श्रीनाथ द्विवेदी

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