प्रवासियों की कहानियाँ और व्यथाएँ : प्रवासियों का विश्व

विजय नगरकर, अहिल्यानगर, महाराष्ट्र
इस विशाल पृथ्वी के खंडित भूभागों पर अंकित मानव सभ्यता के पदचिह्न मानो उसकी सार्वकालिक भ्रमंती (घुमक्कड़ी) के निशान ही हैं। कहा जाता है कि आधुनिक मानव अफ़्रीका महाद्वीप में विकसित हुआ और कुछ लाख वर्ष पूर्व वहाँ से भटकते-भटकते दुनिया के कोने-कोने में पहुँच गया। आदिम काल से भोजन, बेहतर जलवायु और आश्रय की तलाश में निरंतर प्रवास करने वाले मानव समूह कृषि के आविष्कार से कुछ स्थिर अवश्य हुए, परन्तु मूल घुमक्कड़ प्रवृत्ति बदली नहीं। फिर कभी व्यापार के लिए तो कभी नई दुनिया देखने की चाह में मनुष्य का प्रवास जारी ही रहा। इस प्रवास के कारण हुआ सांस्कृतिक-भाषाई-सामाजिक-वैचारिक-कलात्मक आदान-प्रदान मानो इस प्रवास रूपी मंथन से निकला अमृत ही है। प्रवास से हुए परिणाम, उसके प्रवासियों पर और उनके मूल प्रदेशों पर पड़ने वाले प्रभावों का अत्यंत रोचक, शोधपूर्ण और विचारोत्तेजक विश्लेषण संजीवनी खेर की पुस्तक ‘स्थलांतरितांचे विश्व’ में पढ़ने को मिलता है। मैजेस्टिक पब्लिशिंग हाउस द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक के माध्यम से उत्तर और दक्षिण भारत में प्रवासित हुए मराठी लोगों से लेकर दुनियाभर में जाकर बसे पारसी और यहूदी समुदायों तक, प्रवासियों का एक अत्यंत अनूठा विश्व पाठकों के समक्ष खुलता है। ये लेख पहले ‘ललित’ नामक पत्रिका में एक लेखमाला के रूप में प्रकाशित हुए थे।
महाराष्ट्र के बाहर लगभग सौ वर्ष पूर्व प्रवासित हुए मराठी लोगों की बात करते हुए मध्य प्रदेश के इन्दौर (हाँ.. इन्दौर!), ग्वालियर, गुजरात के बड़ौदा और तमिलनाडु के तंजावुर जैसी ऐतिहासिक रियासतों की याद निश्चित रूप से आती है। इन्दौर के होळकर, ग्वालियर के शिंदे और तंजावुर के भोसले परिवारों ने कई पीढ़ियों तक परदेस में अपनी संस्कृति, भाषा, रीति-रिवाज और परंपराओं को सहेज कर रखा, इसीलिए आज भी इन शहरों पर मराठी छाप धुंधली नहीं हुई है। इन शहरों के मराठी लोगों और उनके द्वारा सहेजे गए मराठीपन का जायज़ा जिस प्रकार इस पुस्तक में पढ़ने को मिलता है, उसी प्रकार कोंकण से मुंबई रोजी-रोटी के लिए आए कोंकण और देश (महाराष्ट्र के अन्य भाग) के जरूरतमंद लोग हों या फिर बांध के कारण विस्थापित होकर मजबूरी में शहरों की ओर धकेले गए ग्रामीण, इन सबको आर्थिक कारणों से जबरन करने पड़े प्रवास के सामाजिक, पारिवारिक, प्रादेशिक प्रभावों को भी इस पुस्तक में दर्ज किया गया है।
प्रवास के पीछे अक्सर आर्थिक कारणों का दबाव बहुत बड़ा होता है। अपनी भूमि, गाँव, प्रदेश, देश में आर्थिक उन्नति संभव न होने के कारण प्रियजनों और परिवेश को पीछे छोड़कर मृगतृष्णा के पीछे भागने वाले हिरणों की तरह प्रवासियों के झुंड के झुंड जब शहरों से टकराते हैं, तब होने वाला सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्ष एक नई पीड़ा को जन्म देता है।
६०-७० के दशक से अमेरिका के समृद्ध, वैभवशाली जीवन और वहाँ की प्रगति के अवसरों के आकर्षण में पड़कर महाराष्ट्र से प्रवासियों का जो प्रवाह अमेरिका की ओर शुरू हुआ, वह आज भी जारी है। लेखिका पाठकों का ध्यान इस ओर आकर्षित करती हैं कि शुरुआत में पराये देश में, अपरिचित माहौल में गए और वहाँ के सांस्कृतिक-सामाजिक रीति-रिवाजों से अनभिज्ञ पीढ़ी ने वहाँ जमने के लिए जो संघर्ष किया, वह केवल आर्थिक स्तर पर ही नहीं था, बल्कि संस्कारों और परंपराओं के मामले में वह उतना ही तीव्र और तीक्ष्ण था।
संजीवनी खेर ने इतिहास काल में भारत आए अफ़्रीकी मूल के लोगों से लेकर आधुनिक काल में आर्थिक लाभ के लिए स्वेच्छा से स्वदेश छोड़ने वाली नई पीढ़ी तक, प्रवास के विभिन्न पहलुओं, उसके कारणों और परिणामों, उससे बदलते सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य, और उस सबके पीछे छिपे कभी न भरने वाले ज़ख़्म का असहज करने वाला चित्रण इस पुस्तक में किया है। प्रवासियों की वेदना व्यक्त करने वाली ‘द पेजेज़ ऑफ़ माय लाइफ़’ (पोपट हीरानंदानी), ‘कर्फ़्यूड नाइट’ (बशरत पीर), ‘झाड़ाझड़ती’ (विश्वास पाटील) जैसी साहित्यिक कृतियों और अफ़ग़ानिस्तान में गृहयुद्ध से झुलसी पीढ़ी का चित्रण करने वाली ‘द एक्ज़ाइल’ जैसी डॉक्यूमेंट्री फिल्म, पाकिस्तानी निर्देशक एहतिशाम की ‘ये हिन्दुस्तान वो पाकिस्तान’ जैसी विभाजन से उजड़ी महिला की करुण कथा कहने वाली फिल्म के संदर्भों से पाठकों को यह झलक मिलती है कि प्रवासियों के छिन्न-भिन्न हुए भावविश्व को साहित्य और सिनेमा के माध्यम से कैसे प्रभावी ढंग से दर्शाया गया है। संजीवनी खेर ने शोधपूर्ण और संवेदनशील ढंग से प्रवासियों के विश्व को अपने शब्दों में प्रस्तुत किया है। मैजेस्टिक पब्लिशिंग हाउस द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक पढ़ने के बाद यह निश्चित है कि अपने आस-पास के कई जाने-अनजाने प्रवासियों को देखने का हमारा नज़रिया अपने आप बदल जाता है।

स्थलांतरितांचे विश्व
लेखिका — संजीवनी खेर प्रकाशक — मैजेस्टिक पब्लिशिंग हाउस क़ीमत — रु.३००/-
~ मकरंद जोशी, ललित मासिक के संपादक, लेखक
(मूल मराठी लेख का हिंदी अनुवाद _ विजय नगरकर, अहिल्यानगर, महाराष्ट्र)
आरती लोकेश की ” स्याह धवल ” की समीक्षा हरहर झा की कलम से पढ़ी और वास्तव में उसे पढ़ने की उत्सुकता जागरूक हुई. इतने सारे विषयों को किसी पुस्तक में समेटना बड़ा साहसिक कार्य है.
मैं हरहर झा का आभारी हूं कि उन्होंने आरती लोकेश की प्रतिभा को पहिचान कर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया. कल विश्व पुस्तक दिवस पर यह समीक्षा पढ़ाना आनंद दायक रहा.