श्रीलाल शुक्ल की व्यंग्य दृष्टि: संदर्भ अंगद का पांव’

डॉ ज्ञान प्रकाश

विजिटिंग प्रोफेसर, हंगुक यूनिवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज, सियोल, दक्षिण कोरिया

श्रीलाल शुक्ल स्वातंत्र्योत्तर भारतीय यथार्थ के सतर्क और विलक्षण उद्घाटनकर्ता हैं। श्रीलाल शुक्ल का लेखन और जीवन दोनों ही विशिष्ट है। उनमें जहाँ एक ओर घोर ग्रामीण मन बसता है वहीं दूसरी ओर आधुनिक शहरी मिज़ाज का भी समावेश है। यही कारण है कि उनके लेखन में जहाँ ग्रामीण जीवन-यथार्थ रोमान, करुणा और हाय-वृत्ति से मुक्त है तो दूसरी ओर शहरी जीवन की अजनबीयत, बोरियत और आत्मदया जैसे मनोभाव भी नहीं है। वे मूलतः यथार्थबोध के रचनाकार हैं।

विश्व साहित्य में ‘राग दरबारी’ जैसी अमूल्य कृति देने वाले श्रीलाल शुक्ल स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य के महत्वपूर्ण स्तंभ है। हिन्दी व्यंग्य साहित्य को प्रतिष्ठा दिलाने वाले श्रीलाल शुक्ल मूलतः कथाकार हैं। व्यंग्य लेखन को उन्होंने सामाजिक एवं साहित्यिक प्रतिष्ठा दिलाई।  आरंभिक झुकाव पद्य की ओर होने के बावजूद उन्होंने अपनी सृजनात्मकता को गद्यात्मक दिशा दी और इसमें वे सफल भी हुए। उनका नियमित लेखन 1953 ई. से प्रारंभ हुआ। स्वयं उनके शब्दों में- “अगर किशोरावस्था में किये गए घपलों को न गिनें तो साहित्य में मेरे प्रयोग 27 वर्ष की अपेक्षाकृत परिपक्व आयु में शुरू हुए।… एक दिन आकाशवाणी की रूमानी गिचिर-पिचिर से जो वहाँ के नाटकों और दूसरे प्रसारणों में लबालब भरी रहती है, बौखलाकर और उसका लगभग ध्वंसात्मक विरोध करते हुए मैंने ‘स्वर्णग्राम और वर्षा’ नामक निबंध लिख डाला और उसे धर्मवीर भारती के पास भेज दिया।… इसके बाद कई जगहों में भारती से पूछताछ होने लगी कि लेखक श्रीलाल शुक्ल कौन है।”[1]

कहानी, उपन्यास, निबंध, आदि कई विधाओं में श्रीलाल शुक्ल ने हिंदी व्यंग्य-दृष्टि को नई पहचान दिलाई। ‘रागदरबारी’ नामक उपन्यास की रचना के बाद उनकी पहचान अंतर्राष्ट्रीय कथाकार के रूप में बन गई। गद्य की तमाम विधाओं में लेखन करने वाले श्रीलाल शुक्ल के रचना-संसार में सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ की व्यंग्यात्मक परख मिलती है।

निबंध साहित्य को व्यंग्य से जोड़ने का उपक्रम श्रीलाल शुक्ल की लेखनी की खास विशिष्टता है। कवि रघुवीर सहाय ने हिन्दी के अन्य व्यंग्य निबंधकारों के साथ श्रीलाल शुक्ल की तुलना करते हुए कहा है “वह अपने समकालीन परसाई से काफी भिन्न हैं। जो कि टूटने योग्य है उसे तोड़ ही डालने के कायल हैं और शरद जोशी या रवीन्द्रनाथ त्यागी से तो बहुत ही भिन्न हैं जिन्होंने चुनी हुई चीजों पर हंसने-हंसाने में दक्षता अर्जित की है। श्रीलाल शुक्ल, प्रेमचंद और अज्ञेय के अधिक निकट हैं क्योंकि वह भी बार-बार उसकी याद दिलाते हैं जो टूट चुका है वह टूटकर नष्ट हो जाने के योग्य नहीं था।”[2] 

विसंगतियों की पहचान और उनकी प्रस्तुति की कला में श्रीलाल शुक्ल सिद्धहस्त है। बिना दांत पीसे, बगैर लट्ठ उठाये वे परिवेश के माध्यम से विद्रूपताओं को उभारते हैं। उनका रचना-संसार सामाजिक, राजनीतिक व नैतिक असंगतियों, विकृतियों पर पैनी नज़र रखता है, उन पर तीखे व्यंग्यात्मक प्रहार करता है।

समकालीन परिस्थितियों को लक्ष्य कर व्यंग्यात्मक-निबंध लिखने वालों में उनका नाम महत्वपूर्ण है। उन्होंने न केवल व्यंग्य-निबंध लिखे बल्कि व्यंग्य-उपन्यास नामक नई विधा का भी प्रवर्तन किया है। वे स्वातन्त्र्योत्तर भारत में पनपी समस्त विकृतियों पर प्रहार करते हैं और लोगों के चेहरों पर से मुखौटे उतार फेंकते हैं। व्यंग्य की प्रभाव क्षमता एवं सफलता अनिवार्यतः लोक-धारा से जुड़े रहने में है, जिसकी पूर्ति श्रीलाल शुक्ल की रचनायें बखूबी करती हैं।

शुक्ल व्यंग्य को आधुनिक जीवन और आधुनिक लेखन का एक अभिन्न अस्त्र तथा अनिवार्य शर्त मानते हैं। शोषक एवं शोषितों की वर्तमान व्यवस्था में शोषितों का साथ देने वाले श्रीलाल शुक्ल अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता को नहीं भूलते। इस संदर्भ में उन्होंने ‘यह मेरा घर नहीं’ पुस्तक में लिखा है- “दरिद्र देशों के सामूहिक जीवन में साहित्य बिल्कुल ही अप्रासंगिक है। ऐसे देश में अगर किसी साहित्यकार को दम्भ हो कि वह साहित्य रचकर जनसाधारण के जीवन की कोई अनिवार्य आवश्यकता पूरी कर रहा है तो उसे अपनी कलम चूल्हे में झोंक देनी चाहिए। दरिद्र देशों में मनुष्य सिर्फ रोटी के सहारे जीता है। कलाकारों और साहित्यकारों को उसका कृतज्ञ होना चाहिए कि वह दूसरे संकटों के साथ कला और साहित्य को भी झेल लेता है।”[3]

विषय की दृष्टि से श्रीलाल शुक्ल के निबंधों में पर्याप्त विविधता है। राजनीति, शासन-व्यवस्था, शिक्षा, रोजगार, साहित्य, मानवीय मूल्य, नैतिकता, सामाजिक-व्यवहार आदि तमाम क्षेत्रों में व्याप्त विसंगतियों व विद्रूपताओं को उन्होंने अपना विषय बनाया है। श्रीलाल शुक्ल आज़ादी के बाद की राजनीति को जब गहराई से टटोलते हैं तो राजनेताओं का मुखौटा उतर जाता है। वे पाते हैं कि ये तो वही हैं जो आज़ादी से पहले भी जमींदार, अंग्रेज राजा आदि के रूप में शोषण करते थे- “जमींदारी टूटने के कुछ साल पहले और बाद में जमींदारों ने अपनी जायदादें बेचनी शुरू कीं। कुछ तो अपने असर बंजर और उनका एक-एक तिनका बेचकर शहरों की ओर भागे और वहाँ एम.एल.ए., जिला-परिषद के अध्यक्ष या कुछ न हुआ तो किसी भी आँच-बाँय-शाँय पार्टी के नेता बनकर अपनी नई हैसियत बनाने लगे।”[4]

राजनीति का जिस प्रकार अपराधीकरण हुआ है और जिस तरह वह अपराधियों की शरणस्थली बनी है, उसे देखते हुए नेता बनने के लिए अपराधी बनने की तरह ही सिवा दुस्साहस के और किसी चीज़ की जरूरत नहीं रह गई है। श्रीलाल शुक्ल राजनीतिक-अपराधीकरण पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं- “हत्या करने के लिए (और नेता बनने के लिए) दुस्साहस के सिवा और चाहिए ही क्या?[5]  इसी प्रकार ‘कुन्ती देवी का झोला’, ‘मम्मी जी का गदहा’, ‘राजनीतिज्ञों की पंचायत’, ‘फावड़ा बनाम हवाई जहाज’, ‘जनवाणी बनाम महाजनवाणी’, ‘दूरदर्शन का जीवन-दर्शन’, आदि निबंधों में स्वातंत्र्योत्तर भारतीय राजनीति के बदलते-बिगड़ते चरित्र पर उन्होंने तीखे व्यंग्य किये हैं।

आज़ादी के बाद नेताशाही और नौकरशाही ने मिलकर जनता को खूब लूटा है। अपना उल्लू सीधा करने के लिए दोनों ने मिलकर जनता को उल्लू बनाया है। उनकी इस मिलीभगत के कारण आज़ादी के बाद आम आदमी की विवशता में हुई वृद्धि को श्रीलाल शुक्ल ने प्रखरता से उभारा है। ‘कुछ ज़मीन पर, कुछ हवा में’ संग्रह की अधिकांश निबंध रचनाओं में नौकरशाही से उप्पन्न रिश्वतखोरी, लालफीताशाही, भाई-भतीजाबाद आदि पर तीखे व्यंग्य अंकित हैं। इस दृष्टि से ‘काश, मैं मोटरसाइकिल होता’, ‘बेचारे डाकू’, ‘स्वामी से भी ज़्यादा स्वामी भक्त’, ‘एक वर्ष युवा वर्ग के भी नाम’, ‘जैसी करनी वैसी भरनी: एक बोध-कथा’, ‘एम.एस.टी. और आतंकवाद’ आदि निबंध उल्लेखनीय हैं।

   श्रीलाल शुक्ल न्याय-विभाग की विकृतियों पर भी प्रहार करते हैं। ‘एक मुकदमा’ शीर्षक निबंध में वे लिखते हैं- “अभी तक इस देश के कानून में अदालत का अपमान करना  ही जुर्म माना गया है, अदालत की चापलूसी करना नहीं।”[6] इसी प्रकार अदालतों में अंग्रेजों के ज़माने के रंग-ढंग जारी रहना भी उन्हें नागवार गुजरता  है- “हमारी इजलासों का आलम आज भी सब तरह के परिवर्तनों से अछूता है। वहाँ आज भी वही गिटपिट है, वही कटघरा है।”[7]

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय समाज को सभ्य-असभ्य के खाँचों में विभक्त करने वाला सम्भ्रांतता का दौर शुरू हुआ जिसके कारण हम अपनी अस्मिता पर, अपने हिन्दुस्तानी होने पर शर्म महसूस करते नज़र आये। इस विकृति पर चोट करते हुए श्रीलाल शुक्ल ने ‘आह! वे दिन’ और ‘कचहरी के भूतपूर्व मगरमच्छ’ शीर्षक निबंध लिखा और इस प्रवृत्ति की जमकर खिल्ली उड़ाई। जन-जीवन में व्याप्त पाश्चात्य-अंधानुकरण पर श्रीलाल शुक्ल ‘पहली चूक’, ‘दुभाषिये’ और ‘साहब का बाबा’ आदि निबंध लिखे और इस हीन मानसिकता को आत्मस्वाभिमान के लिए बड़ा खतरा बताया। नैतिकता, ईमानदारी, सहृदयता का लगातार क्षरण हमारे समाज का नया चरित्र है। मानवीय मूल्यों की इस गिरावट पर श्रीलाल शुक्ल ने ‘कुत्ते की पिल्ले की नसीहत’, ‘एक मुकदमा’, ‘बैलगाड़ी’ आदि निबंधों में तीक्ष्ण प्रहार किये हैं। ‘एक मुकदमा’ से एक उद्धरण व्यंग्य के इस तीखेपन को प्रमाणित करता है जहाँ श्रीलाल शुक्ल लिखते हैं- “सच बोलने को अभी तक हमारे समाज में मक्कारी नहीं माना जाता।”[8]

आचरण का नकलीपन और पशुओं से भी गिरा हुआ चरित्र तमाम विकास के बावजूद समाज को जड़ बनाये हुए है। पढ़-लिख लेने के बावजूद हमारा समाज कर्म के बजाय किस्मत को प्रधानता देता है, अंधविश्वासों में डूबा हुआ है, रूढ़ियों से घिरा हुआ है। वैज्ञानिक आविष्कार और अनुसंधान शिखर छू लेने वाला व्यक्ति भी भाग्यवादी बना हुआ है। ‘एक खानदानी नौजवान’ शीर्षक निबंध में श्रीलाल शुक्ल ने आधुनिक समाज की इस दुविधा को तीखे व्यंग्यात्मक लहजे में व्यक्त किया है। इसी प्रकार दहेज-प्रथा, खोखली मर्यादा, झूठी-भक्ति-भावना, धार्मिक-कूपमंडुकता आदि विषयों को भी शुक्ल ने अपने व्यंग्य के निशाने पर लिया है। साहित्यिक विकृतियों एवं विसंगतियों पर भी श्रीलाल शुक्ल ने अपने निबंधों में कटाक्ष किया है। आम आदमी के जीवन-संघर्ष को स्वर देने का दंभ भरने वाले साहित्यकार का वस्तुतः आम आदमी से कितना अपरिचय है और उसके संघर्ष की तलाश किस प्रकार हो रही है, इस असंगति पर उन्होंने ‘तलाश जारी है आम आदमी’ शीर्षक निबंध में मार्मिक व्यंग्य किया है। तमाम विकृतियों और प्रतिकूल स्थितियों के बावजूद साहित्य और साहित्यकारों पर से उनकी आस्था डिगती नहीं। उनका मानना है- “शायर के साथ हमदर्दी दिखाना किसी का पेशा नहीं है, बल्कि औरों से हमदर्दी दिखाना शायर का ही पेशा है।”[9]

समाज और साहित्य की विविध विसंगतियों के प्रति एक सामान्य दर्शक की भांति देखकर उसे पर्दाफाश करना श्रीलाल शुक्ल की निजी विशेषता है। जैसे- “हनुमान जी के मन्दिर में बड़े जोर से जय-जयकार हुई। किसी देशी रियासत की एक विलायती मोटर किसी झबरी औरत के हाथों में अटकी हुई, टेडी-मेढ़ी होती सामने से निकली। उसकी नम्बर प्लेट पर रियासत का नाम और गाड़ी का नम्बर हिंदी में लिखा था। हम इतने से ही कृत-कृत्य हो गए। दो-तीन ऐग्लो इंडियन लड़कियाँ फुटपाथ पर खड़ी होकर हनुमान जी को घूरने लगी जवाब में हनुमान जी भक्त लड़कियों को घूरने लगे।”[10]

किसी एक विषय को लेकर प्रहार करते समय ही अनेकानेक विषयों पर अप्रत्यक्षतः व्यंग्य करना श्रीलाल शुक्ल की खास पहचान है। जैसे- “आज की परीक्षा छात्रों के लिए भले ही बेकार से मास्टरों के लिए बड़े काम की है।” प्रस्तुत वाक्य के शब्दों से विसंगतिपूर्ण व्यंग्य फूटता है। जहाँ परीक्षा पद्धति एवं शिक्षा के प्रति उदासीनता, अध्यापकों का धर्म बेकारी आदि विषयों पर एक साथ आघात किया है। बालेन्दु शेखर तिवारी ने श्रीलाल शुक्ल की व्यंग्य रचनाओं के बारे में लिखा है कि “श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं में मनोरंजन की सस्ती भावना के स्थान पर परिष्कार मूलक व्यंग्यबोध अधिक जागृत दीखता है।”[11]

श्रीलाल शुक्ल जी के निबंधों में वचन-वैदग्ध्य पर्याप्त उपलब्ध है। उन्होंने वाक्य में आंतरिक बुनावट से व्यंग्यार्थ प्रस्तुत किया है।

जैसे-

“आज के साहित्यिक, साहित्यिक नहीं लठैत है लठैत।”

“मैं सिर्फ खून दे सकता हूँ सिर्फ तुम्हारे लिए।” 

“पब्लिक लाइब्रेरी में सिर्फ लड़के लड़कियाँ डेटिंग के लिए जाते हैं, दफ्तरों में लोग कॉफ़ी हाउस चलाते हैं, कॉफ़ी हाउस में लोग…।”

शुक्ल में मानवीकरण द्वारा व्यंग्यार्थ प्रस्तुत करने की भी विशेषता है। जैसे “इंसान कुछ भी करे तुम अपने चलन पर अडिग रहना बड़े-बड़े दफ्तरों, थानों और कोतवालियों में जो कुछ भी होता रहे, तुम चोरों के सामने अपनी आन कायम रखना और कभी समझौता मत करना।लम्बे-चैड़े फार्मी और मालगोदामों के चौकीदार और नारिन्दे भले ही हाथ-पैर फेंकते रहें, पर तुम्हें चीज़ की हिफाजत के लिए रखा गया है उस पर कभी मुँह मत मारना।”[12]

श्रीलाल शुक्ल पाठकों को आत्मविश्वास में लेकर एक बुजुर्ग की तरह हमारे साथ आँखों देखा हाल प्रस्तुत कर व्यंग्यार्थ से उपदेश देते हैं। जैसे- “क्लास में न आना, फीस न देना, अध्यापकों से अबे-तबे कहना, किताबों को कभी न देखना, सहपाठिनी छात्राओं को लगातार देखते रहना, उलजलूल कपड़े पहनना, उससे भी ज़्यादा उलजलूल बोली बोलना- यह सब अनुशासनहीन नहीं कहा जाता। वैसे ही, सिनेमा में झगड़ा करना, रेल में बिना टिकट चलना, दुकानदारों से चौथ या जजिया वसूलना, किसी भी रेस्तरा में पहुँच कर अपनी शहंशाही का खुत्वा पढ़ते हुए ‘फोकट’ में खाना और फोकट खिलाना- यह सब भी अनुशासनहीनता में नहीं आता।”[13]

श्रीलाल शुक्ल जी में उपमा, प्रतीकों, उपमानों का व्यंग्यार्थ में उपयोग करने की विशेष क्षमता विद्यमान है। जैसे- “कालिदास को इस बैलगाड़ी से उत्कृष्ट साहित्य की प्रेरणा मिली थी, वैसे ही आजकल वह प्रजातंत्र की प्रेरक शक्ति है। ये बैल कैबिनेट के समान है। गाड़ीवान प्रेसीडेंट का काम करता है जो बैलों को चलाता है और नहीं भी चलाता है।”[14] इन्होंने मुहावरे, कहावतों का व्यापक प्रयोग व्यंग्य निबंधों में किया है जैसे- डींग हाँकना, नाक सिकोडना, अडिग रहना, हाथ-पैर फेंकते रहना, न रहे बाँस न बजेगी बाँसूरी आदि।  भाषा के स्तर पर उन्होंने बोलचाल के दैनंदिन शब्दावली के साथ-साथ अन्य प्रचलित भाषा के शब्दों का  भी प्रयोग किया है।

अंगद का पाँव : विश्लेषणात्मक समीक्षा

   “वैसे तो मुझे स्टेशन जाकर लोगों को विदा देने का चलन नापसंद है, पर इस बार मुझे स्टेशन जाना पड़ा और मित्र को विदा देनी पड़ी।”[15] निबंध की इन आरंभिक पंक्तियों को पढ़कर कोई भी अंदाजा नहीं लगा सकता कि यह किस विधा की रचना है। इससे भी विशिष्ट है ‘शीर्षक’ रूप में अंकित ‘अंगद का पाँव’। शीर्षक से गुजरते हुए स्पष्ट होता है कि इसमें एक पौराणिक पात्र का समावेश है परंतु पूरी रचना पढ़कर यह साफ हो जाता है कि यह एक निबंध रचना है और इससे भी बढ़कर कहें तो व्यंग्य-निबंध।

वह विचारपूर्ण, विवरणात्मक और विस्तृत लेख जिसमें किसी विषय के सभी अंगों का मौलिक और स्वतंत्र विवेचन किया गया हो, उसे निबंध कहा जाता है। निबंध में शैली उसका प्राणतत्व होता है। व्यंग्यात्मक शैली जिसमें संस्मरण व रेखाचित्र का सम्मिश्रण हो, ऐसे निबंध श्रीलाल शुक्ल की विशिष्टता के द्योतक है। इसी शैली में रचा गया एक व्यंग्यात्मक निबंध है- अंगद का पाँव।

‘अंगद का पाँव’ शीर्षक निबंध, संग्रह की प्रतिनिधि रचना है जिसके नाम पर ही श्रीलाल शुक्ल ने इस पुस्तक का नामकरण किया है। श्रीलाल शुक्ल ने देशी-विषयों को चुनकर अंग्रेजी शैली में व्यंग्यात्मक छटा प्रदान करते हुए यह व्यंग्य-संग्रह प्रस्तुत किया है। ‘संस्कृत पाठशाला में प्रसाद’, ‘शीर्षकों का शीर्षासन’, ‘हिन्दी की बिन्दी उड़ रही है’, ‘दुभा पिये’, ‘पहली चूक’, ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’, ‘अंगद का पाँव’ आदि इस संग्रह की महत्वपूर्ण रचनायें हैं। ‘अंगद का पाँव’ संग्रह की रचनाओं का विश्लेषण करते हुए यह साफ हो जाता है कि आज़ादी के तुरंत बाद ही संपूर्ण राष्ट्र में व्याप्त नकलीपन एवं कृत्रिमता का रोचक शैली में विवरण प्रस्तुत हुआ है जो केवल गुदगुदाता नहीं बल्कि बौद्धिक कचोट भी पैदा करता है।

संदर्भित निबंध ‘अंगद का पाँव’ के द्वारा रचनाकार स्वातंत्र्योत्तर भारत में जन्मी ‘संभ्रान्तता’ के नये दौर पर टिप्पणी करते नज़र आते हैं जिसके तहत मानव-समाज कई श्रेणियों में बँट गया। श्रीलाल शुक्ल इसके मूल में निहित क्षुद्र चिन्तन, कुंठा एवं कुटिलताओं को परखते हैं। एक दूसरे नजरिए से देखें तो ‘अंगद का पाँव’ तथाकथित संभ्रांत नगरीय सभ्यता एवं औपचारिक परिवेश पर परिहास है। अंग्रेजी शासन के दौरान मिली नौकरशाही पर भी यह व्यंग्य करारा प्रहार करता है।

इस विवरणात्मक निबंध में एक साहब को विदा करने के लिए मित्र तथा मातहत अमला रेलवे-स्टेशन पर आता है। विदाई के सारे अनुष्ठान पूर्ण हो जाते हैं, मिलते-जुड़ते हाथों की गर्म जोशी चली जाती है तथा लोग उबासियाँ लेने लगते हैं परंतु ट्रेन खिसकने का नाम नहीं लेती। वह अंगद के पाँव की तरह जमी रहती है। वह वर्तमान व्यवस्था की तरह गतिहीन नज़र आती है। इस रूप में यह रचना खोखली औपचारिकताओं और परंपराओं पर जबर्दस्त चोट करती है। नौकरशाही की अंग्रेज़ी आदत आज़ादी के बाद भी यहाँ के साहबों में मौजूद रहा या कहना चाहिए कि बढ़ गया। एक साहब को विदा करने हेतु मध्यवर्गीय मित्रों और नौकरों की फौज़ का रेलवे स्टेशन पर उपस्थित होना और उसकी बेवजह खुशामद करना संभ्रांत मध्यवर्गीय सामंतशाही चरित्र को उजागर करता है जो ठीक ‘अंगद की पाँव’ की तरह हमारे देश और समाज में अब तक जमा हुआ है, उखाड़े नहीं उखड़ रहा। गाड़ी अपने समय पर नहीं चल रही, अतः थोड़ी देर बाद विदा देने वालों में बेचैनी भर जाती है तथा वे आपस में ही देश दुनिया के हालात पर भिड़ने लगते हैं। व्यंग्य की पराकाष्ठा तब होती है जब काफी इंतजार के बाद ट्रेन चल देती है और विदा देने आये मित्र गाड़ी को निश्चित रूप से चलती हुई पाकर हसरत के साथ बोलते हैं- “काश, कि यह गाड़ी यहीं रह जाती।”[16] इस निबंध में श्रीलाल शुक्ल ने स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज की जड़ मानसिकता, अफ़सरशाही, दफ्तर-संस्कृति, चाटुकारिता, वाक्विलासिता, अंग्रेजीपरस्ती, गतिहीन-विकास गति, अंधानुकरण के साथ-साथ गतिविहीन जीवन-व्यवस्था का यथार्थ चित्रण व्यंग्यात्मक शैली में किया है।

निबंध में विदा लेने वाले अफ़सर साहब को विदा देने वालों की बड़ी संख्या भारतीय समाज में व्याप्त औपचारिकता का परिचायक है जो हमारी मध्यवर्गीय मानसिकता का हिस्सा है। निबंधकार ने पहले दर्जे में सफर करने वाले को विशेष व्यक्ति बताया है तथा रुमाल और हाथ हिलाते उनके मित्रों व मातहतों को चाटुकार के रूप में प्रस्तुत किया है। पहले दर्जे में सफर करने का गर्व अनुभव करते हुए भी गाड़ी छूट जाने का डर साहब की दुविधाग्रस्त और विभाजित मनोवृत्ति को उजागर करता है- “अब उन्होंने स्वामिभक्त मातहतों के हाथों गले में मालाएँ पहनी; सबसे हाथ मिलाया, सबसे दो-चार रस्मी-बातें कहीं और फस्ट क्लास के डिब्बे के इतने नज़दीक खड़े हो गये कि गाड़ी छूटने का खतरा न रहे।”[17] मातहतों के सामने श्रेष्ठ बनकर गौरवान्वित होना, मध्यवर्गीय भारतीय समाज की खोखली मानसिकता को व्यक्त करता है।

सीटी देने के बावजूद गाड़ी जब नहीं चलती तो मित्रों और मातहतों के बीच बेमतलब, बेसिर-पैर की बहसें शुरू हो जाती हैं। इन बहसों में अंग्रेजी परस्ती का भारतीय मन उभरता है जहाँ टेनिस-क्लब, सन बर्स्ट, पिंक पर्ल, लेडी हैलिंग्टन, ब्लैक प्रिंस का जिक्र आता है। एक महाशय कहते हैं- “इण्डिया में अभी तो जैसे हम बैलगाड़ी के लेवेल से ऊपर नहीं उठे, वैसे ही फूलों के मामले में भी गेंदे से ऊपर नहीं उभर पाये। गाड़ियों में बैलगाड़ी, मिठाइयों में पेड़ा, फूलों में गेंदा, लीजिए जनाब, यही है आपकी इण्डियन कल्चर।”[18]

इस उद्धरण में श्रीलाल शुक्ल ने जहाँ एक ओर भारतीय विकास की गतिहीनता को लक्षित किया है वहीं दूसरी ओर वे अंग्रेजीयत में रंगी भारतीय मानसिकता को भी उजागर किया है जो भारत में रहते हुए भी अंग्रेजी संस्कृति और अंग्रेजी जीवन पद्धति को श्रेष्ठ मानकर, उसे प्राप्त करने के लिए बेताब है। भारतीय विकास गति पर करारा प्रहार करते हुए श्रीलाल शुक्ल लिखते हैं- “इंजिन फिर से सीं-सीं करने लगा। पर गाड़ी अंगद के पाँव सी अपनी जगह टिकी रही।”[19] यह इस निबंध की केन्द्रीय पंक्ति है। वास्तव में तमाम पंचवर्षीय योजनाओं और विकास योजनाओं की शुरुआत तो हुई परंतु साठ के दशक तक उससे भारतीय जीवन परिदृश्य में गतिशीलता नहीं आ पाई। हमने आज़ादी तो पायी परंतु हम अंग्रेजी के गुलाम बने रहे। हमारी अपनी पहचान बनाने की कवायद ढीली ही रही।

निबंध के अगले हिस्से में श्रीलाल शुक्ल ने भारतीय शिक्षा, साहित्य और साहित्यकारों की प्रवृत्ति पर व्यंग्य किया है और इस दौरान उन्होंने दिखावटी-प्रवृति, अंधानुकरण एवं खोखली आधुनिकता को भी उजागर किया है। प्रोफेसर साहब की यह उक्ति इन्हीं उपरोक्त प्रवृत्तियों और विभाजित मानसिकता को उजागर करता है- “जनाब, जिन्दगी में तीन बटे चार तो दबाव है, कोएर्शन का बोलबाला है, बाकी एक बटे चार अपनी तबीयत की जिन्दगी है। देखिए न, मेरा काम तो एक तख्त से चल रहा है, फिर भी दूसरों के लिए ड्राईंग रूम में सोफे डालने पड़ते हैं।… स्वाद खराब होने पर भी दूध छोड़कर कॉफ़ी पीता हूँ। जासूसी उपन्यास पढ़ने का मन करता है, पर काण्ट और हीगेल पढ़ता हूँ; और जनाब, गठिया का मरीज हूँ पर मित्रों के लिए स्टेशन आकर घंटों खड़ा रहता हूँ।”[20]    

उनके निबंधों की खास विशेषता यह है कि वे किसी एक विषय पर बात करते हुए भी कई विषयों पर परोक्ष ढंग से व्यंग्यार्थ प्रस्तुत कर देते हैं। गाड़ी खुलने की प्रतीक्षा में बेचैन और अकुलाए हुए मित्र-मंडली की बात करते-करते वे देश में मौजदू वोट की राजनीति पर भी प्रहार कर जाते हैं- “अब भीड़ तितर-बितर होने लगी थी और मित्र के मुँह पर एक ऐसी दयनीय मुस्कान आ गई थी जो अपने लड़कों से झूठ बोलते समय, अपनी बीबी से चुरा कर सिनेमा देखते समय या वोट माँगने में भविष्य के वादे करते समय हमारे मुँहों पर आ जाती होगी। लगता था कि वे मुसकराना तो चाहते हैं, पर किसी से आँख नहीं मिलाना चाहते।”[21]

गाड़ी का समय पर न चलने की घटना के द्वारा श्रीलाल शुक्ल ने व्यवस्था और भारतीय विकास की गतिहीनता और शिथिलता पर व्यंग्य किया है। गाड़ी के न हिलने और जड़ हो जाने की घटना को उन्होंने पौराणिक प्रसंग से जोड़कर उसे ‘अंगद के पाँव’ का प्रतीक बनाया है। जब लंका में दूत के रूप में अंगद गया था तो रावण दरबार में कोई भी उसके पाँव को हिला न सका था। वस्तुतः बार-बार सीटी देने के बावजूद गाड़ी का न हिलना, सारी बातों के खत्म होने के बाद उबासी आने के बावजूद मौजूद मित्रों और मातहतों का जमे रहना, शीर्षक की सार्थकता सिद्ध करते हैं।

श्रीलाल शुक्ल ने कथा-साहित्य के साथ-साथ निबंध कला को भाषा और शैली के नज़रिए से एक नई दिशा दी है। कहने का उनका अपना ढंग है जो व्यंग्यात्मक शैली के सर्वथा अनुकूल है। सरल, सहज और सामान्य बोलचाल की भाषा में समाज, व्यवस्था और व्यक्ति पर इतना तीखा व्यंग्य हिन्दी साहित्य में दुर्लभ है।‘अंगद का पाँव’ शीर्षक निबंध शुक्ल की अपनी विशिष्ट भाषा शैली से संपृक्त है। यह निबंध एक पौराणिक प्रसंग को नये युक्ति के साथ प्रस्तुत कर गतिहीन, जड़हीन स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज पर सीधा कटाक्ष है।

उनकी खासियत यह है कि सहज संवाद या कथोपकथन द्वारा व्यंग्यार्थ प्रस्तुत कर जाते हैं। ‘अंगद का पाँव निबंध ऐसे ही सहज संवादों में बुनी हुई रचना है। उदाहरण द्रष्टव्य है- “बातचीत की सड़ियल मोटर एक बार जब धक्का खा कर स्टार्ट हो गई तो उसकी फटफटाहट का फिर क्या पूछना। दूसरे महाशय ने कहा- इण्डिया में अभी तो जैसे हम बैलगाड़ी के लेवेल से ऊपर नहीं उठे, वैसे ही फूलों के मामले में भी गेंदे से ऊपर नहीं उभर पाये। गाड़ियों में बैलगाड़ी, मिठाइयों में पेड़ा, फूलों में गेंदा, लीजिए जनाब, यही है आपकी इण्डियन कल्चर।”[22]

इसके जवाब में दूसरे साहब ने भीड़ के दूसरे कोने से चीखकर कहा- “अंग्रेज़ी चला गया पर अपनी औलाद छोड़ गया।” इधर से उन्होंने कहा- “जी हाँ! आप जैसा हिन्दुस्तानी रह गया पर दिमाग बह गया।”[23]

श्रीलाल शुक्ल की लेखनी की खास पहचान है उसकी वचन-भंगिमा। वे दृष्टांत का सहारा लेकर वचन-विदग्धता को नया आयाम देते हैं। ‘अंगद का पाँव’ में भी उनकी वचन भंगिमा को उद्घाटित करती हुई सूक्तियाँ और दृष्टांत मौजूद हैं। उदाहरण के लिए- “कला के लिए जैसे कला- वैसे बात के लिये बातें चल निकली।” “इंजिन फिर से सीं-सीं करने लगा। पर गाड़ी अंगद के पाँव सी अपनी जगह टिकी थी।”[24]

श्रीलाल शुक्ल ने अपने वर्ण्य-विषय को अभिव्यक्त करने के लिए हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत आदि तमाम प्रचलित भाषाओं के शब्दों का सहजतापूर्वक प्रयोग किया है। उन्होंने उपमा एवं उपमानों का प्रयोग व्यंग्यार्थ के लिए किया है। विवरणात्मक शैली में रचित यह निबंध-रचना वर्ण्य-विषय एवं भाषा-प्रयुक्ति की दृष्टि से न केवल श्रीलाल शुक्ल की बल्कि सम्पूर्ण हिन्दी व्यंग्य-निबंध साहित्य की एक विशिष्ट उपलब्धि है।

संदर्भ सूची :-

  1. श्रीलाल शुक्ल; मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1979, पृष्ठ संख्या-08
  2. रघुवीर सहाय; यहाँ से देखो; श्रीलाल शुक्ल-परिचय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1975, पृष्ठ-02
  3. श्रीलाल शुक्ल; यह मेरा घर नहीं, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1979, पृष्ठ -122
  4. श्रीलाल शुक्ल; उमराव नगर में कुछ दिन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1986,पृष्ठ -20
  5. श्रीलाल शुक्ल; मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली ,प्रथम संस्करण 1979, पृष्ठ संख्या-24
  6. श्रीलाल शुक्ल; यहाँ से वहाँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1969, पृष्ठ संख्या-101
  7. श्रीलाल शुक्ल; यहाँ से वहाँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1969, पृष्ठ संख्या-55
  8. श्रीलाल शुक्ल; यहाँ से वहाँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1969, पृष्ठ संख्या- 101
  9. श्रीलाल शुक्ल; यहाँ से वहाँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1969, पृष्ठ संख्या- 25
  10. श्रीलाल शुक्ल; मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1979, पृष्ठ संख्या- 25
  11. बालेन्दु शेखर तिवारी; हिन्दी का स्वातंत्र्योत्तर हास्य एवं व्यंग्य,अन्नपूर्णा प्रकाशन, कानपुर, प्रथम संस्करण 1978, पृष्ठ संख्या-217
  12. श्रीलाल शुक्ल; मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1979, पृष्ठ संख्या- 78
  13. श्रीलाल शुक्ल; मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1979, पृष्ठ संख्या- 106
  14. श्रीलाल शुक्ल; अंगद का पांव, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण (पेपरबैक) 2023 पृष्ठ- 86
  15. वही, पृष्ठ- 161
  16. वही, पृष्ठ- 167
  17. वही, पृष्ठ- 161
  18. वही, पृष्ठ- 165
  19. वही, पृष्ठ- 166
  20. वही, पृष्ठ-166
  21. वही, पृष्ठ- 166
  22. वही, पृष्ठ- 165
  23. वही, पृष्ठ- 165
  24. वही, पृष्ठ- 166

सहायक ग्रंथ

1. हिन्दी निबंध और निबंधकार: रामचंद्र तिवारी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 2007

2. बीसवीं सदी: हिन्दी के मानक निबंध: संपादन: राहुल सांकृत्यायन, भावना प्रकाशन, दिल्ली, 2004

3. स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी व्यंग्य निबंध: शशि मिश्र, संकल्प प्रकाशन, बंबई, 1992

4. स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी व्यंग्य निबंध: बापूराव देसाई, किताब घर प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008

5. स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी-गद्य में व्यंग्य: हरिशंकर दूबे, विकास प्रकाशन, कानपुर, 1997

6. स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी व्यंग्य का मूल्यांकन: सुरेश माहेश्वरी, विकास प्रकाशन, कानपुर, 1994


[1] श्रीलाल शुक्ल; मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1979, पृष्ठ संख्या-08

[2] रघुवीर सहाय; यहाँ से देखो; श्रीलाल शुक्ल-परिचय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1975 पृष्ठ-02

[3] श्रीलाल शुक्ल; यह मेरा घर नहीं, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1979,पृष्ठ -122

[4] श्रीलाल शुक्ल; उमराव नगर में कुछ दिन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1986, पृष्ठ -20

[5] श्रीलाल शुक्ल; मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1979, पृष्ठ संख्या-24

[6] श्रीलाल शुक्ल; यहाँ से वहाँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1969, पृष्ठ संख्या-101

[7] श्रीलाल शुक्ल; यहाँ से वहाँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1969, पृष्ठ संख्या-55

[8] श्रीलाल शुक्ल; यहाँ से वहाँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1969, पृष्ठ संख्या-101

[9] श्रीलाल शुक्ल; यहाँ से वहाँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1969, पृष्ठ संख्या-25

[10] श्रीलाल शुक्ल; मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1979, पृष्ठ संख्या-25

[11] बालेन्दु शेखर तिवारी; हिन्दी का स्वातंत्र्योत्तर हास्य एवं व्यंग्य, अन्नपूर्णा प्रकाशन, कानपुर, प्रथम संस्करण 1978, पृष्ठ संख्या-217

[12] श्रीलाल शुक्ल; मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1979, पृष्ठ संख्या-78

[13] श्रीलाल शुक्ल; मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1979, पृष्ठ संख्या-106

[14] श्रीलाल शुक्ल; अंगद का पांव, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण (पेपरबैक) 2023 पृष्ठ- 86

[15] श्रीलाल शुक्ल; अंगद का पांव, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण (पेपरबैक) 2023 पृष्ठ-161

[16] श्रीलाल शुक्ल; अंगद का पांव, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण (पेपरबैक) 2023 पृष्ठ-167

[17] श्रीलाल शुक्ल; अंगद का पांव, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण (पेपरबैक) 2023 पृष्ठ-161

[18] श्रीलाल शुक्ल; अंगद का पांव, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण (पेपरबैक) 2023 पृष्ठ-165

[19] श्रीलाल शुक्ल; अंगद का पांव, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण (पेपरबैक) 2023 पृष्ठ-166

[20] श्रीलाल शुक्ल; अंगद का पांव, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण (पेपरबैक) 2023 पृष्ठ-166

[21] श्रीलाल शुक्ल; अंगद का पांव, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण (पेपरबैक) 2023 पृष्ठ-166

[22] श्रीलाल शुक्ल; अंगद का पांव, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण (पेपरबैक) 2023 पृष्ठ-165

[23] श्रीलाल शुक्ल; अंगद का पांव, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण (पेपरबैक) 2023 पृष्ठ-165

[24] श्रीलाल शुक्ल; अंगद का पांव, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण (पेपरबैक) 2023 पृष्ठ-166

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