पंडित दीनानाथ मंगेशकर की अंतिम यात्रा : जब संगीत मौन हो गया

– प्रस्तुति- विजय नगरकर

अप्रैल की तपती दोपहर थी। सड़कें सुनसान थीं, जैसे खुद शहर ने भी मौन धारण कर लिया हो। कोई फूल नहीं, कोई जयजयकार नहीं, कोई भीड़ नहीं। यह कोई साधारण व्यक्ति की अंतिम यात्रा नहीं थी, यह गानपुरुष दीनानाथ मंगेशकर की अंतिम विदाई थी—लेकिन जैसे कोई भूले-बिसरे का हो।

पुणे की गलियों में, एक हाथगाड़ी पर रखे पार्थिव शरीर के साथ केवल दो व्यक्ति थे—शिष्य श्रीपाद जोशी और नौकर राजा। उनके साथ पीछे-पीछे चल रहे थे उनका नन्हा, बीमार बेटा हृदयनाथ।

घर में इस यात्रा की शुरुआत भी भावनात्मक उलझनों से हुई थी। जब लता मंगेशकर ने बाबा का पार्थिव शरीर देखा, तो एक पल को उन्हें भ्रम हुआ कि बाबा ठीक होकर घर लौट आए हैं। पर जब श्रीपाद जोशी ने सच्चाई बताई, तो लता ने खुद को संभाला। वह जान चुकी थीं—अब यही पांचों बच्चों की बड़ी बहन नहीं, जिम्मेदार संरक्षक हैं।

दुख की उस घड़ी में माई ने जिम्मेदारी संभाली, सोचा कि पति के शिष्य, साथी, मित्र, संगीत के चाहनेवाले—सब आएंगे। इंतज़ार होता रहा—चार बजा, साढ़े चार हुए, पर कोई नहीं आया। सब अपने-अपने कामों में व्यस्त थे। शायद उन्हें याद नहीं रहा कि एक पार्थिव शरीर को उठाने चार कंधों की जरूरत होती है।

शाम होते-होते तय हुआ—श्मशान तक हाथगाड़ी जाएगी। उसमें दीनानाथ जी की प्रिय सतरंजी बिछाई गई, फूलों से उनका पार्थिव शरीर ढंका गया। इस अंतिम यात्रा में कोई जयजयकार नहीं थी, कोई संगीत नहीं, बस तपती धूप और तीन थके हुए लोग—जोशी, राजा, और छोटा हृदयनाथ।

श्मशान पहुंचे तो वहां भी अपमान की दीवार खड़ी थी। भटजी ने पहचान, जाति, प्रमाणपत्र मांगा—जैसे एक ब्राह्मण का अंतिम संस्कार करने से पहले भी ‘प्रमाण’ जरूरी हो। जब बताया गया कि मृतक कऱ्हाडे ब्राह्मण हैं, तब भी कहा गया—प्रमाण लाओ, नहीं तो ‘यहाँ नहीं होगा।’ अंततः ‘वैकुंठ’ श्मशान का रुख किया गया। वहीं संगीतसम्राट को अंतिम शांति मिली।

यह प्रसंग केवल एक व्यक्ति की मृत्यु नहीं है, यह उस समय की निर्ममता, सामाजिक पाखंड और मानवीय संवेदनहीनता का चित्र है। यह बताता है कि समाज कब और कैसे भूल जाता है, कि जो स्वर हमारी आत्मा को छूते हैं, उन्हें विदा देने भी कोई नहीं आता।

यह लता दीदी का पहला बड़ा जीवन-पाठ था: भ्रम, दुख, जिम्मेदारी, और अकेलेपन का। लेकिन इसी अकेलेपन से वह लता बनीं—सदी की आवाज़।

शब्द मौन हो सकते हैं, लेकिन स्मृति गूंजती रहती है।

हृदयनाथ मंगेशकर ने अपने पिताजी की अंतिम यात्रा के बारे में मराठी लेख लिखा है।यह लेख मराठी दैनिक सकाळ में प्रकाशित हुआ है।

लेख के अंत में लिखते है कि उन्हें संत ज्ञानेश्वर की पंक्ति याद आयी।

“जें खळांची व्यंकटी सांडो ।

तया सत्कर्मी– रती वाढो ।

भूतां परस्परे पडो ।

मैत्र जीवाचें ॥”

(दुष्टों की दुर्भावना का अंत हो,

सत्कर्म के प्रति दुष्टों की आस्था बढ़े

विश्व में मित्र भाव प्रवाहित होकर

सभी जीवों में मित्रता बढ़े)

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