मंज़िलें हैं रास्ते हैं औ आप हैं

तय नहीं कर पा रहे जायें किधर
मंज़िलें हैं, रास्ते हैं, आप हैं।

सफ़र की तैयारियाँ कब से शुरू,
याद हमको कुछ नहीं आता अभी।
हमवतन का कारवाँ चलता बना,
बिन बताये हैं चले जाते सभी।
मीत रूठे, स्वप्न टूटे, साथ छूटे,
अथवा अघोषित श्राप हैं॥

है लगा मेला यहाँ पर प्रीति का,
बिक रहा मोती अब नीति का।
स्वार्थ की व्यग्र भारी भीड़ में,
कर रहे पीछा सभी कीर्ति का।
जलजले हैं, दिलजले हैं, मनचले हैं,
अथवा पुण्यवेष्ठित पाप हैं॥

दर्प की फैली पड़ी हैं सीपियाँ,
लोभ के शंख हैं आवेश में।
मोह की रेत पसरी दूर तक,
छ्ल-दिखावे के परिवेश में।
असमर्थ हैं, बेअर्थ हैं, व्यर्थ हैं,
अथवा महामंडित जाप हैं॥

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– श्रीनाथ द्विवेदी

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