जापानी विद्यालयों से जीवन मूल्यों की सीख

– डॉ अर्चना पांडेय, जापान

वर्ष 2013 में टोक्यो के एक अंतरराष्ट्रीय विद्यालय में हिंदी सेकेंड लैंग्वेज शिक्षिका के रूप में मेरी नई शुरुआत हुई। अन्य सहकर्मियों के साथ औपचारिक पाठ्यक्रम निर्माण सत्रों और अनौपचारिक चर्चाओं के माध्यम से मुझे जापानी जीवन-दर्शन, शिक्षा-पद्धति और आदतों को निकट से जानने का अवसर मिला। जिज्ञासा के बढ़ने के साथ-साथ अवलोकन की प्रवृत्ति भी प्रबल होती गई। सौभाग्य से मेरा निवास स्थान एक जापानी विद्यालय के समीप है, जिससे मुझे प्रतिदिन उनके शैक्षिक वातावरण और बच्चों की दिनचर्या का सजीव अनुभव प्राप्त होता रहता है। मैंने आते-जाते बच्चों के व्यवहार और गतिविधियों का अवलोकन किया, जापानी मित्रों से संवाद कर उनकी दृष्टि को समझने का प्रयास किया और पुस्तकों व लेखों के माध्यम से कुछ जानकारी भी अर्जित की। इस संपूर्ण प्रक्रिया ने एक ऐसा समृद्ध अनुभव प्रदान किया जो केवल सैद्धांतिक ज्ञान तक सीमित नहीं रहा, बल्कि जीवंत अनुभवों, आत्मीय संवादों और गहन आत्मनिरीक्षण का सुंदर संगम बन गया।

हमारे स्कूल में जापानी और भारतीय, साथ ही कई देशों के छात्र-छात्राएँ अध्ययन करते हैं। संस्कारों, व्यवहारों और दृष्टिकोणों में उनमें भिन्नता होती है जो कई बार चर्चा का विषय बन जाती है। जापानी अध्यापिकाएँ जब किसी भारतीय छात्र की किसी विशिष्ट प्रतिक्रिया पर मुझसे यह पूछती हैं कि “क्या भारतीय विद्यालयों में बच्चों को घर का कार्य नहीं सिखाया जाता?” तो मुझे यह सोचने पर विवश होना पड़ता है कि व्यवहार के पीछे संस्कृति और शिक्षा की भूमिका कितनी गहरी है।

इसी प्रकार, जब मैं जापानी विद्यालयों की परंपराओं और दिनचर्या के बारे में जापानी अध्यापकों से जानकारी लेती हूँ, तो यह अनुभव मुझे एक अलग ही प्रकार की शिक्षण-दृष्टि प्रदान करता है। कुछ समय पहले की बात है कक्षा में कुछ भारतीय विद्यार्थियों ने अनुशासन-भंग किया और कक्षा अध्यापक ने उन्हें दंड स्वरूप एक सप्ताह के लिए विद्यालय की सफ़ाई का काम दे दिया। अगले दिन कक्षाध्यापक को उन विद्यार्थियों के माता-पिता के द्वारा भेजा हुआ बड़ा-सा ईमेल मिला, जिसमें इस पर आपत्ति जताई गई थी।

जापानी स्कूलों की सबसे विशिष्ट बात यह है कि वहाँ सफाई कर्मचारी नहीं होते। बच्चों से लेकर शिक्षकों तक, सभी मिलकर स्कूल की साफ-सफाई करते हैं। इस परंपरा को जापानी भाषा में ‘ओसोजी’ कहा जाता है। दिन में एक निर्धारित समय पर सभी विद्यार्थी अपनी कक्षा, गलियारे, बाथरूम और मैदान तक की सफाई करते हैं। कोई बच्चा झाड़ू लगाता है, कोई डेस्क साफ करता है, तो कोई शौचालय धोता है। इससे बच्चों के मन में यह बात बैठ जाती है कि कोई भी कार्य छोटा या निम्न नहीं होता और सार्वजनिक स्थानों की देखभाल सभी की जिम्मेदारी है। यह स्वच्छता का कार्य बच्चों के आत्मसम्मान को ठेस नहीं पहुँचाता, बल्कि उनमें गर्व की भावना जगाता है, क्योंकि वे स्वयं को अपने विद्यालय का अभिन्न अंग मानते हैं और उसकी देखरेख को अपना दायित्व समझते हैं।

जापानी स्कूलों में दोपहर के भोजन का समय भी शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण भाग होता है और  बच्चों के लिए बहुत कुछ नया सीखने का मौका होता है। ‘क्यूशोकू’ यानी दोपहर का भोजन, जो केवल भूख मिटाने का माध्यम नहीं, बल्कि एक महत्त्वपूर्ण शैक्षणिक अनुभव होता है। कक्षा की तैयारी से लेकर, जहाँ आमतौर पर कोई कैफेटेरिया नहीं होता, दिन के मेनू की घोषणा करने, खाना लाने, सभी सहपाठियों को परोसने, खाली बर्तनों को रसोई में वापस ले जाने और अंततः कक्षा की सफ़ाई करने तक, हर कार्य छात्र स्वयं करते हैं। इसमें शिक्षकों की भूमिका केवल मार्गदर्शक की होती है।

 दोपहर के भोजन से ठीक पहले या शुरुआत में, कक्षा में नियुक्त छात्र उस दिन के मेनू का परिचय देता है। वह केवल व्यंजन के नाम ही नहीं बताता, बल्कि उनके प्रमुख तत्वों के स्वास्थ्यवर्धक गुणों की भी जानकारी देता है। कई बार यह भी बताया जाता है कि भोजन में प्रयुक्त सामग्री कहाँ से आई है। जापान में स्थानीय उत्पादन को बहुत महत्त्व दिया जाता है और विभिन्न क्षेत्र अपनी कृषि उपज के लिए प्रसिद्ध होते हैं। यह मूल्य जापानी बच्चों को कम उम्र से ही सिखाया जाता है, ताकि वे अपने भोजन और उसके स्रोत का आदर करना सीखें।

 भोजन परोसने की प्रक्रिया भी नियुक्त छात्रों द्वारा ही पूरी की जाती है। जिन छात्रों की उस दिन की ड्यूटी होती है, उनमें से ही एक-दो छात्र थाली और चॉपस्टिक्स वितरित करते हैं और दूसरे अपने सहपाठियों की थालियों में भोजन परोसते हैं। कुछ विद्यालयों में भोजन परोसने की व्यवस्था किसी छोटे भोजन-कक्ष जैसी लगती है – छात्र थाली लेकर पंक्ति में आते हैं और फिर भोजन लेकर अपनी मेज़ पर वापस जाते हैं। कुछ विद्यालयों में यह विधि थोड़ी भिन्न होती है- वहाँ छात्र एक बड़ी परोसने की ट्रे लेकर प्रत्येक डेस्क तक जाते हैं और सभी की थाली में भोजन परोसते हैं। यहाँ यह बात भी उल्लेखनीय है कि अक्सर जिन छात्रों की ड्यूटी नहीं होती, वे भी स्वेच्छा से सहायता करने लगते हैं ताकि कार्य जल्दी पूरा हो सके – क्योंकि जब तक सभी को भोजन परोस नहीं दिया जाता, कोई भी बच्चा खाना शुरू नहीं करता।

  भोजन शुरू करने से पहले सभी बच्चे “इतादाकिमासु” कहते हैं, जिसका अर्थ होता है- “मैं इस भोजन को सम्मानपूर्वक स्वीकार करता हूँ।” भोजन समाप्ति के बाद वे “गोचिसोसामादेशिता” बोलते हैं, जिसका अर्थ है – “मैं भोजन के लिए आभारी हूँ।”  यह अभ्यास बच्चों में आभार, अनुशासन और संयम का भाव विकसित करता है। यह अनुभव बच्चों को स्वच्छता, संतुलित आहार, भोजन के प्रति कृतज्ञता और ‘मोत्तेनाई’ (बर्बादी से बचाव) जैसे जीवन-मूल्यों से परिचित कराता है। बहुत कम उम्र से ही बच्चे न केवल अपने स्कूल की देखभाल करना सीखते हैं, बल्कि भोजन से जुड़ी अनेक ज़िम्मेदारियाँ भी स्वयं निभाते हैं। यह प्रणाली न केवल भोजन शिष्टाचार और पोषण से जुड़ी अच्छी आदतें विकसित करती है, बल्कि सहयोग, स्वावलंबन और सामूहिक उत्तरदायित्व जैसे गुणों का भी विकास करती है। यहाँ हर बच्चा जानता है कि उसका योगदान महत्त्वपूर्ण है—चाहे वह भोजन परोसना हो या कक्षा की सफ़ाई करना। यही भाव शिक्षा को जीवन से जोड़ता है।

  जापान में बच्चों के समग्र विकास के लिए शैक्षणिक गतिविधियों के साथ-साथ गैर-शैक्षणिक गतिविधियों को भी भरपूर महत्त्व दिया जाता है। प्रत्येक छात्र को कम से कम एक क्लब गतिविधि में भाग लेना होता है- चाहे वह खेल हो, संगीत, कला या विज्ञान। इन गतिविधियों में बच्चों को समूह में काम करना, अपने विचारों को साझा करना और टीम के लक्ष्य को प्राथमिकता देना सिखाया जाता है। यहाँ हार-जीत से अधिक महत्त्व इस बात को दिया जाता है कि बच्चे प्रयासरत रहें और एक-दूसरे का सम्मान और सहयोग करें।

  स्कूलों में ‘उन्दोकाई’ (खेल दिवस) और ‘बुन्कासाई’ (सांस्कृतिक उत्सव) जैसे वार्षिक आयोजन भी होते हैं, जिनकी योजना और क्रियान्वयन की ज़िम्मेदारी स्वयं छात्र उठाते हैं। वे अपनी कक्षाओं को सजाते हैं, कार्यक्रमों की योजना बनाते हैं और दिन के संचालन में भाग लेते हैं। इन आयोजनों के माध्यम से नेतृत्व, सहयोग, प्रबंधन और रचनात्मकता जैसे गुणों का विकास होता है। बच्चों को यह अवसर मिलता है कि वे अपनी बात को प्रस्तुत कर सकें और सामूहिक प्रयासों की सफलता का स्वाद चख सकें।

   शिक्षकों की भूमिका भी इस व्यवस्था में बेहद खास होती है। वे केवल जानकारी देने वाले नहीं, बल्कि बच्चों के मार्गदर्शक, संरक्षक और सहभागी होते हैं। वे बच्चों को गलतियाँ करने की स्वतंत्रता देते हैं ताकि वे उनसे सीख सकें। जापानी स्कूलों में शिक्षकों और छात्रों के बीच का रिश्ता औपचारिकता से कहीं अधिक गहरा और मानवीय होता है।

 एक और बात जो मुझे जापानी शिक्षा प्रणाली में अत्यंत प्रेरक लगती है, वह है आत्मनिर्भरता का संस्कार। जापान में विद्यालयों का नियोजन इस प्रकार किया गया है कि वे बच्चों के घरों से लगभग 2 किलोमीटर के भीतर हों। इस सोच-समझ कर बनाई गई व्यवस्था का परिणाम यह है कि बच्चे स्वयं अपना बैग सँभालते हैं, अनुशासनपूर्वक समूह बनाकर, समय पर स्कूल पहुँचते हैं और स्कूल की छोटी-बड़ी जिम्मेदारियाँ निभाते हैं। घर के आसपास रहने वाले सभी बच्चे एक निश्चित समय पर एकत्रित होते हैं, एक-दूसरे की प्रतीक्षा करते हैं, और सभी के आने पर बड़े बच्चे छोटे बच्चों का मार्गदर्शन करते हुए यात्रा प्रारंभ करते हैं। बिना किसी वयस्क निगरानी के वे तय नियमों का पालन करते हैं, एक-दूसरे की सहायता करते हैं और मार्ग की कठिनाइयों में एक-दूसरे का सहारा बनते हैं। यह मात्र एक स्कूल जाने की प्रक्रिया नहीं, बल्कि सहयोग, नेतृत्व, अनुशासन और सामाजिक जिम्मेदारी का सहज प्रशिक्षण है, जो विद्यालय की दीवारों से निकलकर जीवन के रास्तों तक फैला है। यह प्रणाली बच्चों में आत्मनिर्भरता, साहस और समाज के प्रति उत्तरदायित्व का बीज बोती है। जापान के ये छोटे-छोटे कदम, वास्तव में, बड़े जीवन मूल्यों की ओर बढ़ते हुए कदम हैं। इस तरह से बच्चे धीरे-धीरे बड़े होकर जिम्मेदार नागरिक बनते हैं। उन्हें यह सिखाया जाता है कि समाज एक बड़ा परिवार है और हर व्यक्ति को उसकी बेहतरी के लिए योगदान देना चाहिए।

जापान के प्राथमिक विद्यालयों में पौधारोपण शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। बच्चे स्कूल के बगीचों में मौसमी फूलों, सब्जियों और पेड़ों को लगाते और उनकी देखभाल करते हैं। इससे वे प्रकृति के प्रति प्रेम, धैर्य और जिम्मेदारी जैसे जीवन-मूल्य सीखते हैं। पौधारोपण के माध्यम से बच्चों को पर्यावरण संरक्षण, खाद्य उत्पादन और मौसम के बदलावों की व्यावहारिक समझ मिलती है। साथ ही, समूह में मिलकर काम करने से सहयोग और सामूहिक जिम्मेदारी की भावना भी विकसित होती है। यदि कोई छात्र अनुपस्थित होता है, तो जापानी स्कूलों में पौधों की देखभाल की जिम्मेदारी अन्य साथी छात्र स्वतः ही सँभाल लेते हैं। उसके मित्र बिना कहे उसकी जगह पौधों को पानी देते हैं, खरपतवार निकालते हैं या ज़रूरत पड़ने पर पौधों की सफाई भी करते हैं। इस तरह से बच्चों में सहयोग, जिम्मेदारी और दूसरों के कार्य में सहायता करने की भावना विकसित होती है। जापानी विद्यालयों में यह परंपरा बच्चों को न सिर्फ हरियाली का महत्त्व सिखाती है, बल्कि उन्हें भविष्य में पर्यावरण के प्रति जागरूक और संवेदनशील नागरिक बनने की दिशा में भी प्रेरित करती है।

इन सब अनुभवों ने न केवल मेरी शिक्षण विधियों को समृद्ध किया, बल्कि मेरे जीवन-दृष्टिकोण को भी परिपक्व बनाया। जब भी मैं भारत की शिक्षा प्रणाली से जोड़कर सोचती हूँ, तो प्रश्न उठता है-  क्या हमारे विद्यालयों में बच्चों को सहयोग, स्वच्छता और आत्मनिर्भरता जैसे जीवन मूल्यों का समान अवसर मिलता है? या केवल शैक्षणिक दक्षता पर ही ध्यान दिया जाता है? जापानी विद्यालय यह स्पष्ट करते हैं कि शिक्षा का सही उद्देश्य केवल परीक्षा-उत्तीर्ण करना नहीं, बल्कि एक ऐसा समग्र जीवन-निर्माण है जो सहयोग, स्वच्छता, आत्म-निर्भरता, आभार और मानवीय संवेदनशीलता के स्तंभों पर खड़ा होता है। यदि हम भी इनसे प्रेरणा लेकर इन मूल्यों को अपनी पाठशालाओं में उतारें, तो हमारी आने वाली पीढ़ियाँ विद्वान होने के साथ-साथ संवेदनशील, जिम्मेदार और समाजोपयोगी नागरिक के रूप में भी अपने कर्तव्यों का निर्वहन करेंगी।

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