
मालिनी
– डॉ स्मिता सिंह
मालिनी ने कभी एक निर्णय लिया था कि कभी भी भारत नहीं लौटेगी। आज इतने वर्ष बाद अपने देश की मिट्टी पर कदम रखते ही ख़ुशी के अनगिनत दीप जल उठे; ऐसा क्या हो गया था, कौन सी ऐसी बात हो गई थी,की वह भारत लौटना ही नहीं चाहती थी…
परन्तु इस वक़्त वह इतनी प्रसन्न चित दिख रही थी जिसको शब्दों में बयान करना मुश्किल था। इतनी खुश जिसका कोई पारा वार ना था। कितने ही मीठे यादगार लम्हे जुड़े हुए थे इस शहर के और वह मंद मंद मुस्कराती खोई हुई थी,तभी बेटा आरव ने हाथों को घुमा इशारा किया की मम्मी कहाँ खोई हो!
अपने देश को छोड़ने का फ़ैसला उस का था और कभी ना आने का आजीवन निर्णय भी उसी का था।
आज फिर उसी पावन भारत भूमि पर ……..
इंसान जब अत्यधिक भावुक हर बात को लेकर हो जाता है तब सही ग़लत का निर्णय लेना भी मझधार में ही हिचकोले खाने जैसा होता है।
तिल का ताड ना बनाई होती तब आज यहीं होती इसी पावन धरती पर अपने परिवार संग ना, कि सब को छोड़ विदेश में कष्ट झेलती। वहाँ जाने का निर्णय और घर की दहलीज़ लांघने का निर्णय तब लिया था उसने, जब उसको सभी को सहारा देना चाहिए था। संयुक्त परिवार था और चाचा, चाची, बुजुर्ग दादा दादी, चचेरे भाई बहन साथ में रहते थे। माँ बाप ने जितना हो सका उतना सहारा दिया उसे और खर्च भी खूब किया उसकी पढ़ाई लिखाई पर, लेकिन जब आज वह उनके ही सहायता से कुछ बन गई और पैरों पर खड़ी हो कमाने लगी तब मनमानी करने लगी ……..
एक दिन बम विस्फोट किया, कि वह किसी से प्यार करती है और उसी से शादी करेगी। कोई भी खुश नहीं था उसके चयन से क्योंकि लड़का अन्तरजातीय था ..
शादी की विजातीय चयन से सभी उससे ख़फ़ा थे और सभी का मानना था की अपनी मनमानी कर रही है और परिवार की प्रतिष्ठा को कालिख पोत रही है। चूंकि होनेवाले पति नीची जाति से थे इसलिए कोई घर पर तैयार नहीं हुआ धूमधाम से शादी के लिए। एक ही दिन में रस्में निभा कर सभी ने बस फ़र्ज़ निभाया बुझे मन से।
उस घर की ऐसी लौ थी मालिनी जिसने आज तक माँ बाप का नाम ऊँचा किया उच्च शिक्षा प्राप्त करके और बड़ी पदाधिकारी बनकर लेकिन एक दिन अचानक पहले शादी का ग़लत निर्णय फिर कुछ दिनों में ही उसने विदेश में काम करने का मन बना लिया ऐसा सोच कर कि वहाँ के लोग खुले विचारों के होते हैं और वह अपनी क़ाबिलियत के अनुसार वहाँ खूब पैसे कमा सकेगी और तभी मौक़ा मिल भी गया। भाग्य की धनी थी या भाग्यहीन??
एक नई राह विदेश की मिली तब उसने अपने स्वभाव को अचानक ऐसा बना लिया जो उसको अपने परिवार से ही दूर ले गया। वहाँ जाकर कभी किसी से संबंध ना के बराबर ही रखी।
बस औपचारिकता तक ही संबंध रह गया। इतना तक कि माँ-बाप से भी दूरी। कभी कभार ही फ़ोन आदि किया करती थी।
लड़का आरव वही विदेश में हुआ; जब तक छोटा था तब तक सब ठीक ही था। बड़ा होते ही मदमाते किशोर अवस्था में मादक द्रव्यों का क़हर और आधुनिक जीवन शैली यही पहचान बन गयी थी आरव की ……..
लेकिन आज जब वह भारत आई तब याद आई आरव की बेशर्म हरकतें जो वह विदेशी माहौल में सीख कर उन्हें परेशान किया करता था। कम उम्र में ही बियर, शराब, लड़कियों के साथ मस्ती-खोरी। पढ़ाई में ध्यान ना लगा कर सिर्फ़ ऐयाशी की आदत। मालिनी अपनी नौकरी में व्यस्त और पति भी दूर दूर रहने लगे थे। परवरिश अच्छी नहीं की उसने, उसका ताना पति सौमित्र देते रहते थे। झगड़ा भी होता था अकसर दोनों में। एक दिन सौमित्र के फ़ोन से यह भी ज़ाहिर हुआ की वह किसी लेबनीज़ लड़की के साथ सम्बंध में हैं ……..
एक दिन बात इतनी बढ़ गई की सौमित्र छोड़ कर घर चले गए और मालिनी ने फिर एक बार निर्णय लिया भारत प्रस्थान को।
जिस घर को छोड़ आयी थे इस जीवनसाथी के लिए उसने भी पलट कर नहीं पूछा।।
लेकिन अपने घर की दहलीज़ पर जैसे ही कदम रखी और आरव के लिए सभी का प्यार देख तब उसको अहसास हुआ कि बड़े बुजुर्गों का सिर पर हाथ कितना ज़्यादा ज़रूरी होता है।
इक्कीसवीं सदी में, जात-पात कोई मायने नहीं रखता यह सत्य है,मगर घर के बड़े बुजुर्गों की बात मानना और धैर्य रखना, सही वक़्त का इंतज़ार करना यह मायने ज़रूर रखता है।
जिस नौकरी को पाने में इसके पूरे परिवार ने साथ दिया, उस नौकरी से किसी का हित ना हुआ। आर्थिक रूप से माँ-बाप कमजोर हो गये थे सुर वह विदेश में अपनी ज़िंदगी जीने में लगी हुई थी।
शायद ही कभी फिक्र की हो किसी की आज तक मालिनी ने लेकिन आज जब वह फिर परिवार के साथ है तब किसी के चेहरे पर कोई शिकन नहीं और कोई भी पुरानी बातें याद कर माहौल को ख़राब नहीं कर रहे थे।कितना अंतर होता है अपनी संस्कृति में, अपनापन में। विदेश में क्या करने गई थी?? कितना नुक़सान हुआ उसका। जिस पति संग गई वह भी अब उसका नहीं रहा इसलिए उसने यह तय किया की आज से एक नई शुरुआत करेगी
अब यही रहेगी और यही काम भी करेगी ताकि परिवार की देखभाल भी कर सके। आरव जिस प्यार से महरूम रहा आज तक, उसको भी पता तो लगे कि परिवार में रहने का महत्व क्या है ?? अपनी संस्कृति को समझेगा पश्चिमी संस्कृति, ग़ुलामी की मानसिकता से निकल अपनी गौरवशाली पहचान में एक अध्याय जोड़ेगा।
बहुत ज़रूरी होता हैं सिर पर बड़े बुजुर्गों का हाथ यह बात उसे बहुत बरसों बाद पता लगी। कहते हैं ना सुबह का भुला शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते। मनोवैज्ञानिक के पास आरव को ले गई। पूजा पाठ कराया और कुछ सालों में आज सब ठीक है मालिनी की ज़िंदगी में।
देर आए दुरुस्त आए
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