बासंती हवा

पोर पोर में फूल खिले हैं
रोम रोम खुशबू से भरा
नाच रहा है मन मेरा या
झूम रहे आकाश धरा

दिखे अधिक पीली मुझको
या किसी ने रंग डाली सरसों
महक रही है क्यूँ इतनी
इतराती हुई ये ठंडी हवा

चाँदी की लहरें हैं पहने
सोने के महँगे गहने
है कोई त्योहार आज क्या
मुझको भी बतलाओ ज़रा

कलियों ने सिर दिये हिला
पत्ते बोले क्या हमें पता
तुम ही जानो सखियों ने कहा
ये है किसका सब किया धरा

सुन लूँ जो पुरवाई कहे
या पढ़ लूँ जो पानी पे लिखा
मुझे रोक रही है शर्मो-हया
दोहरा भी दो जो तुमने कहा।

*****

– दिव्या माथुर

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