
सुनो अमीनी
दरख़्त की डाल…
ऊंची फुनगी पे बैठी
गौरैया से बतियाती
अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पायी…
इक दिन सवाल कर ही बैठी…
उड़ान के हौंसले
कहाँ से लाती हो तुम…?
चीलों, गिद्दों और बाज़ की नजरों से
अपने को कैसे बचाती हो तुम…?
लौटकर मेरी ही टहनी पर
अपने नीड़ में
रात बिताती
सहम तो नहीं जाती..?
मेरी खोखल में ही बसते हैं
कुछ संपोले
मैंने उन्हें पनाह नहीं दी…!!!
लेकिन
क्या करूं
मेरे ही गर्भ में शरण पाई है
इन्होंने भी
तुम्हारी ही तरह
इनकी भी रक्षक बनी हूं
जाने अनजाने में
मैंने ही इन्हें पाला पोसा है…
मेरी नन्हीं गौरैया
तुम्हारे दुश्मन
आकाश में भी स्वच्छंद घूम रहे हैं
और
मेरे गर्भ में तो
ताक लगाए बैठे हैं
तुम्हारे जिस्म पर
जो उनके लिए मात्र
एक वक्त का कलेवा है…!
जाँचने का वक्त आ गया है अब
तुम्हारे पंखों में कुछ शहतीर तो नहीं?
परों पर किसी ने कतरनी तो नहीं चलाई?
समय की धार ज़रूर
पैनी होती जा रही है
हुक्मरानों की चाबुक
तैयार है
उनकी फौज समेत…!!
लेकिन
ज़रा गौर से देखो
वर्षों से बंधी
तुम्हारे नन्हें पैरों की
बेड़ियों में
अब जंग लग चुका है
मामूली सी शै
तोड़ देगी तुम्हारे बंधन
ज़ोर से आवाज़ तो लगाओ….
आकाश की छाती पे उड़ते
तुम्हारे शत्रु
और
मेरे खोखल के दरिंदे
बिलों में जा छिपेंगे…
पनाह माँगते
नज़र आयेंगे..!!!
सुनो अमीनी
तुम्हारा इरादा
रूढ़ियों को चुनौती देना था
या
रूढ़ियों को मानने का..!!!
कौन तय करेगा यह…?
मीटर भर का टुकड़ा…?
पास भी था
साथ भी था
लिपटा भी था
तुम्हारी गर्दन के इर्द गिर्द…!!
पर सलीके और संभाल का
इंच दर इंच का फ़ैसला
तुम नहीं माप पायीं..!!!
हिसाब लगाने में
ज़रूर कमज़ोर रहीं तुम…!!!
किस किस की जवाबदेही है
तुम्हारी देह पर
इस गुणा – घटा का
अंदाज़ा न लगा पायीं…!!!!
तुम नहीं जानतीं
कितनों के भीतर की ज्वाला को
हवा दे गईं तुम…!
कितनों को जुबां,
और कितनों को
अपने वजूद पे
यकीं दिला गईं तुम..!
कितनों ने कितनी ही जानें
गवां दीं अब तक
कितनी अस्मत
रौंदी जा रहीं हैं..!!!
नजफी का सवाल भी कितना
मासूम है..!
क्या इंसान की जान लेने को
सीने में एक गोली काफ़ी नहीं….
बेखौफ़ दरिंदों की
छह गोलियां
दरअसल
उनके खौफ़ को खुले आम
बेपर्दा कर रही हैं
खौफ़ की शक्ल
ज़ुल्मों में साफ़ दिख रही है
ज़ुल्मों में साफ़ दिख रही है…
*****
– नोरिन शर्मा