
थाईलैण्ड में रामकथा

– शिखा रस्तोगी
अयोध्या का नाम लेते ही स्मृति-पटल पर सरयू के किनारे स्थित सूर्यवंश के चक्रवर्ती सम्राटों की उस राजधानी का भव्य चित्र मुखरित होता है, जिसकी स्थापना वैवस्वत मनु ने की है।सरयू के किनारे बसी अयोध्या केवल सूर्यवंशी सम्राटों की राजधानी ही नहीं है, अपितु प्रत्येक हिन्दू के हृदय में बसे भगवान् श्रीराम की जन्मभूमि भी है। इसलिए अथर्ववेद ने आठ चक्रों एवं नौ इन्द्रियोंवाले मनुष्य-शरीर को ही अयोध्या कहा है। महर्षि वाल्मीकि की उक्ति ‘अयोध्यामटवीं विद्धि’ के माध्यम से ‘जहाँ राम हैं वहीं अयोध्या है’ की अवधारणा युगों युगों से चली आ रही है। इसी अवधारणा को थाईलैण्ड-नरेश महाराज रामातिबोधि प्रथम ने सन् 1350 ई. में थाईलैण्ड में अयोध्या नगर की स्थापना करके चरितार्थ किया। सरयू तट पर स्थित अयोध्या से 3607 कि.मी. दूर छोप्रया, पालाक एवं लौपबुरी नदियों के संगम तट पर बसी अयोध्या थाईलैण्ड वासियों की भगवान् श्रीराम के प्रति अप्रतिम निष्ठा की परिचायक है।
दक्षिण-पूर्व एशिया में स्थित थाईलैण्ड की पहचान हिन्दू-संस्कृति के ध्वजवाहक के रूप में है। थाईलैण्ड में केवल अयोध्या और रामकथा ही नहीं, अपितु वहाँ की पूरी सांस्कृतिक परम्परा ही भारतीय है। 11 मई, 1949 ई. के पूर्व तक थाईलैण्ड का आधिकारिक नाम ‘स्याम’ था। ‘स्याम’ अथवा ‘सियाम’ देश के स्वतन्त्र राज्य के रूप में अस्तित्व में आने के शताब्दियों पूर्व ही इस भूभाग में रामकथा की प्रतिष्ठा हो चुकी थी। अधिकांश थाईलैण्डवासी परम्परागत रामकथा से परिचित थे। सन् 1238 ई. में स्वतन्त्र थाई राष्ट्र की स्थापना हुई। उस समय इसका नाम स्याम था।
भारत के सांस्कृतिक इतिहास पर कार्य करनेवाले भारत विद्याविदों की मान्यता है कि 13वीं शती में स्याम देश की जनता के महानायक के रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम प्रतिष्ठित हो चुके थे। थाई-नरेश ब्रह्मकान्त महाधर्मराज द्वितीय के राजत्वकाल की रचनाओं में रामकथा के पात्रों तथा घटनाओं का उल्लेख हुआ है। परवर्तिकाल में जब तासकिन यहाँ के सम्राट् बने, उन्होंने थाईभाषा में ‘रामकियेन’ नामक रामायण को छन्दोबद्ध किया, जिसके चार खण्डों में 2012 पद हैं। पुन: सम्राट् राम प्रथम ने अनेक कवियों के सहायता से जिस ‘रामकियेन’ रामायण का प्रणयन किया, उसमें 50188 पद हैं। यही थाईभाषा का पूर्ण रामायण है। यह विशाल रचना नाटक के लिए उपयुक्त नहीं थी। इसलिए सम्राट् फ्रेंडिन-क्लांग राम द्वितीय ने एक संक्षिप्त रामायण की रचना की, जिसमें 14300 पद हैं। तदुपरान्त सम्राट् महामोंगकुट राम चतुर्थ ने स्वयं पद्य में रामायण की रचना की जिसमें 1664 पद हैं। सम्राट् महावाजिरवुध राम षष्ठ ने भी वाल्मीकीयरामायण के आधार पर एक रामलीला लिखी। इसके अतिरिक्त थाईलैण्ड में रामकथा पर आधारित अनेक कृतियाँ हैं।
थाईलैण्डवासियों ने जब अपनी रामभक्ति और निष्ठा के कारण सरयू के तट पर बसी पुनीत अयोध्या जैसी दूसरी अयोध्या थाईलैण्ड की धरती पर स्थापित करने का शिवसंकल्प चरितार्थ किया, तभी उनके मन में अपनी रामकथा सृजित करने की चेतना भी जागृत हुई। अयोध्या के रामभक्त नरेशों ने समय समय पर रामकथा का प्रणयन किया, जिसे थाईलैण्डवासियों ने ‘रामकियेन’ की संज्ञा से अलंकृत किया है।
यद्यपि भारतीय रामकथा और ‘रामकियेन’ में तत्त्वतः कोई अन्तर नहीं है, तथापि भौगोलिक दूरी के कारण कतिपय पात्रों और चरित्रों का निर्माण अपने तरीके से किया गया है। यहाँ थाईलैण्ड की ‘रामकियेन’ रामकथा के कथानक पर दृष्टिपात करना आवश्यक है।रामकियेन का आरम्भ राम और रावण के वंश-विवरण के साथ अयोध्या और लंका की स्थापना से होता है। तदुपरान्त इसमें वालि, सुग्रीव, हनुमान्, सीता आदि की जन्म-कथा का उल्लेख हुआ है। विश्वामित्र के आगमन के साथ कथा की धारा सम्यक् रूप से प्रवाहित होने लगती है, जिसमें राम-विवाह से सीता-त्याग और पुन: युगल जोड़ी के पुनर्मिलन तक की समस्त घटनाओं का समावेश हुआ है। रामकियेन वस्तुत: एक विशाल कृति है, जिसमें अनेकानेक उपकथाएँ सम्मिलित हैं। इसकी तुलना हनुमान् की पूँछ से की जाती है। रामकियेन में अनेक ऐसे भी प्रसंग हैं जो थाईलैण्ड को छोड़कर अन्यत्र अप्राप्य हैं। इसमें विभीषण पुत्री वेंजकाया द्वारा सीता का स्वाँग रचाना, ब्रह्मा द्वारा राम और रावण के बीच मध्यस्थ की भूमिक निभाना आदि प्रसंग विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

नाराई (नारायण) ध्यानावस्था में थे। उसी समय क्षीरसागर से एक कमल पुष्प की उत्पत्ति हुई। उस कमल पुष्प से एक बालक अवतरित हुआ। नाराई उसे लेकर शिव के पास गये। शिव ने उसका नाम अनोमतन रख दिया और उसे पृथ्वी का सम्राट् बनाकर उसके लिए इन्द्र को एक सुन्दर नगर का निर्माण करने के लिए कहा। इन्द्र ऐरावत पर आरूढ़ होकर जम्बूद्वीप में एक अत्यन्त रमणीय स्थल पर पहुँचे, जहाँ अजदह, युक्खर, ताहा और याका नामक ऋषि तपस्यारत थे। उन्होंने ऋषियों के समक्ष शिव के प्रस्ताव की चर्चा की। ऋषियों ने द्वारावती नामक स्थल को नगर निर्माण के लिए सर्वोत्तम स्थल बताया, जहाँ पूर्व दिशा में राजकीय छत्र के समान एक विशाल वृक्ष था। नगर-निर्माण के बाद इन्द्र ने उन्हीं चार ऋषियों के नाम के आद्यक्षरों के आधार पर उस नगर का नाम अयुताया (अयोध्या) रख दिया। अनोमतन उस नगर के प्रथम सम्राट् बने। इन्द्र ने एक अन्य द्वीप पर जाकर मैनीगैसौर्न नामक एक अपूर्व सुन्दरी की सृष्टि की। सम्राट् अनोमतन का परिणय उसी महासुन्दरी से हुआ। उसे एक पुत्र हुआ, जिसका नाम अच्छवन था। अपने पिता के बाद वह अयोध्या का सम्राट् बना। उसका विवाह थेपबसौर्न नामक सुन्दरी से हुआ। दशरथ उन्हीं के पुत्र थे।
ब्रह्मा अपने चचेरे भाई सहमालिवान को रंका (लंका) द्वीप से पाताल की ओर भागते देखकर चिन्तित हो गये। लंका द्वीप पर नीलकल नामक एक गगनचुम्बी श्यामपर्वत था, जिसके उत्तुंग शिखर पर कौवों का एक विशाल घोसला था। ब्रह्मा ने उसे शुभलक्षण का संकेत मानकर वहाँ एक नगर निर्माण करने का निश्चय किया। उनके आदेश से विश्वकर्मा ने उस द्वीप पर दुहरे प्राचीरवाले एक सुरम्य नगर का निर्माण किया। ब्रह्मा ने उस नगर का नाम विजयी लंका रखा और अपने चचेरे भाई तदप्रौम को उसका अधिपति बना दिया। उन्होंने उसे चतुर्मुख की उपाधि प्रदान की। चतुर्मुख रानी मल्लिका के अतिरिक्त षोडश सहस्र पटरानियों के साथ वहाँ रहने लगा। कालान्तर में मल्लिका के गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम लसेतियन था।वह पिता के स्वर्गवास के बाद लंकाधिपति बना। उसे पाँच रानियाँ थीं। पाँचों रानियों से पाँच पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके नाम कुपेरन (कुबेर), तपरसुन, अक्रथद, मारन और तोत्सकान (दशकण्ठ) थे। कालान्तर में रचदा के गर्भ से कुम्पकान (कुम्भकर्ण), पिपेक (विभीषण), तूत (दूषण), खौर्न (खर) और त्रिसियन (त्रिसिरा) नामक पाँच पुत्र और सम्मनखा (सूर्पणखा) नामक एक पुत्री उत्पन्न हुई।
नन्तौक (नन्दक) नामक हरित देहधारी दानव को शिव ने कैलाश पर्वत पर देवताओं के पादप्रक्षालनार्थ नियुक्त किया था। देवगण अकारण ही कौतुकवश उसके बाल नोच लिया करते थे, जिसके परिणाम स्वरूप कालान्तर में वह गंजा हो गया। नन्दक ने शिव से अपनी व्यथा-कथा सुनायी, तो उन्होंने द्रवित होकर उसकी तर्जनी ऊँगली में ऐसी शक्ति दे दी कि उससे वह जिसकी ओर इंगित कर देता था, उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती थी। नन्दक अपनी शक्ति का दुरुपयोग करने लगा। देवगण व्यग्र होकर शिव को नन्दक की करतूत के विषय में बताये। शिव ने नारायण को बुलाकर नन्दक का वध करने के लिए अनुरोध किया। नारायण नर्तकी का रूप धारण कर नन्दक के पास पहुँचे। नन्दक उनके रूप को देखकर मोहित हो गया। नर्तकी रूपधारी नारायण ने इतनी चतुराई से नृत्य किया कि नन्दक ने अपनी ऊँगली से अपनी ओर ही इंगित कर लिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। मृत्यु के पूर्व उसने नर्तकी को नारायण रूप धारण करते हुए देख लिया। इसलिए प्रत्यक्ष युद्ध नहीं करने के लिए वह उनकी भर्त्सना करने लगा, तब नारायण ने कहा कि अगले जन्म में वह दस सिर और बीस भुजाओंवाले दानव के रूप में उत्पन्न होगा और वे मनुष्य के रूप में अवतरित होकर उसका उद्धार करेंगे।
अयोध्या के निकट साकेत नामक एक नगर था। उसके सम्राट् कौदम (गौतम) थे। सन्तानहीन होने के कारण वे वन में तपस्या करने चले गये। सहस्रों वर्ष वाद उनकी लम्बी और श्वेत दाढ़ी के भीतर गौरैया की एक जोड़े ने घोसला बना लिया। एक दिन नर-पक्षी कमल पुष्प पर खाद्य सामग्री एकत्र करने के लिए बैठा था। उसी समय सूर्यास्त हो जाने के कारण कमल की पंखुड़ियाँ बन्द हो गयीं। पक्षी को रातभर उसी कमल पुष्प के भीतर रहना पड़ा। प्रात:काल कमल खिलने पर वह अपनी पत्नी के पास पहुँचा, तो मादा-पक्षी ने उस पर विश्वासघात का आरोप लगाया। नर-पक्षी ने कहा कि यदि उसका आरोप सही है, तो वह ऋषि के सारे पाप का भागी होगा। ऋषि उसकी बात सुनकर चकित हो गये। उन्होंने पक्षी से अपने पाप के विषय में पूछा। पक्षी ने कहा कि नि:सन्तान होना पाप है।
ऋषि को जब अपनी भूल की जानकारी हुई, तो उन्होंने गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का निर्णय लिया। उन्होंने तपोबल से एक सुन्दरी का सृजन किया और उसे अपनी पत्नी बना लिया। उसका नाम अंजना था। अंजना ने स्वाहा नामक एक पुत्री को जन्म दिया। गौतम एक दिन भोज्य सामग्री की तलाश में गये। इसी बीच अंजना का इन्द्र से सम्पर्क हो गया, जिसके फलस्वरूप उसने हरित देहधारी एक पुत्र को जन्म दिया। इस घटना के बाद एक बार सूर्य की दृष्टि अंजना पर पड़ी। सूर्य के संयोग से अंजना ने पुन: एक पुत्र को जन्म दिया, जो आदित्य के समान ही देदीप्यमान था। गौतम दोनों को अपना पुत्र समझते थे।
गौतम एक दिन स्नान करने चले, तो उन्होंने एक पुत्र को पीठ पर और दूसरे को गोद में ले लिया। उनकी पुत्री उनके साथ पैदल जा रही थी। उसने गौतम से कहा कि वे दूसरों की सन्तान को देह पर लादे हुए हैं और उनकी अपनी सन्तान पैदल चल रही है। गौतम के पूछने पर उसने सारा भेद खोल दिया। गौतम ने क्रुद्ध होकर तीनों को यह कहकर जल में फेंक दिया कि उनकी अपनी सन्तान उनके पास लौट आयेगी और दूसरों की सन्तति बन्दर बन जायेगी। स्वाहा लौट कर उनके पास आ गयी, किन्तु उनके दोनों पुत्र बन्दर बन गये। हरित बन्दर पाली (वालि) और लाल बन्दर सुक्रीप (सुग्रीव) के नाम से विख्यात हुआ।
सम्पूर्ण ‘रामकियेन’ इस प्रकार के विचित्र आख्यानों से परिपूर्ण है, किन्तु इसके अन्तर्गत रामकथा के मूल स्वररूप में कोई मौलिक अन्तर दृग्गत नहीं होता। ‘रामकियेन’ के अन्त में सीता के धरती में प्रवेश के बाद राम ने विभीषण को बुलाकर समस्या के समाधान के विषय में पूछा। उन्होंने कहा कि ग्रह का कुचक्र है। उन्हें एक वर्ष तक वन में रहना पड़ेगा। उनेके परामर्श के अनुसार राम तथा लक्ष्मण, हनुमान के साथ एक वर्ष वन में रहे और उसके बाद अयोध्या लौट गये। अन्त में इन्द्र के अनुरोध पर शिव ने राम और सीता दोनों को अपने पास बुलाया। शिव ने कहा कि सीता निर्दोष हैं। उन्हें कोई स्पर्श नहीं कर सकता, क्योंकि उनको स्पर्श करनेवाला भस्म हो जायेगा। अन्तत: शिव की कृपा से सीता और राम का पुनर्मिलन हुआ।
‘रामकियेन’ केवल रामकथा ही नहीं है, अपितु थाईलैण्ड की अयोध्या का सांस्कृतिक इतिहास भी है। थाईलैण्ड में रामकथा और रामलीला इतनी लोकप्रिय है कि यहाँ के बहुसंख्य लोगों का विश्वास है कि रामायण के पात्र मूलतः इसी क्षेत्र के निवासी थे और रामायण की सारी घटनाएँ इसी क्षेत्र में घटित हुई थीं। इसलिए थाईलैण्ड की धरती पर ही राम की अयोध्या भी बसा ली गयी। अयोध्या को यहाँ की भाषा में ‘अयुध्या’ लिखा जाता है। थाईलैण्ड में अयोध्या (अयुध्या) नाम का एक नगर है इसकी स्थापना राजा रामातिबोधि I ने सन् 1350 ईú में की थी। थाईलैण्ड के इतिहास में अयोध्या का उल्लेख स्याम देश की राजधानी के रूप में किया गया है। अयोध्या नगरी की स्थापना एवं इसके इतिहास में यहाँ के पास-पड़ोस की जगहों का अत्यधिक महत्त्व और योगदान है। छोप्रया, पालाक एवं लौपबुरी नदियों के संगम से निर्मित द्वीप पर अवस्थित अयोध्या व्यापार, संस्कृति के साथ साथ आध्यात्मिक अवधारणाओं का भी केन्द्र रही है। अपने शिल्प-वैभव के कारण अयोध्या राजनीतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यन्त प्रभावशाली राज्य माना जाता रहा है। मठों, आश्रमों, नहरों एवं जलमार्गों के कारण उस समय इस शहर की तुलना धार्मिक, व्यापारिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से वेनिस और ल्हासा से की जाती थी। ‘अयुध्या’ नाम से थाईलैण्ड में एक नगर, एक जिला, एक प्रान्त और एक बैंक है। ‘अयुध्या हिस्टॉरिकल पार्क’ में प्राचीन अयुध्या नगर के भग्नावशेष संरक्षित हैं।
थाईलैण्ड पर सन् 1782 ई. से अद्यतन चक्री राजवंश का शासन है। इस राजवंश के शासक अपने आपको भगवान् श्रीराम का प्रतिनिधि मानते हैं। थाई-संस्कृति एवं साहित्य का रामायण और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से ऐसी आत्मिक सम्बद्धता है कि यहाँ के राजा अपने नाम के साथ ‘राम’ शब्द सम्पृक्त करते हैं। थाईलैण्ड में सम्प्रति चक्री वंश का शासन है। थाईलैण्ड का राष्ट्रीय चिह्न गरूड़ है।
सन् 1767 ई. में म्यांमार के नागरिकों ने अयोध्या पर आक्रमण करके इसे लूट लिया और तहस-नहस कर डाला। स्याम की राजधानी अयोध्या स्याम की राजधानी नहीं रही। यहाँ केवल जंगल रह गये। सन् 1976 ई. में थाइलैण्ड की सरकार ने इस शहर के पुनर्निर्माण पर ध्यान दिया। यहाँ के जंगलों को साफ़ करके अवशेषों की मरम्मत की गयी और विश्व-पटल पर इसे पुनः स्थापित किया गया।
थाईलैण्ड की वर्तमान राजधानी बैंकाक से 150 कि.मी. पूर्वोत्तर में लौपबुरी नाम का भी एक प्रान्त है, जहाँ इसी नाम की नदी भी यहाँ है। लौपबुरी प्रान्त के अन्तर्गत ‘वांग-प्र’ नामक स्थान के निकट ‘फाली’ (वालि) नामक एक गुफा है। कहा जाता है कि वालि ने इसी गुफा में ‘थोरफी’ नामक महिष का वध किया था। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि थाई-रामकथा ‘रामकियेन’ में दुन्दुभि दानव की कथा में किंचित् परिवर्तन हुआ है। इसमें दुन्दुभि राक्षस के स्थान पर थोरफी नामक महाशक्तिशाली महिष है, जिसका वध वालि द्वारा होता है। वालि नामक गुफा से प्रवाहित होनेवाली जलधारा का नाम ‘सुग्रीव’ है। थाईलैण्ड के ही नखोन-रचसीमा प्रान्त के पाक-थांग-चाई नामक स्थान के निकट थोरफी पर्वत है, जहाँ से वालि ने थोरफी के मृत शरीर को उठाकर 200 कि.मी. दूर लैपबुरी में फेंक दिया था। सुखोथाई के निकट सम्पत नदी के पास ‘फ्रा राम’ गुफा है। उसके पास ही ‘सीता’ नामक गुफा भी है।
बैंकाक में स्थित थाईलैण्ड के सर्वाधिक पवित्र बौद्ध-मन्दिर ‘वट फ्रा कायो’ की भत्तियों पर 178 चित्रों में सम्पूर्ण रामकियेन को चित्रित किया गया है। ऐसी मान्यता है कि इन चित्रों का निर्माण थाईलैण्ड के महान् सम्राट् फ्रा फ्रुट्ट योट फा चुलालोक राम प्रथम के शासनकाल में हुआ था। थाईलैण्ड के पाँचवें सम्राट् चुलालोंगकोर्न राम पंचम तथा उनके साहित्य-मण्डल के सदस्यों ने समवेत रूप से इन भित्तिचित्रों में रूपायित रामकथा को काव्यबद्ध किया था। कालान्तर में उन पद्यों को शिलोत्कीर्ण करवा कर उन्हें सम्बन्धित भित्तिचित्रों के सम्मुख पाषाणस्तम्भों में जड़वा दिया गया। इससे स्पष्ट होता है कि थाईलैण्डवासी अपनी सांस्कृतिक विरासत के प्रति कितने संवेदनशील हैं।
बैंकाक के राजभवन-परिसर के दक्षिणी किनारे पर ‘वाट-पो’ या ‘जेतुवन विहार’ है। इसके दीक्षा-कक्ष में संगमरमर के शिलापट्टों पर रामकथा के चित्र उत्कीर्ण हैं।
दक्षिणी थाईलैण्ड और मलेशिया के रामलीला-कलाकारों का ऐसा विश्वास है कि रामायण के पात्र मूलतः दक्षिण-पूर्व एशिया के ही निवासी थे और रामायण की सारी घटनाएँ इसी क्षेत्र में घटी थीं। वे मलाया के पश्मिमोत्तर में अवस्थित एक लघु द्वीप को लंका मानते हैं। इसी तरह उनका विश्वास है कि दक्षिणी थाईलैण्ड के ‘सिंग्गोरा’ नामक स्थान पर सीता-स्वयंवर रचाया गया था, जहाँ राम ने एक ही बाण से सात ताल-वृक्षों को बेधा था। सिंग्गोरा में आज भी सात ताल-वृक्ष विद्यमान हैं। जिस प्रकार भारत और नेपाल के लोग जनकपुर के निकट अवस्थित एक प्राचीन शिलाखण्ड को राम द्वारा तोड़े गये शिव-धनुष का टुकड़ा मानते हैं, उसी प्रकार थाईलैण्ड और मलेशिया के लोगों को भी विश्वास है कि राम ने उन्हीं ताल-वृक्षों को बेधकर सीता को प्राप्त किया था। थाईलैण्ड में रामकथा जनमानस में इतने गहरे तक समायी हुई है कि किसी की आँखों की सुन्दरता की उपमा सीताजी की आँखों से दी जाती है, जबकि सूर्पणखा भद्देपन की प्रतीक है। वस्तुतः थाईलैण्ड की सांस्कृतिक विरासत मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम के उदात्त चरित से अलंकृत है। अयोध्या, लवपुरी, विष्णुलोक, द्वारावती, समुद्र-प्रकरण आदि स्थान थाईलैण्ड की राम-भक्ति को प्रकट करते हैं। भारत की अयोध्या से प्रेरित होकर बसायी गयी थाईलैण्ड की अयोध्या निश्चय ही अपने स्वर्णिम अतीत के लिए स्मरणीय है।
दक्षिण-पूर्व एशिया-स्थित थाईलैण्ड यानि ‘स्याम’ अथवा ‘सियाम देश के एक स्वतंत्र राज्य के रूप में अस्तित्व में आने के पहले ही इस क्षेत्र में रामायणीय संस्कृति विकसित हो गई थी। अधिकतर थाईवासी परम्परागत रूप से रामकथा से सुपरिचित थे। 1238 ई. में स्वतन्त्र थाई राष्ट्र की स्थापना हुई। उस समय उसका नाम ‘स्याम’ था। ऐसा अनुमान किया जाता है कि 13वीं शती में श्रीराम यहाँ की जनता के नायक के रूप में प्रतिष्ठित हो गए थे। थाई-नरेश ब्रह्म त्रैलोकनाथ की राजभवन-नियमावली में रामलीला का उल्लेख है जिसकी तिथि 1458 ई. है। थाई-नरेश ब्रह्मकोत महाधर्मराज II के राजत्वकाल की रचनाओं में रामकथा के पात्रों तथा घटनाओं का उल्लेख हुआ है। किन्तु रामकथा पर आधरित सुविकसित साहित्य 18वीं शती में ही उपलब्ध होता है।
थाई-रामायण को रामाख्यान के अर्थ से ‘रामकिएन’ कहा जाता है। इसे ‘थाईलैण्ड के राष्ट्रीय महाकाव्य’ का सम्मान प्राप्त है। मूल ‘रामकिएन’ 1767 ई. में ‘अयुध्या’ में नष्ट हो गया। परवर्ती काल में जब तासकिन यहाँ के सम्राट् बने, तब उन्होंने थाई-भाषा में ‘रामकिएन’ को छंदोबद्ध किया, जिसके चार खण्डों में 2,012 पद हैं । पुनः सम्राट् राम I ने अनेक कवियों के सहयोग से ‘रामकिएन’ की रचना करवाई, जिसमें 50,188 पद हैं। यही थाई-भाषा का पूर्ण रामायण है। यह विशाल रचना नाटक के लिए उपयुक्त नहीं थी। इसलिए सम्राट् के पुत्रा राम II ने रामकिएन का एक संक्षिप्त संस्करण तैयार किया, जिसमें 14,300 पद हैं । राम VI ने भी वाल्मीकिरामायण पर आधारित एक रामलीला लिखी। इसके अतिरिक्त थाईलैंड में रामकथा पर आधारित अनेक कृतियाँ हैं। ‘शिल्पतोनू’ (उपाख्य शिल्पाधिकरण) नामक जो सरकारी ललितकला-संस्थान थाईलैण्ड में है, वह उन राजलिखित रामकथाओं को विशेष अवसरों पर रंगमंच पर प्रस्तुत करता है।
थाईलैण्ड में या तो मुखौटे पहनकर रामलीला की जाती है या छायानाट्य के रूप में। मुखौटे पहनकर किए जानेवाले नाट्य को स्यामी-भाषा में ‘टोपेंग’ कहा जाता है। छाया-नाट्य को ‘नंग’ कहते हैं। इसके अंतर्गत सप़ेफद पर्दे को प्रकाशित किया जाता है और उसके सामने चमड़े की पुतलियों को इस प्रकार नचाया जाता है कि उसकी छाया पर्दे पर पड़े। ‘नंग’ के दो रूप हैं– ‘नंग याई’ और ‘नंगतुलुंग’। नंग का अर्थ चर्म या चमड़ा और याई का अर्थ बड़ा है। ‘नंग याई’ का तात्पर्य चमड़े की बड़ी पुतलियों से है। इसका आकार एक से दो मीटर लम्बा होता है। इसमें दो डण्डे लगे होते हैं। नट दोनों हाथों से डण्डे को पकड़कर पुतलियों को ऊपर उठाकर नचाता है। इसका प्रचलन अब लगभग समाप्त हो गया है। ‘नंगतुलुंग’ दक्षिणी थाईलैण्ड में मनोरंजन का लोकप्रिय साध्न है। इसकी चर्म-पुतलियाँ नंग याई की अपेक्षा बहुत छोटी होती हैं। ‘नंगतुलुंग’ के माध्यम से मुख्य रूप से ‘रामकिएन’ का प्रदर्शन होता है।
थाईलैंड की रामकियेन भारतीय रामायण से प्रेरित होते हुए भी कई अनूठी घटनाओं और कथाओं को अपने भीतर समेटे हुए है। यह न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि थाईलैंड के नाट्य, नृत्य, और कला में इसका विशेष स्थान है। थाईलैंड की रामकियेन की प्रस्तुतियाँ वहाँ की संस्कृति का अभिन्न अंग हैं, और आज भी यह वहाँ की सामाजिक और धार्मिक धारा में गहराई से व्याप्त है।थाईलैंड की रामकथा की यह महाकाव्यकृति राम और सीता की अनूठी प्रेम कहानी, रावण के साथ युद्ध, हनुमान की चतुराई, और विभीषण के परामर्श के रूप में कई ऐसे तत्वों को समाहित करती है, जो इसे अद्वितीय बनाते हैं। इस प्रकार, रामकियेन थाईलैंड की संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो भारतीय रामायण से प्रेरणा लेकर वहाँ की विशिष्ट धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं को प्रदर्शित करता है।
संक्षेप में, रामाकियन थाईलैंड में रामायण की एक अनूठी प्रस्तुति है, जिसमें थाई संस्कृति, नैतिकता और धार्मिक विश्वासों का समावेश है। यह कथा थाई समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है और थाईलैंड की सांस्कृतिक धरोहर को समृद्ध करती है।रामकियेन, थाईलैंड की रामायणीय संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा है, जो थाई समाज और धार्मिक जीवन में गहरी छाप छोड़ चुका है। यह कथा न केवल थाई साहित्य की अमूल्य धरोहर है, बल्कि यह भारत और थाईलैंड के बीच सांस्कृतिक संबंधों का प्रमाण भी है।
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