दाढ़ी

– रवि ऋषि 

मेरी जो गिनी चुनी आदतें मेरी पत्नी को पसंद हैं, उनमे मेरी बढ़ी हुई दाढ़ी नहीँ है। और सफेद दाढ़ी तो बिलकुल  नहीँ। जबकि हमें दाढ़ी रखने का शौक तब से है जब हमारी मसे भी नहीँ फूटी थीं। अब पिछले दिनो जब पत्नी मायके गयी तो हमें अपना ये शौक पूरा करने का सुअवसर मिल गया। उधर दाढ़ी बढ़ी जाती थी और इधर हम ऐसे खुश थे जैसे कोई माँ बेटे को जवान होते देखकर होती है। दिन मे न जाने कितनी बार आईना देखते और अपनी लहलहाती फसल देख कर यूँ इतराते जैसे कोई किसान अपने खेतों को देखकर इतराता हैं। आईने में कभी अपना चेहरा गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिलता लगता तो कभी वात्सायन जी से। मन कहता विश्व के अधिकांश महापुरुष दाढी वाले ही हुये हैं। अचानक ओसामा बिन लादेन का ध्यान आया तो हमने जल्दी से अपना मुँह मोड़ लिया। लेकिन चाँदनी तो आखिर चार दिन की होती है। फ़िर ये चाँदनी जैसी दाढी …..

ज्यों ज्यों पत्नी के मायके से लौटने का दिन करीब आता जाता था त्यों त्यों दिल बैठा जाता था। दिन मे कई बार आईने के सामने खड़े होकर दाढी को ऐसे सहलाते जैसे कोई बकरा कसाई को बेचने से पहले उसे आखरी बार प्यार करता है!! पत्नी को कैसे समझाते कि जब सिर पर बाल कम हो जायें तो भरी पूरी दाढी देखकर किस प्रकार की सुखद अनुभूति होती है! जब किसान का एक खेत बंजर हो जाये तो जिस खेत मे अच्छी फसल हो उसकी नज़रें वहाँ से एक पल को नहीँ हटती।

फ़िर अचानक एक तरकीब सूझी। क्यों न दाढी को रंगवा डालें। कुछ जवान दिखेंगे तो शायद पत्नी भी फिदा हो जाये। सो आनन फानन मे चेहरे पर चाँदनी की जगह अमावस्या ने ले ली। पहले तो खुद को बहुत अजीब लगा लेकिन और कोई चारा न था।

पत्नी देर रात गये मायके से लौटी तो सोने का नाटक करके पड़े रहे। सुबह किसी अनिष्ट की आशंका से जल्दी जल्दी ऑफिस के लिये निकलने लगे तो दरवाज़े पर पड़ोसन खड़ी पत्नी द्वारा सुनायें जा रहे मायके के मुख्य समाचार सुन रही थी। हमारी ओर  कनखियों से देखकर एक व्यंग्य भरी मुस्कान सहित बोली,

“आजकल तो भाई साहब बिलकुल पहचाने नहीँ जाते!!”

पत्नी ने एक  वितृष्णा भरी नज़र हम पर डाली।

“मैं तो मायके गयी थी बहिनजी। पीछे से पता नहीँ ये कब कहाँ से मुँह काला करवा आये!

पत्नी ने भोलेपन से कहा।।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »