दक्षिण कोरिया में “बुद्धं शरणं गच्छामि!”

डॉ. संजय कुमार, दक्षिण कोरिया

बिहार स्थित गया (जिसका नया नामकरण गया जी किया गया है) मेरी पुश्तैनी धरती रही है।

गया बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थल है, क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि यहीं भगवान बुद्ध ने “अग्नि उपदेश” अर्थात “अदित्तपरियाय सूत्र” दिया था—लगभग 1000 किसानों को जो उस समय अग्नि-पूजक थे। बुद्ध के उपदेश का प्रभाव इतना गहरा था कि वे सभी बौद्ध धर्म की ओर मुड़ गए।

मुझे बचपन में अपने नानाजी, माँ-पिताजी और मामाजी से बौद्ध धर्म की प्रारंभिक जानकारी मिली थी। मेरे नानाजी अक्सर कहा करते थे:

“लालच में राजा अशोक ने न जाने कितने युद्ध जीते, लेकिन उन्हें भी कलिंग विजय के बाद यह अहसास हुआ कि विजय ही जीवन का सार नहीं है। इसलिए हर बात में केवल स्वयं को ही विजयी मत मानो, दूसरों की भी बात रख लिया करो।”

पटना के स्कूल में पढ़ते समय मगध, सम्राट अशोक और बौद्ध धर्म से जुड़ी शिक्षाएँ मैंने एनसीईआरटी की पुस्तकों और शिक्षकों से गहराई से सीखी थी। एस. टी. सेवेरिन हाई स्कूल (जहाँ से मैंने प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की) में एक छोटे से नाटक में भाग लिया, जिसमें सम्राट अशोक की यह पंक्ति थी

“हाय! ये मैंने क्या कर डाला? लाखों ज़िंदगी गवाँकर क्या हासिल हुआ मुझे? बस कलिंग विजय का पश्चाताप—मुझे स्वयं पर धिक्कार है।”

स्कूल परीक्षाओं में अक्सर पूछा जाता : 

सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म क्यों अपनाया? उनके पुत्र और पुत्री का नाम क्या था? उन्होंने अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका क्यों भेजा?

कोरिया में भी यह धारणा प्रचलित है कि बौद्ध धर्म में चक्रवर्ती राजा आदर्श सम्राट होता है, जो धर्म के आधार पर शासन करते हुए इस संसार में एक आदर्श राज्य (उत्तम राष्ट्र) की स्थापना करता है। यह अवधारणा कोरिया के तीन साम्राज्यों के काल में बौद्ध धर्म की धार्मिक पवित्रता के अनुरूप राजाओं की सत्ता को वैधता और गौरव प्रदान करने वाली वैचारिक नींव बनी। 

2005 से अब तक, चाहे वह प्रवेश परीक्षा रही हो या शोधकार्य, मेरा ध्यान इस विषय पर रहा है कि बौद्ध धर्म भारत से होकर मध्य एशिया, चीन, कोरिया और जापान तक कैसे पहुँचा। जेएनयू की बी.ए. प्रवेश परीक्षा (2003-2006) में यह प्रश्न आम था कि बौद्ध धर्म और सिल्क रूट किन-किन देशों से होकर गुजरता था। एम.ए. के दौरान बैक्जे राजवंश, बौद्ध भिक्षु ग्यम-इक और है-छो की भारत यात्रा पर अध्ययन किया। साथ ही 2013 में टूर गाइड के रूप में बोधगया और सारनाथ का महत्त्व भी गहराई से समझा।

पीएच.डी. के दौरान मुझे चीन, जापान और ताइपेई जाकर विभिन्न बौद्ध पंथों जैसे वोन बौद्धिज़्म और एस.जी.आई. को देखने और समझने का अवसर मिला।

वर्ष 2017 से पत्रकारिता में आने के बाद, 2018 में कोरिया के जोग्ये ऑर्डर और वर्ष 2022 में ताशकंद स्थित उज्बेकिस्तान राज्य इतिहास संग्रहालय में संग्रहित बौद्ध अवशेषों को देखने का अवसर मिला।

फयाज टेपे (तेर्मेज)से प्राप्त अलाबास्टर बुद्ध की मूर्ति वहाँ का आकर्षण थी—इसके अलावा कई बुद्ध सिर और सजावटी आकृतियाँ भी संरक्षित हैं।

2022 में जब मुझे कज़ाख़स्तान सरकार द्वारा सम्मानित किया गया, तब मेरी बुलात सार्सेनबायेव जी से मुलाकात हुई। विश्व और पारंपरिक धर्मगुरुओं के नेताओं के सातवें सम्मेलन के दौरान पत्रकारों के साथ एक निजी मुलाकात में सार्सेनबायेव जी ने बताया कि पहली शताब्दी की शुरुआत में मध्य एशिया के बड़े भूभाग को एकीकृत करते हुए विशाल कुषाण साम्राज्य की नींव पड़ी, जिसकी सत्ता तत्कालीन उत्तर भारत, आज के पूर्वी तुर्किस्तान और अफगानिस्तान तक फैली। सार्सेनबायेव जी के अनुसार कनिष्क ने स्वयं बौद्ध धर्म को अपनाया और स्तूपों, विहारों व मंदिरों का निर्माण कराते हुए धर्म प्रचार को प्रोत्साहित किया, जिससे बौद्ध धर्म का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विस्तार हुआ।

2024 में संयुक्त राष्ट्र के वॉटर कॉन्फ्रेंस सिलसिले में ताजिकिस्तान यात्रा के दौरान दुशांबे के एक स्थानीय विद्वान ने मुझे बताया कि वहाँ अजिना टेपा नामक एक महत्त्वपूर्ण बौद्ध स्थल है। समय की कमी के कारण मैं अजिना टेपा नहीं जा सका, लेकिन उन्होंने बताया कि वहीं पर मध्य एशिया की सबसे बड़ी लेटे हुए बुद्ध की प्रतिमा मिली थी, जिसे अब दुशांबे संग्रहालय में संरक्षित किया गया है।

 पिछले वर्ष तेलंगाना के मुख्यमंत्री जी के साथ एक साक्षात्कार के दौरान बौद्ध दर्शन के और भी आयाम खुले। उन्होंने बताया कि कोरियाई लोगों का तेलंगाना से सांस्कृतिक बौद्ध संबंध है।

मुख्यमंत्री जी ने नेलकोंडापल्ली, धूलिकट्टा, फणिगिरी और कोलनपाक जैसे स्थलों का उल्लेख किया, जो बौद्ध धर्म के प्रसार में महत्त्वपूर्ण रहे हैं। उन्होंने बताया कि नागार्जुन सागर स्थित  “बुद्ध वनम”—एक थीम पार्क है जो महायान बौद्ध धर्म को समर्पित है। तेलंगाना पहली शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर चौथी शताब्दी ईस्वी तक बौद्ध धर्म का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र रहा, जो श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व एशिया में बौद्ध धर्म के प्रसार में एक सेतु बना।

 बौद्ध दर्शन और संस्कृति की जड़ें केवल नैतिक उपदेश या मोक्ष की साधना नहीं हैं—बल्कि यह एक जीवंत जीवनदृष्टि है, जो प्रकृति के साथ संतुलन सिखाती है। कोरिया में स्थित शांत बौद्ध मंदिर इसी समरसता के साक्ष्य हैं। जिस प्रकार मातृभाषा हिंदी हमें आपस में जोड़ती है, उसी प्रकार बुद्ध का संदेश हमें भारत की जड़ों से जोड़ता है।

तेज़ जीवन की भागदौड़ में विश्राम कठिन होता है, लेकिन यदि मन शांति की ओर न जाए, तो यह शरीर के साथ अन्याय होगा। इसी सोच के साथ मैं गांगवनदो प्रांत के होंगछन स्थित बैंगनाक-सा मंदिर, जल्लादो प्रान्त के सनउन-सा मंदिर, दोसोलआम और नैसो-सा जैसे बौद्ध स्थलों की यात्रा कर रहा हूँ। हर यात्रा में बुद्ध की वाणी और उनकी भूमि से मेरा संबंध और गहरा होता जा रहा है।

बैंगनाक-सा में मेरी भेंट एक बौद्ध भिक्षु से हुई, जो भारत के बारे में अत्यंत जिज्ञासु थे।

उनके जीवन और कार्यशैली के बारे में मैं अपने अगले लेख में वैश्विक हिंदी परिवार  के साथ साझा करूँगा।

कोरिया के गंगवन प्रांत के होंगछन स्थित बैंगनाक-सा मंदिर से वैश्विक हिंदी परिवार को शुभकामनाएँ।
दक्षिण कोरिया के बैंगनाक-सा मंदिर में कोरियाई बौद्ध भिक्षु (बीच में) और श्रीलंका से आए एक बौद्ध भिक्षु (दाएँ) के साथ ली गई तस्वीर – 18 मई, 2025 की सुबह 6 बजे।
बैंगनाक-सा मंदिर के सामने वाली सड़क पर गांगवन नेशनल यूनिवर्सिटी के दर्शनशास्त्र विभाग के प्रोफेसर यू सुंग-सन और गंगवन प्रांत के पूर्व उप-राज्यपाल छ्वे ह्यंग-जिप के साथ।

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