भारतीय संस्कृति की पैरोकार, जिंदादिल, सुलझी हुई बड़ी बहन जय वर्मा

डॉ. संदीप अवस्थी, राजस्थान, भारत

 “डॉक्टर साहब ने ही मेरी रचनाधर्मिता को नए आयाम दिए। वह (डॉक्टर महिपाल जी, आपके पति) मेरी रचनाओं के पहले श्रोता होते थे। उन्होंने ही कहा, “तुम अच्छा लिखती हो। इसे टाइप कराके आगे पत्रिकाओं में भेजो।” लंदन में उन दिनों, आज से बीस वर्ष पूर्व, कोई ढंग की टाइपिंग करने वाला नही था। तो क्या करती? बस घर पर ही कॉपी काली करती रही। फिर एक दिन डॉक्टर साहब, (वह काफी व्यस्त और बेहद लोकप्रिय, जिंदादिल डॉक्टर रहे लंदन और उसके आसपास के) ने अपने हॉस्पिटल से आने के बाद सारी बात समझी और …… खुद टाइप करने का फैसला किया। यह बताते हुए उत्साह भरा चेहरा और चमकती आंखे बता रही थी कि वह उन दिनों को आज भी जी रही हैं। “उन्होंने हिंदी टाइपिंग सीखी और मेरी लिखी कविताओं, कहानियों, लघु कथा को खुद टाइप किया।” कहते हुए उनकी आँखें नम हो उठी। मैं भी अपनेपन और प्यार की गहराई को महसूस कर रहा था। अवसर था भिलाई से कुछ दूरी पर अंडा कस्बे में स्थित शेलदेवी महिला महाविद्यालय में आयोजित दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के प्रथम दिन के समापन के बाद की उनकी मेरी बातचीत का। आसपास प्रोफेसर, विभाग प्रमुख रजनी देवी, सुचित्रा, डॉ सुधीर शर्मा, विख्यात संपादक और विदुषी कुलपति प्रोफेसर अरुणा पालटा, दुर्ग विश्विद्यालय और अनेक विद्यार्थी बैठे थे। जय जी की यह विनम्रता और भावना थी कि सुदूर कोने में स्थित इस सेमिनार में वह मेरे बुलाने पर सहर्ष आने को तैयार हुई। कई लोग रहने, रुकने और हवाई अड्डे से दूरी आदि पूछते हैं और ग्रामीण इलाका सुनते ही बहाना बना देते हैं। जय जी बिना एक भी सवाल किए आई कि मैं भारत के ग्रामीण इलाकों में शिक्षा का स्तर और युवाओं से संवाद करना चाहती हूं।

इसी भावना से दिन के द्वितीय सत्र में वह मुख्य अतिथि थी और अध्यक्षीय भार मुझ पर था। ‘प्रवासी लेखक और संस्कृति’ पर बोलते हुए उन्होंने इतना अद्भुत वक्तव्य दिया कि सभागार में उपस्थित हर श्रोता, प्राध्यापक और अतिथि बंधा सा बैठा रहा। एक भ्रम कहे या सोच होती है हमारे मन में, जो बेसिर पैर की फिल्में बनाती हैं कि लंदन या विदेश है तो वहां फूहड़ता और जीवन मूल्य होते ही नहीं होंगे, उस सोच को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया जय वर्मा के वक्तव्य ने। आपने बताया और कायदे से अनेक उद्धरण, श्लोक कहकर सिद्ध किया कि भारतीय परिवार और व्यक्ति विदेशों में भी अपनी संस्कृति, मूल्यों और स्वाभिमान के साथ रहता है। उन्होंने अपनी चर्चित कृति सात कदम, जिसका अंग्रेजी अनुवाद सेवन स्टेप नाम से हुआ है, के कुछ अंशों का पाठ भी किया। जिसे श्रोताओं ने हर्षित होकर सराहा, तालियों की गर्जना देर तक हॉल में रही।

इसके बाद मेरे अध्यक्षीय उद्बोधन की बारी आई तो मैंने सर्वप्रथम यह बात रेखांकित की, “एक भारतीय, वह कहीं भी रहे, अपने देश का राजदूत होता है। उसे, उसकी बोली, रीति बानी देख ही विदेशी उसके देश और उसके बारे में धारणा बनाते हैं। हमें खुशी है कि जय वर्मा जी और डॉक्टर साहब ने सुदूर सात समंदर पार नॉर्थ हैमटनशायर लंदन में एक छोटा भारत ही बना दिया। वहीं जीवन मूल्य और भारतीय परम्परा का पालन। ऐसा बहुत कम भारतीय कर पाते हैं।”

जय जी और हम अगले दिन भी सत्रों में थे तो शाम अच्छा एक सुसभ्य और अच्छे होटल में विद्वानों के ठहरने का इंतजाम था। जय जी थोड़ा जल्दी चलीं गईं। क्योंकि वह सीधी शिक्षक प्रशिक्षण विश्विद्यालय, कोलकाता में दो दिनी सेमिनार से आई थीं। वहां भी  साहित्यकार विदुषी कुलपति प्रोफेसर सोमा बंदोपाध्याय ने इन्हें हमारे द्वारा बुलवाया था। उनका फोन आया था तब कि विश्विद्यालय के युवाओं और प्राध्यापकों के मध्य जय जी का सरल स्वभाव और कथा साहित्य पर व्याख्यान अच्छा लगा।

यह कार्यक्रम हुए फिर अगले दिन सुबह उनसे नाश्ते पर लंबी बात हुई। जिसमें समकालीन साहित्य जगत और उसकी प्रवृत्तियों पर हमारी बात हुई। मैंने जय जी को सुझाव दिया कि प्रवासी भारतीय अपने देश और उसके हिंदी साहित्य, दर्शन जगत के लिए कुछ करें। वार्षिक पुरस्कारों की रूपरेखा और विचार मैंने बताया। उन्होंने इसमें भरपूर रुचि ली और डॉक्टर साहब तथा कुछ हिंदी के दिवंगत साहित्यकारों के नाम पर पुरस्कारों की बात हुई। आगामी वर्ष से कुछ करते पर उससे पूर्व ही वह चली गईं।

उधर अगले दिन शैलदेवी महाविद्यालय के संस्थापक निदेशक गोविंद जी के साथ जय जी, अलका सरावगी, कलि कथा वाया बाईपास की लेखिका, और मैं मंच पर थे। अलका सरावगी ने अपने वक्तव्य में हिंदी और प्रवासी कथा जगत के साम्य और विषमता को रेखांकित किया। साथ ही जय वर्मा की पुस्तक और काव्य का जिक्र किया। मेरे वक्तव्य में मैंने कहा भी कि यह विचारणीय है कि प्रवासी जगत के लेखक अपनी जड़ों और जमीन को हिंदी साहित्य जगत में अभी तक स्थापित नहीं कर पाए। वजह है गांभीर्य, अध्ययन और चिंतन का अभाव। सबसे बढ़कर यह सोच की सब कुछ नौकरी, बिजनेस, घर गाड़ी, परिवार करने के बाद फिर लेखन में भी हाथ आजमाना और कुछ भी लिख देना। फिर अपेक्षा करना की आलोचक उसे सराहें भी? यह संभव नहीं। जय जी की यात्रा दो दशक की है उन्होंने एक एक कहानी को मांझा, सुधारा और अपनी खास शैली विकसित की। वह उस महीन रेखा पर काम की है जिसमें स्त्री रूढ़ियों का विरोध करती हुई खुली और ताजी हवा में सांस लेती है। वहीं वह परिवार और पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती हैं।

भिलाई के ग्रामीण क्षेत्र में यह सर्व सुविधा युक्त बेहतरीन महाविद्यालय है उसकी आदिवासी और सामान्य परिवारों की छात्राओं से मैंने कहा कि आप जय वर्मा जी से बात करें और अपनी जिज्ञासाएं पूछें। ग्रामीण छात्राओं ने पहली बार इतने नजदीक और प्रवासी साहित्यकार को देखा और संवाद किया। मैंने महसूस किया इस संवाद में जय जी की प्रभावशाली हिंदी और सहज व्यवहार से वह छात्राएं बहुत प्रभावित हुई। अच्छी  बात यह भी हुई कि पूरब और पश्चिम का मिलना हुआ और यह स्पष्ट दिख रहा था कि भारतीय संस्कार और विचारों की अमित, अक्षुण्ण धारा है जो पूरे विश्व में प्रवाहवान है। उनके सवाल और भोले भाली चेहरे जय जी के हृदय में अपनी छाप छोड़ गए। वह मुझसे और गोविंद जी से बोली भी कि यहां आकर हम प्रवासी लोगों को यह अहसास हुआ कि भारत में हर जगह, ग्राम, कस्बे में शिक्षा और तकनीक को महत्व दिया जा रहा है। आदिवासी, ग्रामीण बेल्ट में भी छात्राएं खूब पढ़ रही हैं। जबकि कुछ लोग बाहर ऐसी गलत छवि भारत की बनाते हैं मानो यहां अशिक्षा और अंधविश्वास ही है जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है।

यह सच्चाई भी है कि भारत में पिछले एक दशक से भी अधिक से वास्तव में सुदूर ग्रामों से लेकर शहर तक में हर वर्ग के लिए शिक्षा,तकनीक और सूचना के साधन उपलब्ध हैं। लड़कियों के लिए पूरी उच्च शिक्षा तक पढ़ाई निशुल्क है। मुझे,प्रोफेसर सुधीर शर्मा,डॉ रजनी रॉय,आयोजक और निदेशक गोविंद जी को भारी संतोष और गर्व की अनुभूति हुई।  भारत की सही और सकारात्मक छवि इस सुदूर आदिवासी बाहुल्य के “अंडा” कस्बे जिला भिलाई में आकर उभरी ही नहीं बल्कि जय जी के माध्यम से पूरे विश्व में गई।जय जी ने सभी को आत्मीयता से लंदन आने और अपने यहां रुकने का आमंत्रण दिया। 

मैं सहज योगी हूं। परम पूजनीय माताजी श्री निर्मलादेवी जी मेरी गुरु मां हैं। जय जी से यह भी रिश्ता जुड़ा गुरु बहन का की वह भी परम पूजनीय माता निर्मला देवी से मिलीं। उन्होंने जब देखा, मेरे द्वारा भेजे श्री माताजी के शॉर्ट वीडियो तो उन्होंने मुझे खुद ही बताया कि वह उनके वेब्रली हिल्स, और अन्य जगह हुए लंदन के करीब दो दशक पूर्व के कार्यक्रम में डॉ महिपाल जी के साथ शामिल हुई थी। वह बहुत सम्मान और मानती थी सहज योग संस्थापिका श्री माताजी निर्मलादेवी को। जिनके अनुयाई पूरे विश्व में करोड़ों की संख्या में हैं। भारत में तो हर शहर, गांवों, कस्बे में निशुल्क ध्यान केंद्र हैं। ऐसे ही लंदन, दुबई, अमेरिका, जापान, कनाडा, चीन, इटली आदि सभी देशों में ध्यान केंद्र है। खास बात है सभी जगह ध्यान की एक ही पद्धति, स्वयं अपने को जगाना और चक्रों, नाड़ियों को स्वयं शुद्ध करना। इस पर आगे लिखूंगा। जय जी ने जब मुझे कुछ वर्षों पूर्व बताया और यह भी कहा कि श्री माताजी निर्मलादेवी उनके लंदन स्थित घर भी आईं और उनको श्री चरणों में कुछ समय बिताने का अवसर मिला, तो मुझे बेहद आत्मीय अनुभूति हुई। तभी जब भी जय जी भारत आती उनके महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों में कार्यक्रम रखवाता। यह चार कार्यक्रम लाइन से थे। गाजियाबाद, अपने भारत के घर,जाने के बाद वह वहां से मेरठ और फिर बीएचयू वाराणसी भी गई थीं।

      अगले दिन रवानगी थी उससे पूर्व ऊर्जावान और निरंतर शिक्षा,साहित्य और सहकारी वैभव प्रकाशन में सक्रिय सुधीर शर्मा ने सूचित किया कि कल जय जी की फ्लाइट रायपुर से दिन में चार बजे दिल्ली के लिए है तो उससे पूर्व मेट्स विश्विद्यालय, रायपुर में भी दो दिवसीय सेमिनार का समापन है वहां भी आप दोनो मुख्य अतिथि के रूप में सम्मिलित होइए।

जय जी से पूछा तो उन्होंने थकान के बाद भी स्वीकृति दी।

अगले दिन, तीसरा दिन, मेट्स विश्विद्यालय की हिंदी और पत्रकारिता विभाग की अध्यक्ष युवा कवयित्री डॉ. रेशमा अंसारी ने हमारी अगवानी की। हिंदी साहित्य में वृद्ध विमर्श पर जय वर्मा ने वाकई बहुत अच्छी बात रखीं। नई बात यह कि थी इस विश्वविद्यालय ने युवाओं के साथ उनके दादा दादी, नाना नानी, मम्मी पापा को भी बुलाया था। एक तरह से दो पीढ़ियां साथ थी। और खास हम दोनों का ही इंतजार हो रहा था भिलाई से सीधे सामान सहित यहां आएं करीब एक घंटे का रास्ता है। मुझे यह यात्रा अभी तक याद है क्योंकि रास्ते में हर प्राचीन मंदिर और स्थान को बहुत सम्मानजनक ढंग से वह देखती और ड्राइवर से उसके बारे में जानकारी लेती चलती। मैंने उन्हें पिछली ऑनलाइन वेबिनार में कहा था कि आप अपने संस्मरण की पुस्तक पर कार्य करें। उसकी सिनॉप्सिस भी मैंने उन्हें समझाई थी। वह दो लिख चुकीं थी। एक प्रकाशित भी हुआ आगे। तो उस दिन वृद्ध विमर्श और अकेलेपन पर उन्होंने जिस तरह बात रखी वह दिल को छू गया। कार्यक्रम अचानक ही बना था तो कोई तैयारी नहीं थी परंतु अनुभवों से समृद्ध एक पारखी लेखिका इस विषय पर इतना खूब बोलीं कि सभी की आँखें भर आईं। मुख्य बात यह रही कि दोनों पीढ़ियों को साथ रहना और एक दूसरे को सहयोग करना है। उन्होंने अपने बेटियों और दामाद के बारे में जिक्र किया कि वह लंदन के पास के उपनगरों में रहती हैं पर उनसे मिलने हर सप्ताह पूरा परिवार आता है। कभी वह चली जाती हैं। यहां भी लोग गदगद और आश्चर्यचकित थे कि सुदूर इंग्लैंड से आई लेखिका इतनी अच्छी हिंदी बोल रही और परिवारिक मूल्यों की बात हमें समझा रहीं। उन सभी पर गहरा असर हुआ। मैंने भी कहा कि आजकल माता पिता बहु बेटे के प्रति कड़वाहट रखते हैं। कई तो अपने नाती पोतों (ग्रैंड चिल्ड्रन) को भी संभालने से इनकार कर देते हैं कि तुम ही पालो। यह प्रवृत्ति बाजारवाद की देन है। जो चाहता है परिवार संयुक्त से न्यूक्लियर और फिर एक व्यक्ति का हो जाए। जिससे वह अपनी हर चीज टीवी, मोबाइल, गाड़ी, एसी सब एक ही घर के विभिन्न हिस्सों में अलग अलग बेच सके। कोई सही राह दिखाने और समझाने वाला न हो और अनुभवहीन युवा अकेले ही बाजारवाद की चालाकियों का शिकार बनता रहे। अलका सरावगी भी वहीं थीं मंच पर। बोली मेरा सत्र हो गया था परंतु आप दोनो को सुनने के इंतजार में हूं।

उम्मीद से अधिक हॉल में बैठे लोगों का प्रतिसाद हमें मिला।

कार्यक्रम के बाद जय वर्मा जी और हमारे साथ फोटो खिंचवाने की होड लग गई। सच कहूं तो उस दिन इतने समूह में और अलग अलग फोटो सेशन हुए जितने कभी नहीं हुए। वह गदगद थी। डॉ. रेशमा अंसारी से मैंने खास कहा कि जय वर्मा के ऊपर शोध होना चाहिए। को गाइड मैं बन जाऊंगा और सहयोग कर दूंगा। इसके बाद लंच के बाद हम सभी नीचे आए और जय जी सबसे मिलती हुई, मुझे धन्यवाद देती हुई, रायपुर एयरपोर्ट की तरफ निकली। सुधीर जी ने उनसे और मुझे वैभव प्रकाशन का दफ्तर और पुस्तकालय देखने का आग्रह किया। पर समय कम था वह चली गईं। मैं सुधीर जी के साथ वैभव प्रकाशन पहुंचा और सैकड़ों पुस्तकों के सुरुचिपूर्ण प्रकाशन और व्यवस्था को देख अचंभित हुआ। वह न्यूनतम कीमत पर पुस्तकों के प्रकाशन से नए लेखकों और शोधार्थियों की मदद करते हैं।

एक यादगार यात्रा रही यह जिसमें छत्तीसगढ़ मित्र भी बराबर सहयोगी थी।

वह वास्तव में भारत की सांस्कृतिक राजदूत थीं। लंदन में भारतीय उच्चायोग में गणतंत्र दिवस आदि अवसरों पर वह कई कवि सम्मेलनों की मेजबानी करती रहीं थी। अगले किसी कार्यक्रम में उन्होंने मुझे भी आने का आमंत्रण दिया था। उसके बाद अभी कुछ माह पूर्व उनकी  नई पुस्तक, लेखों का संकलन आई थी उसके लोकार्पण पर मुझे भी आमंत्रित किया था दिल्ली पर जाना नहीं हो पाया।

वह ऐसे अचानक चली जाएंगी ऐसा सोचा न था। और अब उनकी स्मृतियां ही शेष हैं। उनकी मधुर वाणी, मीठा स्वभाव और आंखों में अपनेपन का भाव मुझे हमेशा याद रहेगा। वह जहां रहे ईश्वर, श्री आदिशक्ति उन्हें सदैव प्रसन्न और अपने श्री चरणों में रखें। उनके परिवार को, बेटियों को यह अपार दुख सहन करने की क्षमता दे। उम्मीद करता हूं उनकी ऊर्जावान और सुसंकृत बेटियां उनकी साहित्यिक विरासत को आगे बढ़ाएंगी और उनकी स्मृति को अमर रखेंगी। मेरा सहयोग सदैव रहेगा।

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(साभार- वातायन के वॉल से)

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