
दक्षिण, मध्य और पूर्व एशिया में हिंदी शिक्षण: समस्याएँ और सुझाव
डॉ. ज्ञान प्रकाश
विजिटिंग प्रोफेसर, हांगुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फॉरेन स्टडीज़ (HUFS),सिओल, दक्षिण कोरिया
‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना से संचालित भारत का अन्य देशों के साथ संबंध न केवल मधुर रहा है बल्कि पुरातन भी है। अन्य देशों के साथ भारत के संबंध को दो अलग-अलग कालखंडों में रखकर देखा जाना चाहिए। पहला कालखंड आजादी पूर्व से लेकर 1990 ईस्वी तक का और दूसरा 1990 के बाद से आजतक! नब्बे के दशक के पूर्व भारत का अन्य देशों के साथ सामरिक, राजनीतिक और साँस्कृतिक संबंध रहा परंतु नब्बे के दशक के बाद उदारीकरण के बाद वैश्वीकृत व्यवस्था में संबंधों के केन्द्र में द्विपक्षीय व्यापार, पूंजी निवेश, नवीन तकनीक,विनिर्माण आदि क्षेत्र शामिल हुए। दोनों कालखंडों में भारत अपने ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की नीति पर कायम रहा और आज भी उसी एक “पृथ्वी:एक परिवार”(1) की संकल्पना के साथ अग्रसर है।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि यूरोपीय और अमेरिकी देशों के साथ भारत का सम्बन्ध मुख्यतः व्यापारिक सहयोग और संयुक्त राष्ट्र संघ की संधियों, कन्वेंशन आदि से संबद्ध रहा है जबकि दक्षिण, मध्य और पूर्व एशिया के देशों के साथ भारत का संबंध न केवल व्यापारिक और सामरिक स्तर का है बल्कि यह सांस्कृतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक भी है। भौगोलिक स्थिति और स्वाभाविक पड़ोसी देशों के रूप में इन देशों के बीच परम्परागत मैत्रीपूर्ण संबंध रहा है और इसे बनाए रखने की जरूरत है।
वैश्वीकृत बाजार व्यवस्था में भारत आज तेजी से उभर रहा है और दुनिया के शीर्ष पाँच अर्थव्यवस्थाओं में अपनी जगह बना चुका है। विकास की इस गति को कायम रखने के लिए दक्षिण, मध्य और पूर्व एशिया के देशों के साथ गहन साझेदारी की आवश्यकता है। भारत अभी निवेश, अधिसंरचना निर्माण और तकनीकी विकास के दौर से गुजर रहा है जिसके लिए चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, मलेशिया, कम्बोडिया, मंगोलिया, रुस, थाइलैंड, वियतनाम आदि देशों के साथ मजबूत संबंध की जरूरत है। इन संबंधों को बढ़ाने, कायम रखने और मजबूत करने के लिए जो एक मुख्य औजार है, वह है-भाषा! और भाषा के तौर पर ‘हिंदी’ एशिया महाद्वीप में एक मजबूत विकल्प है। इस दृष्टि से इन देशों में हिंदी शिक्षण का अपना खास महत्त्व है।
हिंदी शिक्षण का महत्त्व:
वैश्वीकृत समकालीन संदर्भ में ‘भाषा’ पारस्परिक संबंधों की महत्त्वपूर्ण कड़ी है। व्यापार, तकनीक, धर्म, संस्कृति, राजनीति, कूटनीति जैसे द्विपक्षीय संबंधों के अनेक आयामों पर ‘भाषा’ ही मैत्री सूत्र का काम करती रही है। भारत के द्विपक्षीय संबंधों की मजबूत कड़ी निश्चित रूप से हिंदी है। संचार माध्यमों की तीव्र उन्नति के कारण अब देश और दुनिया की दूरी खत्म हो गई है, विभिन्न संस्कृतियों का आपस में सम्मिलन हो रहा है, लोग रोजगार, शिक्षा, व्यापार आदि के लिए देश की सीमाएँ लांघ रहे हैं, स्थानीयता के भाव में कमी और वैश्वीकरण की स्थितियाँ निरंतर विस्तार पा रहीं हैं। प्रसिद्ध भाषा चिंतक रामविलास शर्मा के अनुसार “भाषा संस्कृति के निर्माण में सहायक होती है, भाषा द्वारा हम अपनी संस्कृति व्यक्त करते हैं, भाषा स्वयं संस्कृति का अंग है।”(2) इस रूप में भारतीय संस्कृति का प्रकटीकरण अगर किसी एक भाषा में सम्भव है तो वह है- हिंदी! इन परिस्थितियों में अन्य भाषा-शिक्षण के रूप में हिंदी भाषा के अध्ययन-अध्यापन की महत्ता स्वतः सिद्ध है।
हाल के वर्षों में ‘विश्वभाषा’ की परिकल्पना बड़ी तेजी से उभरी है और यह माना जा रहा है कि निकट भविष्य में दस से पंद्रह भाषाएँ ही प्रचलन में रह जाएँगी! ‘विश्वभाषा’ से यह अपेक्षा की जाती है कि उसे बोलने, समझने और जानने वालों का विस्तृत भौगोलिक विस्तार हो, इस दृष्टि से हिंदी का भौगोलिक विस्तार निस्संदेह व्यापक है। भारत के बाहर नेपाल, भूटान, श्रीलंका, पाकिस्तान, सिंगापुर, थाइलैंड, इंडोनेशिया, मलेशिया, हांगकांग, मॉरिशस, फिजी, त्रिनिदाद, गुयाना, सूरीनाम, कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड, जापान, दक्षिण कोरिया, वियतनाम, आदि देशों में हिंदी भाषी लोगों की संख्या लगातार बढ़ी है। ‘विश्वभाषा’ होने की दूसरी शर्त है उस भाषा के अंतर्गत व्याप्त लचीलापन, उसमें भिन्न संदर्भों की अभिव्यक्ति की क्षमता हो, उसका एक सर्वस्वीकृत मानक रूप हो तथा परस्पर संप्रेषण क्षमता हो,इन कसौटियों पर भी हिंदी ‘विश्वभाषा’ बनने की योग्यता रखती है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देशों के बीच के संबंध का आधार आर्थिक गतिविधियों से परिभाषित है। वैश्वीकरण के बाद संपूर्ण विश्व एक बाजार व्यवस्था में परिवर्तित हो चुका है। भारत, आज की विश्व बाजार व्यवस्था में एक बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में तेजी से बढ़ रहा है। साथ ही साथ अपनी विशाल जनसंख्या के कारण वह अन्य देशों के लिए एक बड़ा ‘बाजार’ है। अगर किसी देश को इस भारतीय बाजार में प्रवेश करना है तो उसे उस बाजार की भाषा से परिचित होना होगा, और बाजार की भाषा है- ‘ हिंदी’! इस दृष्टि से भी अन्य देशों में हिंदी शिक्षण का महत्त्व बढ़ जाता है।
आज़ादी के उपरांत भारत ने इन पचहत्तर वर्षों में विश्व मानचित्र पर एक शक्तिशाली और विकासशील राष्ट्र के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। जब भारत गुलाम था तब इस देश का विदेशों से संबंध यहाँ के विजेता-शासकों की भाषा में होता था। स्वतंत्र भारत में कई वर्षों तक इंग्लैंड और अमेरिका जैसे देशों से अंग्रेज़ी में कार्य-व्यापार चलता रहा, जो तत्कालीन रूप से स्वाभाविक ही था परंतु यदि हम ऐसे देशों से भी, जिनकी भाषा अंग्रेज़ी नहीं है, अंग्रेज़ी में ही कार्य-व्यापार करें तो यह संभव है कि उनके आत्माभिमान को ठेस लगे। यह एक स्वतंत्र राष्ट्र के लिए स्वयं भी चिंताजनक स्थिति है। उन देशों को भारत से यह अपेक्षा रखना उचित ही है कि हम उनसे या तो उनकी भाषा में बात करें या अपनी भाषा हिंदी का प्रयोग करें। ऐसा तभी संभव है जब परस्पर भाषा-शिक्षण की उन्नत व्यवस्था बने! कूटनीतिक एवं सामरिक संबंधों के लिहाज से भी ‘हिंदी’ के साथ- साथ अन्य विदेशी भाषाओं के शिक्षण की जरूरत है। इस विशेष संदर्भ में भाषा-वैज्ञानिक डॉ. महावीर सरन जैन ने लिखा है कि “यह एक सर्वमान्य सत्य है कि दूसरे देश की जनता की भावनाओं से परिचित होने के लिए, उनके अत्यधिक निकट आने के लिए, उस राष्ट्र की कूटनीतियों को स्पष्ट रूप से समझने के लिए पर-राष्ट्र में कम से कम राजदूत एवं दूतावास का प्रत्येक कर्मचारी उस देश की राजभाषा से पूर्णतया परिचित हो।”(3)
आज संसार के लगभग सौ देशों में हिंदी का प्रयोग हो रहा है। यह विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा के रूप में प्रतिष्ठित है और विश्व के कम से कम तीस देशों में हिंदी शिक्षण का कार्य हो रहा है।
1990 के उदारीकरण के बाद अमेरिकी और अन्य पश्चिमी देशों की तुलना में दक्षिण, मध्य और पूर्व एशियाई देशों के साथ भारत के व्यापारिक और सामरिक संबंधों में बढ़ोतरी हुई है। भौगोलिक स्थिति और सांस्कृतिक समानता के आधार पर भी इन एशियाई देशों के साथ भारत का स्वाभाविक सहभागिता का सम्बन्ध बेहद महत्त्वपूर्ण है। प्राकृतिक निकटता के साथ-साथ इन देशों में हुई तकनीकी विकास, संसाधन-पर्याप्तता आदि कारणों से भारत और इनके बीच के संबंधों में लगातार मजबूती आई है। चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, मलेशिया, कम्बोडिया, मंगोलिया, रुस, थाइलैंड, वियतनाम, मलेशिया, हांगकांग, ताजिकिस्तान, आदि देशों के साथ 1990 के बाद व्यापारिक और सामरिक संबंधों में आश्चर्यजनक बढ़ोतरी हुई है और बड़ी मात्रा में इन देशों से पूँजी निवेश हुआ है, ऐसे हालात में इन देशों में हिंदी शिक्षण के प्रति उत्साह में भी बढ़ोतरी हुई है। इन देशों में हिंदी अपने अनेक रूपों में, विभिन्न कारणों और भिन्न-भिन्न उद्देश्यों के साथ मौजूद है।
दक्षिण, मध्य और पूर्व एशियाई देशों में व्यापार, सुरक्षा, तकनीक, विनिर्माण, सामरिक सहभागिता, धर्म और संस्कृति जैसे द्विपक्षीय संबंधों के अनेक आयामों के लिए हिंदी भाषा एक आवश्यक और मज़बूत कड़ी के रूप में विद्यमान है। 90 के बाद व्यापारिक सहभागिता में आए तीव्र विकास के कारण भारतीय उद्योग प्रबंधन, भारतीय समाज और भारतीय बाजार व्यवस्था को बेहतर तरीके से समझने के लिए इन देशों में हिंदी-शिक्षण का लगातार बढ़ता गया है। जापान, दक्षिण कोरिया, चीन, वियतनाम, मलेशिया, इंडोनेशिया, सिंगापुर आदि इस लिहाज से अग्रणी राष्ट्र हैं जहाँ गहन हिंदी शिक्षण की सुदृढ़ व्यवस्था है। इन देशों से प्रत्येक वर्ष बड़ी संख्या में छात्र भारत आकर हिंदी सीख रहे हैं और साथ ही साथ इन देशों के विश्वविद्यालयों में हिंदी शिक्षण की बेहतर व्यवस्था मौजूद है। HUFS, TUFS, आदि विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग अपने स्तर पर हिंदी शिक्षण के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।
हिंदी शिक्षण: समस्याएँ
समकालीन संदर्भ में भाषा सीखते या सिखाते समय शिक्षण के केन्द्र में उच्चतर-मूल्य परक उद्देश्यों की जगह तात्कालिक और योजनाबद्ध लक्ष्यों की प्राप्ति ने ले ली है। आज जिस तरह दुनिया भर में अनेक कारणों से हिंदी सीखने-सिखाने की माँग बढ़ी है, उससे इस भाषा को देखने-परखने की दृष्टि में व्यापक बदलाव आया है। भाषा-शिक्षण के सरोकारों में हिंदी की माँग का एक बड़ा कारण विश्व बाजार-व्यवस्था में भारत की उभरती हुई पहचान है। आज विश्व स्तर पर दो दर्जन से अधिक देशों में हिंदी शिक्षण विधिवत रूप से वहाँ के विश्वविद्यालयों में हो रहा है। इनमें से तकरीबन एक दर्जन से अधिक केन्द्र दक्षिण, मध्य और पूर्व एशियाई देशों में हैं।
कक्षा में सिखाई जानेवाली किसी नई भाषा को ‘द्वितीय भाषा’ या ‘विदेशी भाषा’ की संज्ञा दी जाती है। द्वितीय भाषा उसे कहते हैं जिसे छात्र घर पर तो नहीं बोलता,पर जो उसके परिवेश में पर्याप्त मात्रा में सुनने को मिलता है जैसे- भारतीय छात्रों के लिए ‘अँग्रेजी’, अथवा अहिंदीभाषी राज्यों के छात्रों के लिए ‘हिंदी’।
‘विदेशी भाषा’ उसे कहते हैं, जिसे सुनने का अवसर छात्र को कक्षा के बाहर लगभग नहीं मिलता है। इस तरह दक्षिण, मध्य और पूर्व एशियाई देशों के लिए हिंदी शिक्षण का अर्थ विदेशी भाषा के रूप में हिंदी-शिक्षण है, जहाँ छात्र क्लास के बाहर हिंदी नहीं सुनते। विदेशी भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण एक कठिन कार्य है जिसके लिए अतिरिक्त दक्षता की माँग होती है। बावजूद इसके लगभग 50 वर्षों से इन देशों में हिंदी शिक्षण का कार्य लगातार चल रहा है जो अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है। इस दौरान भाषा शिक्षण की प्रक्रिया और स्वरूप में बराबर बदलाव होते रहे हैं। इस संदर्भ में वैश्ना नारंग ने लिखा है कि “उन्नीसवीं शताब्दी में भाषा के नाम पर भाषा का व्याकरण, भाषा के बारे में पढ़ाया जाता था जिसमें व्याकरण में लिखे नियमों एवं शुद्ध रूप पर अत्यधिक बल दिया जाता था।……भाषा कौशल में सबसे अधिक महत्त्व लिखने-पढ़ने को देने के कारण भाषा के उच्चारण-वाचन पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था, जबकि आज हम जानते हैं कि लेखन गौण है और भाषा का व्यवहारिक पक्ष, उचित संदर्भों में भाषा का प्रयोग, अर्थात मौखिक रूप ही प्रमुख है।”(4) आज यह स्पष्ट है कि ‘भाषा के बारे में सीखना’ और ‘भाषा को सीखना’ दो अलग-अलग चीजें हैं इसलिए भाषा शिक्षण का अर्थ व्याकरण-शिक्षण नहीं है और किसी भी भाषा के शब्दों और वाक्य-संरचना का ज्ञान प्राप्त लेने से यह जरूरी नहीं कि विद्यार्थी को भाषा का प्रयोग भी आ जाए! इस परिप्रेक्ष्य में हिंदी शिक्षण की प्रक्रिया में निरंतर विकास होता आया है। विदेशी भाषा के रूप में दक्षिण, मध्य और पूर्व एशियाई देशों में हिंदी शिक्षण की अपनी समस्याएँ हैं जिन्हें निम्नांकित बिंदुओं में देखा जा सकता है:-
- शिक्षण माध्यम की भाषा/सम्पर्क भाषा का चुनाव
विदेशी छात्रों को हिंदी सिखाते समय सम्पर्क/माध्यम भाषा के रूप में किस भाषा का प्रयोग कक्षा में करें-यह अध्यापन स्तर पर पहली समस्या है। पश्चिमी देशों में निश्चित रूप से ‘अंग्रेजी’ सम्पर्क भाषा के रूप में प्रयोग की जा सकती है, क्योंकि हिंदी अध्यापक और वहाँ के छात्रों के लिए ‘अंग्रेजी’ सहज सम्पर्क की भाषा है। छात्र और अध्यापक दोनों के पास एक संपर्क भाषा के रूप में वहाँ मौजूद है परंतु दक्षिण, मध्य और पूर्व एशियाई देशों में अधिकांश स्थानों पर अंग्रेजी द्वितीयक भाषा के रूप में स्थापित नहीं है (यह एक राष्ट्र के रूप में बेहद अच्छी बात है कि वे अपनी भाषा में अध्ययन-अध्यापन कार्य करे), वहाँ यह समस्या खड़ी होती है कि छात्रों से किस भाषा में सम्पर्क किया जाए? इन देशों में छात्रों का एक बड़ा वर्ग अंग्रेजी जानता है परंतु अपनी प्रथम भाषा (Native language) में जितनी तेजी से वह हिंदी शब्दों का साम्य अर्थ ग्रहण कर सकता है वह अन्य भाषा में नहीं! कई बार हिंदी अध्यापक भी अंग्रेजी में निपुण नहीं होते तब यह समस्या और गम्भीर हो जाती है। संपर्क भाषा का चुनाव, इस रूप में एक बड़ी समस्या है।
- पाठ्यक्रम की भिन्नता
अलग-अलग देशों में हिंदी शिक्षण का उद्देश्य और लक्ष्य अलग हैं, इसलिए यह स्वाभाविक है कि हर शिक्षण संस्थान अपने स्तर पर पाठ्यक्रम विकसित करें और अपने अनुसार पढ़ाने की पहल करें। समस्या तब खड़ी होती है जब एक ही शिक्षण संस्थान में हिंदी शिक्षण के लिए हर सेमेस्टर पाठ्यक्रम बदल दिया जाय! कई बार हिंदी अध्यापक अपने स्तर पर पाठ्यक्रम का निर्माण करते हैं और उसे विभिन्न कक्षाओं में पढ़ाते हैं, और ठीक उसी क्लास को अन्य अध्यापक अपने पाठ्यक्रम के साथ हिंदी का प्रशिक्षण दे रहे होते हैं, ऐसे में छात्रों के समक्ष पाठ्यक्रम को लेकर असमंजस की स्थिति खड़ी हो जाती है। शिक्षण संस्थानों में पाठ्यक्रम को लेकर छात्रों का यह भी फीडबैक होता है कि बाजार और रोज़मर्रा के क्षेत्रों में बोली जाने वाली हिंदी के प्रयोग और वाक्य संरचनाएँ पाठ्यक्रम से संबद्ध नहीं हैं।
- व्याकरण औऱ साहित्य पर निर्भरता
आज भी भाषा शिक्षण प्रविधि के रूप में ‘व्याकरण-अनुवाद विधि’ का प्रयोग किया जा रहा है। इसके अंतर्गत व्याकरण के नियमों और शब्दकोश आदि का ज्ञान दिया जाता है। इसमें समस्या यह है कि छात्र भाषा के वास्तविक प्रयोग से अपरिचित ही रह जाता है, भले वह भाषा के व्याकरण को जान ले। ऐसे में जब छात्र को हिंदी का पाठ पढ़ने को कहा जाता है तो वह अक्षरों को पहचान कर उच्च स्वर में पढ़ लेता है, परंतु उसे अर्थ समझ नहीं आता। अधिकांश दक्षिण, मध्य और पूर्व एशियाई देशों की भाषाओं में लिंग, वचन और कारक चिन्हों आदि नहीं हैं, ऐसे में छात्र हिंदी की संज्ञाओ के लिंग से अपरिचित रहता है और ऐसे वाक्य निर्माण में गलतियाँ करता है जहाँ लिंग के आधार पर वाक्य में परिवर्तन हो जाता है।
कई बार हिंदी साहित्य को हिंदी शिक्षण का केंद्र बना दिया जाता है जो छात्रों के लिए अनुपयोगी साबित होता है। निश्चित रूप से हिंदी साहित्य की कुछ लोकप्रिय और सरल साहित्यिक कृतियों से छात्रों को जोड़ा जाना चाहिए परन्तु इन साहित्यिक कृतियों के माध्यम से भाषा- शिक्षण का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। व्यवहारिक अनुभव के आधार पर चंद्रिका माथुर की टिप्पणी इस संदर्भ में सटीक जान पड़ती है कि “कहानी आदि में अनेकों ऐसे शब्द होते हैं जो छात्रों के लिए नए हैं। केवल भाषा के माध्यम से इतने सारे शब्दों का अर्थ एक साथ समझना और पूरी कहानी का मजा लेना उसके लिए बेहद कठिन है। जब अर्थ का सृजन करने के लिए सहायक संकेतों की कमी होती है, उसकी रुचि कम हो जाती है और वह हिंदी की कक्षा में मानसिक रूप से भी कम सक्रिय हो जाता है।”(5)
- शिक्षण समय का अभाव
भाषा सीखना एक जटिल और लम्बी प्रक्रिया है। हिंदी भाषा, अपने आप में अपनी व्याकरण और अनुप्रयोगों में बेहद जटिल है। ऐसे में अगर कोई विदेशी भाषा के रूप में हिंदी को अल्प समय में सीख ले, यह अपेक्षा करना बेमानी है। भाषा सीखने के लिए एक लम्बी समय अवधि की जरूरत होती है, इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि हम बरसों बरस छात्र को कक्षा मे हिंदी सिखाते रहें, परन्तु यह भी अपेक्षा रखना गलत है कि छात्र हिंदी एक सेमेस्टर या चार महीने में सीख लेंगे। कई संस्थाओं में यह अवधि पर्याप्त है जबकि कई संस्थाओं में इस स्तर पर कठिनाई है। अगर वर्ष को ही पैमाना मानें तो एक वर्ष में छात्रों को अधिकतम हिंदी की कक्षा में कुल 120 घण्टे हिंदी सुनने या बोलने का अवसर मिलता है।
- नीतिगत समस्याएँ
दक्षिण, मध्य और पूर्व एशियाई देशों के साथ भारत का सम्बन्ध लगातर सुदृढ़ हुआ है जिसके कारण हिंदी शिक्षण का विस्तार भी हुआ है। इसके बावजूद अभी भी हिंदी भाषा के प्रसार के लिए अनुदान, प्रशिक्षण कार्यक्रम, विदेशी भाषा विभाग की स्थापना और भाषाई हस्तांतरण और सहभागिता के स्तर पर लगातर अभाव देखा जा रहा है।
दक्षिण कोरिया, जापान, चीन आदि देशों ने यूरोपीय देशों के अनुभवों से सीख कर CEFR जैसी व्यवस्था अपना कर भाषा संवर्धन के लिए कोशिश की है, वैसी कोशिश भारत की ओर से अब तक नहीं की गई है। 2016 में दक्षिण कोरिया ने CFL अधिनियम को संसद से पारित किया है जो विदेशी भाषाओं के शिक्षण कार्य में प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से बनाया गया है। ऐसे किसी भी प्रयास का स्वागत किया जाना चाहिए परन्तु भारतीय गणराज्य की ओर से विदेशी भाषाओं के प्रोत्साहन के लिए अब तक के प्रयास नाकाफ़ी नजर आते हैं।
- अंग्रेजी पर निर्भरता और नवीन तकनीक संबंधी समस्याएँ
आज हम भारतवासी आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, हमने ज्ञान-विज्ञान, व्यापार, खेल, प्रौद्योगिकी आदि सभी क्षेत्रों में व्यापक प्रगति की है। परंतु जब हम अपनी भाषाई पहचान की ओर देखते हैं तो थोड़ी निराशा होती है। आज भी भारत में अंग्रेज़ी का दबदबा कायम है। कई संदर्भों में अंग्रेज़ी ही भारतीय ज्ञान-विज्ञान, तकनीक, व्यापार, सेवा, न्याय आदि क्षेत्रों की मुख्य भाषा है। कहने को हिंदी सबसे बड़ी आबादी द्वारा बोली, पढ़ी और समझी जाती है, फिर अंग्रेज़ी पर यह निर्भरता क्यों बनी हुई है। निश्चित रूप से अँग्रेजी विश्व-सम्पर्क भाषा है, उसे जानना चाहिए, पढ़ना और पढ़ाना भी चाहिए परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम पूरी तरह उसपर निर्भर हो जाएं। कभी कभी हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो जाती है जब विदेश का कोई व्यक्ति हमारे देश के व्यक्ति से किसी भारतीय भाषा में बात करता है तथा भारत से गया हुआ व्यक्ति उसकी बात का उत्तर न तो भारत की भाषा में देता है, न उस देश की भाषा में देता है, बल्कि प्रत्युत्तर में एक तीसरे देश की भाषा यानी अंग्रेजी में देता है!
आज समूचे विश्व में chat gpt और A.I तकनीक की लहर चल रही है। इन नवीन तकनीकों ने भाषा-अध्ययन को भी गहरे स्तर पर प्रभावित किया है। विश्व स्तर पर अंग्रेजी का बढ़ता दबदबा और नवीन तकनीक उद्योग ने दक्षिण, मध्य और पूर्व एशियाई देशों में हिंदी शिक्षण के प्रति रुचि में भारी गिरावट पैदा की है और अगर समय रहते इसका समाधान न हुआ तो निकट भविष्य में हिंदी शिक्षण के समक्ष गहरा संकट खड़ा हो सकता है।
सुझाव /सलाह
शिक्षण–प्रक्रिया से संबंधित सुझाव/सलाह :-
प्रत्येक भाषा का अपना अलग गठन होता है- यह भाषा संबंधित महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है। इस विशिष्ट गठन का सीखना ही भाषा शिक्षण में सबसे महत्त्वपूर्ण और कठिन समस्या है। इसके लिए जरूरी है कि सबसे पहले छात्र की भाषा एवं शिक्षण की अन्य भाषा का गठनात्मक दृष्टि से तुलना कर उसके आधार पर पाठ्य सामग्री का निर्माण किया जाना चाहिए। हिंदी सिखाने की प्रक्रिया में शिक्षक को चाहिए कि वह मातृभाषा एवं अन्य भाषा के समान ढांचे को समझाए और अन्य भाषा के रूप में हिंदी के शब्द, वाक्य गठन से परिचित कराए। शब्द के स्थान पर शब्द नहीं रखा जाता है बल्कि उस शब्द का अर्थ विदेशी भाषा में गठन के स्तर पर रखा जाता है। हिंदी या अन्य कोई भी विदेशी भाषा सिखाने के अनुकरण-कंठस्थीकरण प्रक्रिया का प्रयोग करने की जरूरत है। सतत अनुकरण एवं अभ्यास पर बल देने से छात्र अन्य भाषा का आदी हो सकता है और इसके बाद उसे व्याकरण और अनुप्रयोगों को समझाने में आसानी होगी। इस परिप्रेक्ष्य में प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक ब्लूमफिल्ड ने लिखा है कि “जिन सहस्रों पद ग्रामों तथा ध्वनि-ग्रामों के माध्यम से आवश्यक सामग्री प्रस्तुत करनी है, उनका परिचय सतत अध्ययन से ही हो सकता है। कोशों में दिया गया अर्थ व्यापक होने के कारण, बड़ी कठिनाई उपस्थित करता है। प्रत्येक प्रस्तुत रूप की बार-बार आवृत्ति होनी चाहिए।”(6)
अक्सर हिंदी अध्यापक हिंदी शिक्षण के क्रम में ‘लेखन कला’ से प्रारम्भ करते हैं यानी व्याकरण से। जबकि भाषा शिक्षण के लिए हमें (L-S-R-W) ‘सुनना- बोलना- पढ़ना- लिखना’ प्रक्रिया का पालन करना चाहिए। इस प्रक्रिया के पक्ष में वैश्ना नारंग ने उचित ही लिखा है कि “भाषा आदत है, आदत अभ्यासजन्य होती है, इसलिए भाषा को किसी न किसी पुनरावृत्ति प्रक्रिया से ही पढ़ाना चाहिए। दूसरे मौखिक भाषा कौशलो का अभ्यास भाषा के लेखन कौशल से पहले करवाया जाना चाहिए, इनमे भी सुनना-समझना, बोलने से पहले और पढ़ना-लिखने से पहले।”(7)
समकालीन संदर्भ में हिंदी भाषा शिक्षण का उद्देश्य ज्ञानपरक न हो कर रोजगारपरक है, इसलिए हमे पढ़ाते वक़्त यह ध्यान रखना चाहिए कि हमे भाषा शास्त्र नहीं बल्कि भाषा सिखाना है, हमे व्याकरण नहीं व्यवहार की हिंदी सिखानी है।
दक्षिण, मध्य और पूर्व एशियाई देशों के छात्रों के हिंदी-शिक्षण (हिंदी-अधिगम) का उद्देश्य ज्ञान प्राप्त करना न होकर विशिष्ट रोजगारपरक हैं, इसलिए इनके लिए भाषा-साहित्य के इतिहास, साहित्य-संस्कृति आदि विषय उनके लिए उपयोगी नहीं हैं। इनके स्थान पर प्रयोजनमूलक हिंदी, व्यवसायिक हिंदी, संप्रेषणपरक हिंदी, मीडिया-टूरिस्ट हिंदी आदि विषयों को प्राथमिकता देनी चाहिए। वास्तविक भाषा-व्यवहार को आधार बनाकर व्याकरण को पुनर्गठित कर उसे छात्रों की आवश्यकता के अनुरूप निर्मित करने की कोशिश करनी चाहिए।
अध्यापन के स्तर पर शिक्षण घंटे में वृद्धि के साथ-साथ native speaker( मूल भाषा प्रयोक्ता) के साथ विदेशी छात्रों का ऑनलाइन सम्पर्क जैसे आधुनिक अध्ययन क्रिया का प्रयोग करना चाहिए। सिओल स्थित Hufs ने tandem class के जरिए इस तरह की बेहद शानदार और कारगर पहल की है।
अध्यापक की योग्यता, उसकी अध्ययन प्रकृति, उसकी छात्रों के साथ बॉन्डिंग आदि हिंदी शिक्षण के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। अध्यापन के दौरान, शिक्षक को छात्रों की कठिनाई का अनुभव कर, उसे पहचानने और उसका समाधान करने की प्रवृति इस दिशा में सहायक सिद्ध होगी। इधर के वर्षों में देखा जा रहा है कि हिंदी शिक्षण के दौरान विदेशी छात्रों के सम्मुख हिंदी के मानक पाठ्यक्रम और शब्दकोश के स्तर पर कठिनाई आ रही है। हालाँकि मानक पाठ्यक्रम विकसित करना सहज नहीं है परंतु विदेशी भाषा शिक्षण के लिए हर हाल में एक सर्वमान्य पुस्तक होनी चाहिए जिसमें स्पष्ट हो कि विदेशी छात्रों को इस आधारभूत पाठ से शिक्षा दी जाए! नए शब्दकोश निर्मित करने के स्थान पर ‘व्यवहारिक हिंदी शब्द कोश’, ‘व्यवसायिक हिंदी शब्दकोश’ आदि का निर्माण इस दिशा में जरूरी और उपयोगी कार्य होगा।
नीतिगत सुझाव/सलाह :-
आज जब हिंदी भाषा का दायरा निरंतर वैश्विक होता जा रहा है, तब यह जरूरी हो जाता है कि हिंदी शिक्षण के मामले में भी भारत और दक्षिण, मध्य और पूर्व एशियाई देश आधुनिक और उदार बनें। चूँकि हिंदी इन देशों के लिए भारत से संबंध स्थापित करने और उसे मजबूती देने का काम करती है, इसलिए इस भाषा के प्रति प्रोत्साहन का नहीं उत्साह का भाव रखना चाहिए।
जिस तरह पश्चिमी देशों ने भाषा संवर्धन और विकास के लिए CEFR जैसी संस्थाओं को निर्मित किया है ठीक उसी प्रकार विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा हिंदी के लिए भी एक स्वायत संस्था बने जो विदेशी भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण पर केंद्रित हो। दक्षिण कोरिया में ‘सैमसंग’ जैसी कंपनियाँ अपने कर्मचारियों के लिए हिंदी शिक्षण की विशेष व्यवस्था करती हैं, इस तर्ज पर कोई भी भारतीय कंपनियाँ अपने कर्मचारियों के लिए कोई शिविर नहीं करतीं। इसके अलावा दक्षिण कोरिया, चीन, जापान आदि देशों की सरकारों ने विदेशी भाषाओं के शिक्षण के लिए लगातर अच्छा अनुदान देती रही हैं, इस स्तर पर भी भारत सरकार को विचार करना चाहिए।
विदेश में हिंदी शिक्षण के लिए योग्य प्राध्यापकों को लक्ष्य- देश की भाषा शिक्षण हेतु प्रशिक्षण कार्यक्रम आदि का आयोजन इस दिशा में जरूरी पहल साबित हो सकती है। विदेशी हिंदी प्रशिक्षकों के लिए विशेष पाठ्यक्रम का निर्माण हो जिसमें उनकी समस्याओं पर विचार कर योजनाबद्घ तरीके से लक्ष्य केंद्रित पाठ्यक्रम और पुस्तकें तैयार की जानी चाहिए। फिलहाल देश में कोई ऐसा संस्थान नहीं है जिसमें विदेशियों के लिए हिंदी भाषा के ऐसे विविध पाठ्यक्रम हो, जिनको पूरा कर कोई भी विदेशी हिंदी सीख सकें। केन्द्रीय हिंदी संस्थान, आगरा एवं अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय आदि संस्थाओं में अकादमिक हिंदी-शिक्षण की व्यवस्था जरूर है परंतु इसे व्यवसायिक हिंदी शिक्षण संस्थान के रूप में विकसित किया जाना शेष है।
सूचना क्रांति के दौर में हिंदी को कंप्यूटर की भाषा बनाना जरूरी है। हिंदी में कंप्यूटर साधित भाषा-शिक्षण के निर्माण के लिए एक यूजर फ्रेंडली सिस्टम बनाने की आवश्यकता है ताकि स्वतः अधिगम के आधार पर हिंदी सीखने और हिंदी में काम करने की सुविधा उपलब्ध हो सके। छात्रों और प्रयोगकर्ताओं को ध्यान में रखकर ‘स्पैल चेकर’ और ‘ऑनलाइन हिंदी डिक्शनरी’ आदि की सुविधा का विकास किया जाना जरूरी है।
हिंदी की अंतरराष्ट्रीय शैलियों का जिस प्रकार तेजी से विस्तार हो रहा है, वह प्रतीक है कि शुद्धता और मानकता का मोह हिंदी हित में नहीं है। हर साल हिंदी से नए लोग जुड़ रहे हैं और अपने साथ नए शब्द भी ला रहे हैं, हमें उदारता से इन शब्दों और नए रूपों को स्वीकार करना चाहिए। निश्चित रूप से इसमें उनका अपना प्रयोजन है, परंतु इस वैश्विक बाजार व्यवस्था में उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती और न ही उन पर अपने निर्देश, अपने व्याकरण, अपनी सामग्री ही थोपी जा सकती है, बल्कि हमें उनकी जरूरत को ध्यान में रखकर उसकी भाषिक प्रविधि को दुरुस्त करने की आवश्यक्ता है!
‘रिसर्च’ और ‘प्रयोग’ के बीच पारस्परिक संबंध है। जब शोध का निष्कर्ष भाषा शिक्षण के स्तर पर पाठ्यक्रम निर्माण, पाठ्य सामग्री निर्माण और शिक्षण विधियों में व्यवहृत होने लगता है तो शिक्षण का क्षेत्र मजबूत होता है। भाषा शिक्षण की दिशा में शोध की अपार संभावनाएँ और जरूरत हैं। दक्षिण मध्य और पूर्व एशियाई देशों में हिंदी शिक्षण की वर्तमान स्थिति संतोषजनक है परंतु इसके समक्ष ढेर सारी चुनौतियाँ खड़ी हैं जिनसे हमें हर हाल में पार पाना होगा!!
संदर्भ सूची :-
- G–20 सम्मेलन, नई दिल्ली, 2023 का कूट वाक्य।
- रामविलास शर्मा; भाषा और समाज, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण 1977,पृष्ठ सं – 406
- डॉ. महावीर सरन जैन; अन्य भाषा शिक्षण; विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा,प्रथम संस्करण 1966, पृष्ठ सं- 17
- वैश्ना नारंग;सामान्य भाषा विज्ञान;प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1981, पृष्ठ सं – 17
- चंद्रिका माथुर; गवेषणा पत्रिका, अंक 89, जनवरी-मई 2008, पृष्ठ सं- 132
- Broomfield, L: Language, (Reprinted 1963, Motilal Banarsidas, Delhi), page no- 505
- (4) वैश्ना नारंग;सामान्य भाषा विज्ञान;प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1981, पृष्ठ सं – 109