
देवी पूजन
– आस्था नवल, वर्जीनया, यू एस ए
उत्तराखण्ड के भव्य मंदिरों में से एक मंदिर के सबसे बड़े पुरोहित जी ने अपने बेटे को अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल से शिक्षा दिलवाई थी और साथ ही साथ उसे अपनी यानि पुरोहित वाली भी सारी शिक्षा दी थी। सुबह से दोपहर तक पंडित जी का बेटा ‘गोपाल’ पैंट कमीज़ टाई लगाकर गुडमोर्निंग सर / मैडम कहता फिरता। घर आते ही कुर्ता पजामा पहनकर पिताजी के साथ मंत्रोच्चारण का पाठ सीखता। गोपाल की तीन बहनें थीं, दो बड़ी, एक छोटी। छोटी बहन का जन्म इसी उम्मीद से हुआ था कि ईश्वर न्याय करेगा, दो बेटियों के बाद दो बेटे देगा। ज़ाहिर है पुरोहित जी को बेटियों की शिक्षा आदि में विशेष रुचि नहीं थी। दोनों बड़ी बेटियाँ तो भाई पर सदैव न्यौछावर रहने वाली, माँ का रसोई में हाथ बंटाने वाली, सुशील और थोड़ी सी डरपोक लडक़ियाँ थीं। बड़ी बहनों के बालों में हमेशा तेल रहता था, आँखों में सूरमा और तन पर माँ के पुराने ढीले ढाले सलवार कमीज़ होते थे। मंदिर के निकट स्थित सरकारी स्कूल में दोनों लडक़ियाँ जाती थीं। विद्यालय में पुरोहित जी ने हिदायत दी हुई थी कि बेटियों को नृत्य, संगीत आदि से दूर रखना है। यदि भजन गाने हों तब ही ठीक है, रंगोली भी बना सकती हैं। लडक़ियों को बाल लहराने की, सपने देखने की, महत्वाकांक्षी होने की कोई अनुमति नहीं थी।
बेटे गोपाल ने भी जल्दी सीख लिया था कि मंदिर में स्थापित देवियों की अराधना करनी है, उनकी कृपा दृष्टि का पात्र बनना है किंतु घर परिवार की स्त्रियों को कभी कोई महत्व देने की आवश्यकता नहीं है। उसे ये भी पता था कि सभी घर की स्त्रियाँ पुरूषों की सेवा हेतु ही उत्पन्न हुई हैं। उसे पता था कि उसने पैदा होकर ही माता पिता और बहनों पर अहसान और उपकार किया है। पुरोहित जी ने भी गोपाल का भविष्य उज्ज्वल बनाने के सारे उपाय खोज लिए थे। पंद्रह वर्ष की ही आयु में तय हो गया था कि गोपाल पच्चीस का होते ही विदेश चला जाएगा। विदेश में पुरोहित जी को मानने वाले धनी सेठ रहते हैं जो हर वर्ष मंदिर के लिए कई कार्य करवाते हैं। सेठ जी का ह्रदय इतना विशाल था कि उन्होंने साल दर साल मंदिर की जीर्ण शीर्ण अवस्था वाली सभी मूर्तियों को एक एक कर नई मूर्तियों से बदल दिया था। इसके बदले में सेठ जी अधिक नहीं चाहते थे, केवल मूर्ति के शीर्ष पर अपना और अपने परिवार का नाम लिखवाते थे। ऐसे दानवीर सेठ का नाम यदि मंदिर में हर मूर्ति के शीर्ष पर लिखा हो तो बुराई ही क्या है?
सेठ जी ने गोपाल को जब पंद्रह वर्ष का देखा था तभी कह दिया था कि वह गोपाल को विदेश के मंदिर का पुरोहित बनवायेंगे। सेठ जी अपने ही जैसे आस्थावान और धनवान लोगों के साथ मिलकर अपने विदेशीनिवास के निकट एक मंदिर बनाने की योजना में थे। मंदिर को बनने में ५-६ साल लगेंगे, ऐसा बताया गया था। गोपाल को अच्छी अंग्रेज़ी आती थी, पूजा पाठ के नीयम आदि आते थे। उससे अधिक उपयुक्त पात्र तो कोई हो ही नहीं सकता था विदेश के मंदिर के लिए। यदि ५-६ साल में मंदिर बनना था तो पुरोहित जी ने सेठ जी से प्रश्न करने का साहस किया था, “तभी गोपाल को क्यों न बुला लिया जाए, उसके पच्चीस का होने का इंतज़ार क्यों?”
धनवान, उदार, परम्परा निष्ठ सेठ जी ने कहा था, “पच्चीस ज़रा अच्छी उम्र लगती है, तब तक यदि गोपाल की शादी हो जाए और एक आध बच्चा हो तो विदेश में अपने साथियों को बताने में अच्छा लगेगा कि परिवार वाला, राम जैसा पुरोहित आ रहा है। इक्कीस साल का कुँवारा पुरोहित विश्वसनीय सा नहीं लगेगा। फिर विदेश में गोपाल बेटे का ध्यान रखने वाली भी तो कोई होनी चाहिए”।
गोपाल ने भी यह वार्तालाप बड़े मनोयोग से सुना था। पंद्रह की उम्र में भी गोपाल की बुद्धि इतनी तीव्र थी कि वह समझ गया कि उसे बीस इक्कीस का होते ही विवाह कर लेना चाहिए। विवाह से पुरुष का सम्मान अधिक होता है। फिर पुरुष होते ही इतने महान हैं कि किसी स्त्री को उनकी सेवा में हमेशा रहना चाहिए। माँ तो पिताजी को छोड़कर विदेश नहीं जायेंगी, बहनों की शादी हो जाएगी, इसलिए खाना, सफाई के लिए ही नहीं, घर को घर बनाने के लिए स्त्री का होना आवश्यक है। सेठ जी के हर वर्ष पधारने से गोपाल के भी सपने बलवान होने लगे।
बड़ी बहनें गोपाल का आदर सत्कार इस तरह करती थीं कि जैसे वह पिताजी की उम्र का हो। पर साथ ही साथ उसकी हर माँग आदि का ध्यान ऐसे रखती थीं जैसे वे स्वंय अपनी माँ की उम्र की हों। यदि आयु का हिसाब किताब किया जाए तो एक बहन तीन साल और दूसरी केवल दो साल ही बड़ी थी गोपाल से। दोनों बहनें पाककला में, सिलाई, बुनाई में निपुण थीं इसलिए एक के बाद एक उनकी शादी करने में कोई बाधा नहीं आई। इस पुन्न कमाने में भी विदेश वाले सेठ जी पीछे नहीं रहे थे। सेठ जी ही दोनों बेटियों के रिश्ते लाए। सेठ जी की अपनी बेटियां भी गोपाल की बहनों जितनी ही थीं फिर भी सेठ जी की उदारता तो देखिए, उन्होंने इतने अच्छे लड़के पुरोहित जी की बेटियों के लिए ही बताये। बड़े दुखी मन से सेठ जी ने अपना कलेजा खोलकर रख दिया था पुरोहित जी के सामने और कुछ ऐसा कहा था, “ अब देखिए ना पुरोहित जी! मैं तो बस ईश्वर सेवा में ही समर्पित हूँ। ईश्वर ने फिर भी मुझे बेटा नहीं दिया, कोई बात नहीं! विदेश में बड़े होते बच्चे, देश के बच्चों जैसे कहाँ होते हैं? मैं तो चाहता था मेरी अपनी बेटियाँ जायें इन घरों में। लेकिन आपकी बेटियाँ भी तो मेरी ही बेटियाँ हैं। काश मेरी बेटियों को भी इतने घर के काम करने आते!”
पुरोहित जी तो हर्ष से फूले न समाये थे। आज तक जिन बेटियों में उन्हें कोई रुचि नहीं थी आज अचानक से वह उनका मान सम्मान हो गई थीं। दोनों बड़ी बेटियों की शादी बिना किसी दहेज़ के सम्पन्न हुईं। दोनों ही विदेश में रहने वाले पारम्परिक परिवारों में गईं। ऐसे परिवार जिन्हें ज्ञात था कि पुरोहित जी कि बेटियों जैसी बहू मिलना विदेश में असम्भव था। ऐसी बहु जो खाना बनाए, सफाई करें, भजन गायें, सास ससुर के पैर दबाने की आवश्यकता हो तो भी पीछे न हटें। साथ ही बिना दहेज के शादी करने से बहु सदा कृतार्थ रहेगी। अब वे भी कहाँ ग़लत थे? विदेश में काम करने वाली नहीं मिलती, विदेश में उम्र बड़ी हो रही हो तो देश की कम पढ़ी लिखी बहु ही तो आदर्श है। फिर विदेश में पले बड़े लड़के कई लड़कियों से डेट करके देख चुके थे। कोई भी नहीं थी जो माँ जैसा खाना बनाए या उनके पुरूष होने का मान करे! एक दामाद ने साल दो साल अकेले रह कर भी देखा था और जान लिया था कि तथाकथित ‘स्री उचित’ घरेलू कामों से यदि बचना है तो माता पिता की देखी हुई लडक़ी से विवाह ही सर्वोत्तम है। पुरोहित जी ने उन्नीस बीस का होते ही बड़ी बेटियों की शादी उनसे दस बारह साल बड़े लड़को या कहिए आदमियों से करा दी थी। दोनों बहनें इसी बात से प्रसन्न थीं कि उनकी सास ने उनका नया हेयर स्टाइल बनवाया है और उन्हें जीन्स पहनने को भी कहा है।
बेटियों की शादी से पहले , पुरोहित जी ने दोनों लड़कियों को इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स में दाखिला दिलवाया, कुछ तंग कपड़े भी सिलवाये, घर में फोन की एक और लाइन भी लगवाई। दोनों बेटियों को ब्यूटी पार्लर का कोर्स करवाने की विदेशी ससुराल से हिदायत मिली थी। यदि बहु को सास और नंद की आइब्रोज़ बनाना आ जाए तो हर्ज़ ही क्या है! आखिर दहेज़ नहीं ले रहे थे।
गोपाल का उन्नीस होने तक दोनों बड़ी बहनें अपने अपने घर चली गईं । भाई के लिए इमपोर्टिड वस्तुओं की कतार लग गई। पुरोहित जी की शान अब पहले से भी अधिक हो गई। पुरोहित जी के मंदिर में विदेश में रहने वाले दयावान सेठ जी का नाम हर मूर्ति पर विराजमान हो चुका था। जब नाम लिखवाने की कोई जगह ही नहीं बची तब फिर सेठ जी के दान की वजह भी नहीं रही। फिर विदेश के भव्य मंदिर का भी काम ज़ोर शोर से चल रहा था। गोपाल के लिए भी लड़कियों का चयन आरम्भ हो चुका था। आखिर सेठ जी ने कहा था कि बाल बच्चे होंगे तो अच्छा रहेगा। सब कुछ पुरोहित जी की इच्छानुसार हो रहा था लेकिन एक छोटी बहन भी तो थी गोपाल की। बड़ी बहनों ने कभी कुछ मांगा नहीं, गोपाल को कुछ मांगने की आवश्यकता नहीं हुई लेकिन छोटी बहन ‘सिया’ वैसी नहीं थी।
उसने पाँच वर्ष की आयु में ही दीदियों के सरकारी स्कूल में जाने से इंकार कर दिया था, “भईया जहाँ जाएगा, वहीं जाउंगी” का नारा भी लगाया था। नाटक , नृत्य, संगीत, चित्रकला सभी कुछ सीखना था उसे। दीदियों की तरह होम साँइस वाला विषय भी नहीं चुनना था। कोमर्स लेनी थी, गणित के सवाल हल करने थे। भजन उसे अच्छे लगते थे लेकिन उन्हें गिटार के साथ गाना था, तानपुरे या हारमोनियम के साथ नहीं। पुरोहित जी ने जब गिटार लेने से मना कर दिया था तब विदेश वाले जीजा जी से मंगवा ली थी। दीदियों के पुराने कपड़े नहीं, नए फैशन के कपड़े चाहिए थे। सप्ताह में बस एक दिन माँ से बालों में तेल लगवाती थी, बाकी दिन बाल खोलकर ही रहती थी।
घर की तीनों स्त्रियाँ सिया के बहाने अपने सपने जीती थीं। वह माँ जिसने चारदीवारी को अपना जीवन मान लिया था, वह भाई की पुरानी साइकिल को सिया के लिए सहेजती थी, उसको नया रंग कर नया सा बना देती और सिया को साइकिल चलाता देख इस तरह आनंदित होती जैसे चारों धाम हो आई हो।
बड़ी बहनें जिनके नाम क्या थे इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता, वह सिया के लिए फैशनदार कपड़े सिल कर, उसके तरह तरह के बाल बनाकर खुश हो लेती थीं। सिया जब “बड़े होकर ये बनूंगी , वो बनूंगी” कहती तब दोनों इसी बात से बहुत प्रसन्न होती कि सिया सपने देखती है। उन्होंने तो गुड्डे गुड़ियों की शादी के खेल के अलावा कोई खेल भी नहीं खेला था। पिता की नाक न कट जाए बस इसी बात का डर रहता था। या कह सकते हैं कि दोनों बहनों का बस एक ही सपना था कि पिताजी की नाक हमारे कारण ऊंची उठी रहे।
जब जब बड़ी बहनों को राखी या भाई दूज पर कुछ पैसे मिलते, वे दोनों ही पिताजी से छिपाकर सिया के लिए कुछ ले आतीं। माँ सिया को बार बार याद दिलाती थी कि ये लाड़ प्यार इसी घर में है जब शादी होगी तो याद रखियो ऐसा प्यार करने वाला कोई नहीं होगा। लेकिन दोनों दीदी अकसर माँ की बात को काट देती और कहतीं, “माँ तुम्हें ये खुश अच्छी नहीं लगती क्या?” सिया को समझ नहीं आता लेकिन माँ और बड़ी बेटियों के नेत्र यूँ ही सजल हो जाते।
पुरोहित जी सिया के लिए एकदम निशचिंत थे या कभी उसके विषय में सोचते ही नहीं थे। उनके जीवन का बस एक ही ध्येय था, गोपाल को विदेश में बड़ा पुरोहित बना देखने का। कभी कभी जब पुरोहित जी की पत्नी धीमे स्वर में कहतीं कि ,” एक ही बेटा है, इतनी दूर चला जाएगा, इसमें क्या भलाई दिखती है आपको?”
पुरोहित जी बड़े धैर्य और नाज़ से कहते, “ माँ की ममता को जानता हूँ मैं। हर प्रगति में बाधा डालती है। तुम औरतों को बस प्रेम के अलावा आता ही क्या है? तुम क्या जानो प्रतिष्ठा, पद, सम्मान की बातें? समाज में तो हम रहते हैं, समाज की बातें हम सुनते हैं। तुम छोटा ही सोच सकती हो। पता है! यदि मेरा बेटा , हमारा गोपाल विदेश जाएगा तब मेरा नाम कितना बड़ा होगा? आस पास के सभी पुरोहित ईर्ष्या करते हैं मुझसे। मेरा ही बेटा है जो आज के दौर में भी संस्कारों से सराबोर है। मेरी मेहनत का फल है गोपाल। यूं तो मैं कभी विदेश नहीं जा पाता। लेकिन एक बार गोपाल अपना पद सम्भाल ले तो मुझे भी विदेश जाकर प्रवचन करने का मौका मिलेगा। जानती हो इस घर में चार और कमरे बनवा सकता हूँ तब! आस पास के … खैर छोड़ो तुम्हें क्या पता दुनियादारी!”
पुरोहित जी की पत्नी कुछ नहीं बोलतीं, बस मन ही मन सोचती की चार कमरे डलवा के क्या करेंगे जब बेटा विदेश में रहेगा? लेकिन वह केवल प्रेम करने वाली औरत, वह क्या जाने?”
वैसे यहाँ बताना ज़रूरी हो जाता है कि पुरोहित जी का मनपसंद भजन था, “सबसे ऊंची प्रेम सगाई”। लेकिन प्रेम करना केवल ईश्वर को ही शोभा देता है शायद। औरत तो माया, पाप की गठरी, छोटा सोचने वाली, त्रियाचरित्र आदि ही होती है, समाज को कहाँ जाने, बस प्रेम ही जानती है। एक और बात, आस पास के सभी मंदिरों में पुरोहित जी वाला ही मंदिर है जहाँ सेठ जी से कहकर मीरा की भी मूर्ति लगवाई गई थी। सेठ जी के नाम के साथ ‘प्रेम का प्रतीक’ भी शीर्ष पर लिखवाया गया था।
इक्कीस का होते ही गोपाल ने पुरोहित जी को सुझाव दिया कि क्यों न विदेश मे रहने वाली भारतीय लड़की से ही विवाह कर लिया जाए! प्रस्ताव सेठ जी तक पहुंचा; सेठ जी ने बताया कि वह केवल धनवान भारतीयों को ही जानते हैं, सबकी बेटियाँ बहुत अच्छे विदेशी स्कूल कॉलेजों में पढ़ रही हैं। पच्चीस छब्बीस की आयु से पहले कोई भी शादी नहीं करेगी। चार पाँच साल बड़ी लड़की यदि चलेगी तब एक लड़की है उनकी नज़र में। गोपाल को विदेश जाने के लिए यह भी मंज़ूर था। लेकिन वह लड़की डाक्टरी की पढ़ाई कर रही थी और एक पुजारी से शादी करने का उसका कोई इरादा नहीं था।
गोपाल के जीवन का यह पहला आघात था। उससे कोई शादी नहीं करना चाहेगा, ये तो हो ही नहीं सकता था। तीन बहनों का लाडला भाई, माता पिता का इकलौता पुत्र, अंग्रेज़ी में बी।ए। करने वाला पुरोहित का बेटा! भला कोई कैसे इंकार कर सकता था? आखिर वह लड़की डॉक्टर ही बन रही थी, अधिक से अधिक लोगों की जान ही बचा लेगी! निर्वाण तो गोपाल ही दिला सकता था!
गोपाल ने इंटरनेट पर अपने आप लड़की तलाशनी आरम्भ की। अपने विषय में सब सच लिखा, विदेश में रहने वाली ही चाहिए यह भी लिखा। गोपाल उस डॉक्टर बन रही लड़की को बताना चाहता था कि उससे शादी करके गोपाल अहसान करने वाला था, लेकिन इंटरनेट वाली शादी कराने वाली वेबसाइट ने ऐसा होने ना दिया। एक दो लड़कियों के माता पिता ने बात की, किंतु बात आगे नहीं बढ़ी। गोपाल हार मानना तो नहीं चाहता था, लेकिन बाइसवें जन्मदिन पर उसने विदेश में रह रही भारतीय लड़की से विवाह करने का संकल्प त्याग दिया। उसे सेठ जी ने सूचित कर दिया था कि मंदिर पूरा बन चुका है, बस कुछ महीनों की ही बात है। साथ ही उन्होंने ये भी बताया था कि उनके एक दो और धनवान, आस्थावान, दयावान मित्र हैं जो अपने अपने शहर या गाँव से पुजारी लाना चाहते हैं जो बड़ी उम्र के हैं; उन्हें ही पहले बुलाया जाएगा। लेकिन प्रसन्नता की बात यह है कि सबमें गोपाल ही एक है जिसे इतनी अच्छी अंग्रज़ी आती है। मंदिर में सबसे बड़ा पद मिले न मिले जब घर में भक्त पूजा पाठ या शादी के लिए बुलायेंगे तब गोपाल ही बाजी मार लेगा। ये गोपाल की दूसरी हार थी। घर की दोनों बड़ी बहनें भी उसकी आव भगत के लिए नहीं थीं। माँ भी अब सिया के साथ व्यस्त रहती थी। सिया ने स्कूटी चलाना भी सीख लिया था और अब माँ को आए दिन बाज़ार भी ले जाती थी। गोपाल को सब कुछ बिखरता सा प्रतीत हुआ।
उसने पिताजी को कह दिया , “शीघ्र ही कोई लड़की देख लें क्योंकि विदेश में रहने वाली सारी लड़कियाँ संस्कार हीन हैं। विदेश में क्या रहने लगीं, भूल ही गईं कि वह स्त्री हैं। सति-सावित्री, सीता माता जैसी देवियों के देश से हैं। उन्हें तो अपने आप पैरों पे खड़ा होने का चस्का हो गया है। पुरूषों से बराबरी करती हैं। हमारी दीदियों जैसी लड़कियाँ विदेश में नहीं बन सकतीं। वहाँ की लड़कियों को पश्चिम की हवा ने बिगाड़ ही दिया है”।
पुरोहित जी ने भी हांमी भरी और गोपाल की इस बात में एक दो बातें और जोड़ीं और सभी को बता दिया कि उनका संस्कारी बेटा पश्चिमी सभ्यता में पली बड़ी लड़की के साथ जीवन नहीं व्यतीत करेगा। एकाएक गोपाल के अहम को सांत्वना मिली। लोमड़ी अंगूर को खट्टा ही बताती है। गोपाल ने भी अहम के लिए और अपने पुरुषत्व की रक्षा करने के लिए लोमड़ी होना सीख ही लिया। लड़कियों के रिश्तों की कतार लग गई। केवल आस पास की नहीं, दूर दूर तक बात जंगल की आग की तरह फैल गई और पुरोहित जी के बेटे से संबंध जोड़ने हेतु लड्कियों के माता पिता मधुमक्खियों की तरह रिश्ते लेकर आने लगे। गोपाल को एकबार फिर दुनिया सामान्य लगने लगी। ऐसा ही तो होना चाहिए किसी भी सुदर्शन , उच्च कुल के पढे लिखे लड़के के लिए। गोपाल ने मन ही मन उस विदेश में रहने वाली डॉक्टर को माफ कर दिया। सेठ जी के नए विदेशी मंदिर में आने वाले दूसरे पुजारियों को भी उसने मन में तूल नहीं दिया।
सारी लड़कियों का अच्छी तरह चार चार पृष्ठ लम्बा चिठ्ठा पढ़ कर , कई तस्वीरें देख कर, साक्षात्कार के कई राउन्डस के बाद सबसे कम उम्र वाली, सबसे गोरी पार्वती नाम की लड़की को पसंद किया गया। लेकिन पहले ही बता दिया गया की बहु का नाम राधा रानी रख दिया जाएगा। गोपाल के साथ पार्वती नाम कहाँ जचता है! सिया ने प्रस्ताव दिया था कि भाई का नाम यदि शिव कर दिया जाए तो बेहतर होगा क्योंकि गोपाल और राधा का कभी विवाह नहीं हुआ था। इस पर पुरोहित जी ने अपने अग्नि बरसाते हुए नेत्रों से उसे देखा था जिसका असर घर के सभी जनों पर होता था लेकिन सिया पर नहीं हुआ। उसने पिताजी को बस एक मुस्कान भर दी और बोली, “मैं तो पार्वती ही बुलाउंगी उसे”।
माँ ने थोड़ा झिड़कते हुए कहा, “भाभी बुलाएगी तू उसे”। सिया ने सभी को याद दिलाया कि वह होने वाली बहु से एक साल बड़ी है। गोपाल ने गुस्से से कहा, “तो तेरे भी हाथ पीले करवा देते हैं अब”।
पुरोहित जी तो सिया की मुस्कान को ही सह नहीं पाए थे और कमरे से बाहर जा चुके थे। शायद वह कमरे में होते तब सिया भाई को जवाब नहीं देती लेकिन अब वह भी जवाब देने में पीछे नहीं हटी और बोली, “सिया का तो स्वंयवर हुआ था, करा दो! तो मैं भी चुन लूँ अपना वर”। यह कहकर सिया भी कमरे से बाहर चली गई।
उसका सारा गुस्सा गोपाल ने माँ पर ही उतारना अच्छा समझा। आज सुबह ही गोपाल पुरोहित जी के साथ प्रवचन देने गया था जिसमें राम कितना आदर करते थे अपनी तीनों माताओं का उसका सुंदर बखान किया था। प्रवचन में बार बार बताया गया था कि माता का स्थान सबसे ऊँचा होता है। कृष्ण और उनकी दोनों माताओं के प्रति प्रेम के भी उदाहरण दिए गए थे। लेकिन गोपाल की माँ न तो यशोदा थी न कौशल्या, वह तो पुरोहित जी की पत्नी मात्र थीं, जिसका कार्य घर को सुव्यवस्थित रखना ही था। समय पर खाना, साफ सफाई, कपड़े- बर्तन आदि काम, काम कहाँ होते हैं? इसीलिए गोपाल ने जम कर माँ पर गुस्सा निकाला क्योंकि उसी के लाड प्यार ने सिया को ऐसा बनाया था। घर की भलाई, अच्छाई तो बस पुरूषों के हाथ होती है, जो भी ग़लत हो वह औरत का ही दोष है।
माँ ने भी चुपचाप सुन लिया जो गोपाल ने कहा लेकिन न जाने क्यों माँ को सिया के स्वंयवर वाली बात पर दिन भर हंसी आती रही। वह चाहती थी की सिया को डाँटे लेकिन गुस्सा कर ही नहीं पाई। दोनों बड़ी बहनों को भी फोन पर ये बात धीमे स्वर में बतायी गई और खूब रसास्वादन हुआ। असल में माँ के लिए सिया घर की चारदीवारी से बाहर निकलने वाला कोई चोर दरवाज़ा थी जिसके सहारे माँ ताज़ी हवा को अपने भीतर महसूस करती थी।
गोपाल की शादी हो गई, नई बहु कॉलेज का पहला वर्ष ही पूरा कर पाई थी। सिया की दलील पर कि “कल को विदेश में भाभी की पढ़ाई काम आएगी”, नववधु को कॉरेसपोन्डेन्स यानि घर बैठे पढ़ाई जिसमें बहुत कम बाहर जाना होता है, बी ए पूरा करने की अनुमति मिल गई। जैसे तैसे बहु ने सास ससुर की सेवा करते हुए पढ़ाई पूरी की। बी ए फाइनल तक तो माँ भी बन गई। गोपाल की आस सेठ जी के विदेश प्रस्ताव से ही लगी हुई थी। पच्चीस का होते ही उसने सेठ जी से साफ शब्दों में पूछ लिया कि, “और कितना समय लगेगा? एक बेटी का बाप बन गया हूँ, दाड़ी भी रख ली है जिससे बड़ा दिखूं”। सेठ जी ने पुन: बताया कि “मंदिर के ट्रस्टीज़ आयु में इतने छोटे पुजारी को बुलाने में हिचकिचा रहे हैं। तुम तो जानते ही हो कि हम भारतीयों को उम्र का आदर करना आता है, योग्यता तो उम्र के साथ आ ही जाती है“। सेठ जी ने आशवासन दिया कि वह कुछ जल्द ही करेंगे।
पुरोहित जी के साथ गोपाल प्रतिदिन मंदिर जाता, शादी, बच्चा, मृत्यु सभी पर साथ जाता लेकिन गोपाल को कुछ करने का अवसर नहीं मिलता। पिता थे, रौब रखते थे। समाज को दिखाना चाहते थे कि उनका बेटा कितना संस्कारी है। दूसरों को जताने के लिए कितनी ही बार गोपाल की भावनाओं को ठेस पहुंचाते थे, बिन बात के ही सबके सामने शादी शुदा बेटे को डाँट भी देते थे।
सिया तेईस साल की हो गई थी। बिज़नस स्कूल से एम बी ए भी कर चुकी थी। उससे पुरोहित जी किसी भी बात पर बहस नहीं करना चाहते थे क्योंकि उसके आगे पढ़ाई आदि के प्रस्ताव विदेश में बैठे दामादों की ओर से आते थे। ऐसे दामाद जिन्होंने दहेज़ नहीं लिया, उनसे वह कैसे कुछ कह सकते थे। ऐसे दामाद जो सिया की पढ़ाई का भी खर्चा भेज देते थे। इसीलिए गोपाल भी अपनी अनिच्छा को अपने पास ही रखता था। घर की पहली कार भी सिया ने गोपाल से पहले चलानी सीखी थी। गोपाल को सिया पर बिनबात पर ही गुस्सा आता रहता था। उसे सिया के बेबाक तौर तरीकों से जलन होती थी। उसका मन होता था सिया जैसा बनने को। विदेश का कोई संयोग बन ही नहीं रहा था, ऊपर से शादी के चार साल में दो बेटियाँ हो गई थीं। पत्नी ने भी साफ इँकार कर दिया था कि बेटे के लिए फिरसे गर्भवती नहीं होगी। ना जाने कैसे गोपाल की पत्नी घर बैठे बैठे भी बहुत कुछ जानती थी, उसकी माँ जैसी नहीं थी। गोपाल इस बात का भी दोष सिया को ही देता था। माँ सिया और राधा रानी उर्फ पार्वती में भी अच्छी मैत्री हो गई थी। माँ ने अब गोपाल के आगे पीछे घूमना छोड़ दिया था। पत्नी बेटियों में व्यस्त रहती थी। बच्चियाँ अभी इतनी बड़ी नहीं हुई थीं कि पिता का यथायोग्य सम्मान कर सकें। गोपाल ने यह धारणा बना ली कि जब तक सिया यहाँ रहेगी उसका आदर सम्मान नहीं होगा। सिया के तर्कों से भी वह जीत नहीं पाता था । उसने तय कर लिया था कि सिया कि शादी शीघ्र ही करवाएगा। पुरोहित जी भी मान गए, बस और किसी से पूछने की कहाँ कोई दरकार थी!
जैसे गोपाल के लिए हुआ था, ठीक वैसे ही रिश्तों की बोछार हो गई। सिया ने हथियार नहीं डाले और विरोध भी नहीं किया। उसने बस पिता और भाई से यही कहा, “ ठीक है मैं मिलूंगी पहले, देखूंगी लड़कों को, वैसे ही जैसे भाई ने चुनाव किया था”।
गोपाल के गुस्से का ठिकाना न रहा। उसने पहली बार पुरोहित जी के सामने आवाज़ उठाई ओर कहा, “ संस्कार कहाँ बेच खाए हैं तूने? हमारे जैसे घरों की लड़कियाँ ऐसे काम नहीं करतीं। जो मैं और पिताजी तय करेंगे, वहाँ तेरी शादी होगी”। पुरोहित जी ने हाँमी भरी और कुछ दुखी स्वर में बोले, “तेरा नाम सीता माता के नाम पर रखा था। अपनी बड़ी बहनों से, भाभी से कुछ नहीं सीखा तूने!”
पूरे घर का माहौल दोनों पुरूषों ने ऐसा बना दिया जैसे सिया के कारण उनकी नाक कट गई हो। बहुत देर तक दोषारोपण सुनने के बाद सिया ने कहा, “सीता नाम है मेरा, इसीलिए वही करूँगी जो ठीक समझूंगी। आप लोग देवियों की पूजा करते हो, कथायें सुनाते हो पर भूल जाते हो, सीता अबला नहीं थीं, बड़ी ज़िद्दी महिला थीं। पति के लाख मना करने पर भी वन में गई थीं, सास ससुर की सेवा नहीं की थी। मायावी मृग को भी पाने की ज़िद्द की थी। चाहतीं तो हनुमान के साथ लंका से भाग सकती थीं लेकिन वह सभी स्त्रियों का उद्धार करना चाहती थीं। अग्नि परीक्षा के बाद त्यागे जाने को भुलाया नहीं था उन्होंने। राम को क्षमा कर अयोध्या वापिस नहीं गई थीं”।
फिर सिया रौब से बोली थी, “ पिताजी और भईया! मैं अपने नाम के मायने जानती हूँ। समय है आप देवी को पूजने वाले, देवियों को अच्छी तरह से पहचान लें”।
गोपाल और पुरोहित जी समझे या नहीं लेकिन घर की बहु भी अपने नामानुकूल पार्वती जैसी ही हो गई, अपने आप में विश्वास रखने वाली और आगे पढ़ाई करने की मन में ठान ली। माँ का नाम जो भी रहा हो वह आज़ाद हो गई। उसने पुराने ज़माने की सहमी सिमटी चारदीवारी में रहने वाली माँ को त्याग दिया।
गोपाल अगले पाँच वर्ष तक भी विदेश नहीं जा पाया लेकिन सिया ने बड़ी कम्पनी में नौकरी की और नौकरी के कारण देश विदेश में घूमने लगी। पुरोहित जी के इच्छानुसार घर में और कमरे डलवाये गए, घर पहले से बहुत अधिक समृद्ध दिखने लगा, किंतु गोपाल के कारण नहीं, सिया के कारण।
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