सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: उर्दू और हिंदी एक भाषा, भाषा को धर्म से न जोड़ा जाए

विजय नगरकर, अहिल्यानगर, महाराष्ट्र
- निर्णय संख्या: 2025 LiveLaw (SC) 427
- मामला: MRS. VARSHATAI W/o. SH. SANJAY BAGADE बनाम THE STATE OF MAHARASHTRA THROUGH ITS SECRETARY, MINISTRY OF LAW AND JUDICIARY, MANTRALAYA, MUMBAI AND ORS. ETC.
- डायरी संख्या: 24812/2024
- तारीख: 15 अप्रैल 2025
वादी: श्रीमती वर्षताई पत्नी श्री संजय बागड़े
प्रतिवादी: महाराष्ट्र राज्य (कानून और न्याय मंत्रालय, मंत्रालय, मुंबई के सचिव के माध्यम से) और अन्य।
यह मामला महाराष्ट्र के अकोला जिले में पाटुर नगरपालिका के साइनबोर्ड पर उर्दू भाषा के उपयोग को चुनौती देने से संबंधित था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया, यह कहते हुए कि भाषा को धर्म से नहीं जोड़ा जाना चाहिए और यह विभाजन का कारण नहीं बननी चाहिए।
(https://www.sci.gov.in/hi/)
भारत की सांस्कृतिक और भाषाई विविधता को संरक्षित करने और इसे एकता के सूत्र में पिरोने की दिशा में सुप्रीम कोर्ट ने 16 अप्रैल 2025 को एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया। इस फैसले में कोर्ट ने न केवल उर्दू और हिंदी को एक ही भाषा का हिस्सा माना, बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि भाषा को धर्म से जोड़कर इसे विभाजन का कारण नहीं बनाना चाहिए। यह फैसला महाराष्ट्र के एक नगरपालिका में उर्दू भाषा के उपयोग को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज करते हुए आया, जिसमें कोर्ट ने भाषाई विविधता की सराहना की और इसे समाज को जोड़ने का माध्यम बताया।
मामले का विवरण
मामला महाराष्ट्र के अकोला जिले में पाटुर नगरपालिका के नए भवन के साइनबोर्ड पर उर्दू भाषा के उपयोग से संबंधित था। याचिकाकर्ता ने इस उपयोग को महाराष्ट्र स्थानीय प्राधिकरण (आधिकारिक भाषा) अधिनियम, 2022 के उल्लंघन के रूप में चुनौती दी थी। हालांकि, बॉम्बे हाईकोर्ट ने पहले ही इस मामले में फैसला सुनाया था कि मराठी के साथ-साथ उर्दू का उपयोग करना इस अधिनियम का उल्लंघन नहीं करता। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस फैसले को सही ठहराते हुए याचिका को खारिज कर दिया।
जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि नगरपालिका का उद्देश्य स्थानीय समुदाय की सेवा करना और उनकी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करना है। यदि स्थानीय लोग उर्दू से परिचित हैं, तो मराठी के साथ-साथ उर्दू का उपयोग साइनबोर्ड पर करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। कोर्ट ने जोर देकर कहा कि भाषा विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम है, जो विभिन्न विचारों और विश्वासों वाले लोगों को एक साथ लाती है। इसे विभाजन का कारण नहीं बनना चाहिए।
उर्दू और हिंदी: एक भाषा दो लिपियाँ
जस्टिस धूलिया द्वारा लिखित इस फैसले में भाषा और संस्कृति के बीच गहरे संबंध को रेखांकित किया गया। कोर्ट ने कहा कि उर्दू और हिंदी को अलग-अलग भाषाएँ मानना एक राजनीतिक सुविधा हो सकती है, लेकिन यह भाषाई वास्तविकता नहीं है। विद्वानों जैसे ज्ञान चंद जैन, अमृत राय, राम विलास शर्मा और अब्दुल हक के हवाले से कोर्ट ने बताया कि उर्दू और हिंदी में व्याकरण, वाक्यविन्यास और ध्वन्यात्मकता में व्यापक समानताएँ हैं। अंतर केवल लिपि का है—उर्दू नस्तालीक में और हिंदी देवनागरी में लिखी जाती है। लेकिन लिपि भाषा को परिभाषित नहीं करती।
कोर्ट ने उर्दू को ‘हिंदुस्तानी तहज़ीब’ का बेहतरीन नमूना बताया, जो गंगा-जमुनी तहज़ीब का प्रतीक है। यह भारत के उत्तरी और मध्य मैदानी क्षेत्रों की समन्वित सांस्कृतिक पहचान को दर्शाती है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि उर्दू भारत की छठी सबसे अधिक बोली जाने वाली अनुसूचित भाषा है और इसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है।
भाषा और धर्म का मिथक
सुप्रीम कोर्ट ने उर्दू के प्रति मौजूद पूर्वाग्रहों को संबोधित करते हुए कहा कि भाषा को धर्म से जोड़ना गलत है। कोर्ट ने स्पष्ट किया, “भाषा धर्म नहीं है। भाषा धर्म का प्रतिनिधित्व भी नहीं करती। भाषा एक समुदाय, एक क्षेत्र, लोगों की होती है, न कि किसी धर्म की।” यह टिप्पणी उस सामान्य धारणा को तोड़ने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जिसमें उर्दू को केवल मुस्लिम समुदाय की भाषा और हिंदी को हिंदुओं की भाषा के रूप में देखा जाता है।
कोर्ट ने इस विभाजन की जड़ें औपनिवेशिक काल में तलाशीं, जब औपनिवेशिक शक्तियों ने भाषा को धर्म के आधार पर विभाजित करने का प्रयास किया। हिंदी को अधिक संस्कृतनिष्ठ और उर्दू को अधिक फारसीकृत करने की प्रक्रिया ने दोनों भाषाओं के बीच कृत्रिम दूरी पैदा की। कोर्ट ने इसे “वास्तविकता से दुखद विचलन” और “विविधता में एकता” के सिद्धांत के खिलाफ बताया।
संविधान सभा की बहस और हिंदुस्तानी का सपना
फैसले में संविधान सभा की उन बहसों का भी ज़िक्र किया गया, जिनमें राष्ट्रीय भाषा के सवाल पर गहन विचार-विमर्श हुआ था। जस्टिस धूलिया ने इतिहासकार ग्रैनविल ऑस्टिन का हवाला देते हुए बताया कि संविधान सभा में राष्ट्रीय भाषा का मुद्दा इतना जटिल था कि यह सभा के लिए टूटने का कारण बन सकता था। प्रारंभ में, कई नेताओं और संविधान सभा के सदस्यों को उम्मीद थी कि ‘हिंदुस्तानी’—जो हिंदी और उर्दू का उदार मिश्रण थी—राष्ट्रीय भाषा बन सकती है।
हालांकि, भारत के विभाजन ने इस सपने को गहरा आघात पहुँचाया। विभाजन के बाद, हिंदी को अधिक संस्कृतनिष्ठ और उर्दू को अधिक फारसीकृत करने की प्रवृत्ति बढ़ी। अंततः, संविधान सभा ने हिंदी को ‘राजभाषा’ के रूप में स्वीकार किया, जिसमें अंग्रेजी को 15 वर्षों तक आधिकारिक उद्देश्यों के लिए उपयोग करने की अनुमति दी गई। लेकिन कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि संविधान निर्माताओं का इरादा कभी भी हिंदुस्तानी या उर्दू को समाप्त करना नहीं था। जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में अपने भाषण में इस बात पर जोर दिया था कि हिंदी को उर्दू के शब्दों से समृद्ध किया जाना चाहिए।
उर्दू का संवैधानिक और कानूनी दर्जा
सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 345 का हवाला देते हुए कहा कि किसी राज्य द्वारा एक आधिकारिक भाषा (जैसे हिंदी) को अपनाने से अन्य भाषाओं को आधिकारिक भाषा के रूप में नामित करने की शक्ति सीमित नहीं होती। इस प्रावधान के तहत, कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने उर्दू को दूसरी आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाया है। इनमें आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर शामिल हैं।
कोर्ट ने उत्तर प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2014) के मामले का भी उल्लेख किया, जिसमें उत्तर प्रदेश आधिकारिक भाषा अधिनियम की संवैधानिकता को बरकरार रखा गया था। इस अधिनियम ने उर्दू को हिंदी के बाद उत्तर प्रदेश की दूसरी आधिकारिक भाषा घोषित किया था।
निष्कर्ष: भाषा एकता का प्रतीक
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल उर्दू और हिंदी की एकता को रेखांकित करता है, बल्कि भारत की भाषाई और सांस्कृतिक विविधता को संरक्षित करने की आवश्यकता पर भी बल देता है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भाषा संस्कृति का मापदंड है और इसका प्राथमिक उद्देश्य संचार है। इसे धर्म या राजनीति के आधार पर विभाजित करने की कोशिश न केवल गलत है, बल्कि यह देश की एकता और अखंडता के लिए भी हानिकारक है।
यह फैसला भारत के उन लोगों के लिए एक संदेश है जो भाषा को विभाजन का हथियार बनाना चाहते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर यह साबित किया है कि भारत की ताकत उसकी विविधता में निहित है, और भाषा इस विविधता को जोड़ने का माध्यम होनी चाहिए, न कि तोड़ने का।
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संदर्भ
- निर्णय संख्या: 2025 LiveLaw (SC) 427
- मामला: MRS. VARSHATAI W/o. SH. SANJAY BAGADE बनाम THE STATE OF MAHARASHTRA THROUGH ITS SECRETARY, MINISTRY OF LAW AND JUDICIARY, MANTRALAYA, MUMBAI AND ORS. ETC.
- डायरी संख्या: 24812/2024
- तारीख: 15 अप्रैल 2025