
– डॉ सुनीता शर्मा
जन्मोत्सव
रीमा के हाथ काँप उठे जब उसने बेटी दीपिका की वीडियो कॉल उठाई। अस्पताल के सफेद कमरे में, थकी-सी दीपिका की गोद में नन्हा बच्चा मुस्कुरा रहा था।
“माँ, तुम नानी बन गईं!”
रीमा की आँखें छलछला उठीं। पर मुस्कान के पीछे चिंता की झलक छुपी नहीं रह सकी।
“बेटा ठीक है न?”
“हाँ माँ… लेकिन कुछ कॉम्प्लिकेशन हो गए थे… अभी अस्पताल में रखना पड़ेगा।”
कुछ ही दिनों में अस्पताल के बिल लाखों को छूने लगे। दीपिका की डिलीवरी, इलाज, दवाइयाँ—सब कुछ एक व्यापार बन गया था।
“माँ, क्या करें?” बेटी की डूबी हुई आवाज़ रीमा की आत्मा चीर गई।
कुछ महीनों बाद, रीमा दूसरी बेटी जहान्वी के पास ऑस्ट्रेलिया पहुँची, जो माँ बनने वाली थी। वही आशंका, वही डर लेकर। पर यहाँ का दृश्य बिलकुल भिन्न था—सरकारी मिडवाइफ घर आती, मार्गदर्शन देती, देखभाल करती। कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं।
डिलीवरी हुई—धैर्यपूर्वक, सहज, बिना व्यर्थ के परीक्षणों या सर्जरी की सिफारिशों के।
“बधाई हो, बच्चा स्वस्थ है,” डॉक्टर मुस्कराया।
बिल? बस औपचारिकताएं। जन्म के बाद भी मिडवाइफ आती रही, माँ-बच्चे की देखभाल सिखाती रही।
रीमा की आँखों में दो तस्वीरें थीं—
एक भारत की, जहाँ मातृत्व भी मुनाफे की मंशा से तौला जाता है।
दूसरी ऑस्ट्रेलिया की, जहाँ जन्म वास्तव में जन्मोत्सव बनकर आता है।
काश, रीमा सोचती रही… काश भारत में भी कोई माँ इस भय में न जीए कि वह बच्चा जन्म दे रही है… या कोई कर्ज़!
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