डॉ० अर्जुन गुप्ता ‘गुंजन’, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश

विस्मित है ये प्रश्न अभी तक

(नवगीत – मात्राभार १६, १२)

विस्मित है ये प्रश्न अभी तक
किसने नींद चुराई?

मृग-मरीचिका सी है लिप्सा,
इसके पीछे भागूँ।
लोभ लालसा पूरी हो कब,
दिवस नित्य मैं जागूँ॥
भाग-दौड़ के जीवन में नित
इच्छा हैं सौदाई।
विस्मित है ये प्रश्न अभी तक
किसने नींद चुराई?

इच्छायें नित ठगिनी बन कर
मन को खूब नचातीं।
जीवन है यह बना तमाशा
पल-पल मोह रुलातीं॥
लोभ-मोह के मकड़जाल से
कैंसे निकलूँ भाई?
विस्मित है ये प्रश्न अभी तक
किसने नींद चुराई?

सदा ईश से विनती करता
अभिलाषा मर्दन हो।
लालच के पीछे नहीं भागूँ
नहीं नव्य नर्तन हो॥
लालायित लिप्सा को फिर अब
किसने जाम पिलाई?
विस्मित है ये प्रश्न अभी तक
किसने नींद चुराई?

घोर परिश्रम किया नित्य दिन,
श्रमकण खूब बहाया।
धन-दौलत कब पूरा होता
इसने नाच नचाया॥
जीवन की संध्या-बेला में,
बात समझ में आई।
विस्मित है ये प्रश्न अभी तक
किसने नींद चुराई?

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