परछाइयाँ

शाम से ही नाराज़ हैं अब हमसफ़र परछाइयाँ।
कर रहीं कब से शिकायत मुँह लगी तन्हाइयाँ॥

जाने कब से तप रहा है विवशता का आसमाँ।
और अब पंखा झले हैं भाग्य की अमराइयाँ॥

जब कभी चुपचाप तन्हा छत को हम देखा करें।
खटखटाती याद की तब खिड़कियाँ रुसवाइयाँ॥

जो पतंगों की तरह कभी उड़ते रहे आकाश में।
धूल में लिपटे हुए हैं औ हँस रही गुमनामियाँ॥

बोलियाँ लगती हैं देखो हर ग़ज़ल व् गीत पर।
अब कीमतें समझा रही हैं दुधमुही बनजारियाँ॥

सैर में निकला हुआ है हादसों का कारवाँ।
फ़ासले भरती हैं अक़्सर वक़्त की अंगड़ाइयाँ॥

कीर्ति की प्यासी खड़ी है दूर तक लंबी क़तार।
अँजुरियों में भर रही जल तृप्ति की पनहारियाँ॥

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– श्रीनाथ द्विवेदी

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