
अंग्रेजी माध्यम : दोषी कौन
– डॉ. अशोक बत्रा, गुरुग्राम
निसंदेह नन्हे-नन्हे बच्चों से नन्हीं-सी आयु में अपनी भाषा छुड़वाकर किसी विदेशी भाषा में पढ़वाना डायलिसिस जैसा कष्टकारी है। भाषांतरण की वेदना सहना बच्चे की विवशता है। वह असहाय है। क्या करे? इस यातना से उबरने का कोई उपाय उसके पास नहीं है। माँ उसे सिखाने के चक्कर में खुद हास्यास्पद बनी हुई है। जिस खीरे को 30 साल तक वह खीरा कह कर खाती रही, उसी को वह कुकुंबर कहकर परेशान है। चलो, वह तो उसका बलिदान कहलाएगा। बच्चों के लिए माँ कुछ-भी करने-भुगतने को तैयार रहती है। वह नहीं चाहती कि उसका बेटा हीनता-ग्रंथि के बोझ तले दबे। किंतु करे क्या? जब सामने फर्राटे-सी अंग्रेजी बोलने वाले बच्चे शाबाशी पा रहे हों, वे स्कूल-भर की शान बने हुए हों, तो माँ क्यों न सिखाए अपने भी बच्चे को अंग्रेजी?
परन्तु याद रहे, वह माँ स्वभाषा या स्वदेश-विरोधी नहीं है। वह तुम्हारे बिछाए जाल में फँसी बसंती है, जिसे ऐसों-ऐसों के सामने नाचना पड़ रहा है। कसूरवार है वह गिरोह, वह गब्बर, जिसने उठाईगिरी का जाल फैला रखा है। आप पूछ रहे हैं, बसंती का कसूर नहीं है जो गब्बर के डेरे में नाच रही है? अरे कायरो! गब्बर के आतंक के सामने तुम्हारी बोलती बंद है; और तुम कसूर ठहरा रहे हो बसंती का? अरे, वह विवश की गई है।
असली कसूरवार है वह सर्जन
जिसे चाहे-अनचाहे
रोज एक ऑपरेशन करना है।
अपना घर डायलिसिस वालों से भरना है
ताकि डायलिसिस मशीन खाली न रहे।
वह चलती रहे।
उसके स्वर्णमहल को
सोने की ईंटों से भरती रहे।
उसके पास जगमगाहट है
चमचमाहट है।
अच्छी नौकरियाँ हैं
कैरियर हैं, सब दिखावे हैं
मुँह खोलने वालों के लिए
बेशुमार चढ़ावे हैं।
बताओ!
जिस गब्बर को मैं देख रहा हूँ
क्या उसके विरुद्ध कुछ न बोलूँ
सिर्फ बसंती पर बोलूँ!
जो असली जालसाज है
उस पर न बोलूँ!
जाल में फँसने वाली
मछलियों पर बोलूँ!
जो असली भेड़िया है
उसे छोड़ दूँ
अपना तीर बेचारी भेड़ों पर छोड़ दूँ!
पर इतना तो बताओ!
50 साल पहले
क्या मातृभाषा के स्कूल नहीं थे?
क्या हिंदी में पढ़ाने पर
बच्चे 2 और 2 तीन पढ़ते थे?
क्या हिंदी में बने वृत्त गोल नहीं होते थे?
क्या हमारे तुलसी
शेक्सपियर के सामने बौने थे?
क्या संस्कृत पढ़कर आर्यभट्ट पैदा नहीं होते थे?
क्या उस शिक्षा में पढ़े
हमारे डॉक्टरों-वैज्ञानिकों ने
विकास की राह नहीं खोली?
क्या नासा में
भारतीय भाषा वालों ने
धमक नहीं छोड़ी?
मातृभाषा को अक्षम समझने वालो!
षड्यंत्र के मूल को समझो!
अपनी पत्नी को तज कर
विदेशी मेम
घर लाने वालो!
पहचानो!
यह जाल उन्हीं का फेंका हुआ है।
हमारे राजनेता
उस जाल के अंग हो गए हैं।
शिक्षाविद गुलाम हो गए हैं।
उसे जानो
जिसने हमारी आँखों के सामने-सामने
अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की
नर्सरी खड़ी कर दी।
और हम देखते रहे।
फिर 5 सितारा होटलों – सी
वर्ल्ड स्कूलों की विशालकाय अट्टालिकाएँ
हमारे कंधों पर खड़ी कर दीं।
हम देखते रहे।
चारों ओर जाल बिछा है।
अध्यापक से लेकर
अभिभावक परेशान हैं
मजबूर हैं।
और हम समझ रहे हैं
कि अभिभावकों का कसूर है!
अरे, पकड़ना है
तो असली मुज़रिमों के गिरेबान पकड़ो !
उनकी गर्दन जकड़ो!
पहलगाम के बन्दूकधारियों पर न रुको!
सीमा के पार
शिक्षा जगत के जो हाफ़िज़ हैं
या मैकाले हैं।
चाहे वे गोरे हैं या काले हैं।
उन्हें पस्त करो
उनके नक़्शे ध्वस्त करो!
आतंक की
किराना पहाड़ियों पर वार करो।
बेकार में मच्छर-मार मत करो।
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