
मंच से घर तक
– डॉ सुनीता शर्मा
नेता जी आज मंच पर पूरे जोश में थे।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का शुभ अवसर था, और वे गरज-गरजकर नारी शक्ति की महिमा बखान कर रहे थे।
“नारी सृष्टि की जननी है! उसके बिना यह दुनिया अधूरी है! हमें हर नारी का सम्मान करना चाहिए!”
तालियाँ गूँज उठीं। भीड़ मंत्रमुग्ध थी। कैमरे उनकी हर भाव-भंगिमा को कैद कर रहे थे। नेता जी का चेहरा दमक रहा था, मानो उन्होंने सच में नारी उत्थान का ठेका ले रखा हो।
भाषण खत्म होते ही उन्होंने कुर्ते की जेब से पसीना पोंछा, कार में बैठे और घर की ओर रवाना हुए।
घर पहुँचते ही दरवाज़ा खोलते ही उनकी पत्नी सामने खड़ी मिलीं।
“आज दीया की कक्षा में प्रथम आने की खुशी में सोचा था कि हम सब बाहर डिनर के लिए चलें…”
नेता जी का चेहरा अचानक सभा की रोशनी से निकलकर गृहस्थी के अंधेरे में समा गया। उन्होंने त्योरियाँ चढ़ाईं, जैसे किसी विपक्षी नेता ने संसद में उन पर हमला बोल दिया हो।
“क्या? बाहर खाना? यह घर तुम्हें होटल लगता है? तुम्हें मालूम भी है, मैं कितने बड़े मंच से आ रहा हूँ? कितना महत्वपूर्ण भाषण दिया मैंने!”
पीछे खड़ी दीया सहम गई। लेकिन हिम्मत करके बोली, “पापा, मैं क्लास में फर्स्ट आई हूँ…”
नेता जी का गुस्सा अब चरम पर था।
“पहले तुम पढ़ाई पर ध्यान दो, ये घूमने-फिरने के चक्कर में मत पड़ो! और तुम्हारी माँ तो बस मौज-मस्ती के बहाने ढूँढती रहती हैं!”
पत्नी चुप रहीं। दीया की आँखों में आँसू आ गए।
नेता जी ने कुर्ते की बाँहें ऊपर चढ़ाईं, पैर पटकते हुए भीतर चले गए, चलो सब घर में कोई कहीं नहीं जाएगा..!
“नारी सृष्टि की जननी है… सम्मान की हक़दार है…” उनकी आवाज़ अभी भी मंच पर गूँज रही थी। लेकिन घर में… घर में नारी सिर्फ़ आदेश मानने वाली ही..!
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