गणेश लेखनविद्या और

~ विजय नगरकर, अहिल्यानगर महाराष्ट्र

मानव सभ्यता के इतिहास में संवाद की कला ने एक विशेष स्थान बनाया है। प्राचीन काल से ही मनुष्य ने परस्पर संवाद स्थापित करने के लिए कई माध्यमों का उपयोग किया, जिनमें से लेखन कला एक प्रमुख साधन रही है। लेखन कला या लेखन की पद्धति के अध्ययन को लेखनविद्या कहा जाता है। यह न केवल विचारों को व्यक्त करने का माध्यम है, बल्कि ज्ञान को संरक्षित कर पीढ़ियों तक पहुँचाने का भी सशक्त उपकरण है। भारतीय लेखनविद्या के क्षेत्र में पाश्चात्य विद्वानों के साथ-साथ पं. सातवळेकर, पं. ओशा, प. रा. दाते, महादेवशास्त्री जोशी, अ. वा. वालावलकर, और वाकणकर जैसे भारतीय विद्वानों ने भी उल्लेखनीय योगदान दिया है।

 भारतीय लेखनविद्या का इतिहास और मिथक

लेखनविद्या मानव संवाद का ऐसा साधन है जो समय और स्थान की सीमाओं को लांघता है। भारतीय संस्कृति में इसका महत्व अत्यधिक है, और इसके प्रमाण संस्कृत, जैन, तथा बौद्ध साहित्य में देखने को मिलते हैं। फिर भी, कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने यह धारणा फैलाई कि सम्राट अशोक के काल से पहले भारत में लेखनविद्या का अस्तित्व नहीं था। यह एक भ्रामक विचार था, जिसे भारतीय शोध और प्राचीन साहित्य ने खारिज किया है।

संस्कृत, जैन, और बौद्ध ग्रंथों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि भारत में लेखन कला बहुत पहले से प्रचलित थी। पूर्व ब्राह्मी लिपि के प्राचीनत्व और भारतीयता को स्थापित करने के साथ-साथ सिंधू ब्राह्मी के संबंधों को समझने के प्रयास भी हुए हैं। इन शोधों से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय लेखनविद्या का इतिहास समृद्ध और प्राचीन है।

 गणेशविद्या: ध्वनि पर आधारित लेखनशास्त्र

गणेशविद्या एक अनूठी लेखन पद्धति है, जो ध्वनि पर आधारित है। इसका उल्लेख गणपति अथर्वशीर्ष नामक स्तोत्र में मिलता है, जिसे गणक ऋषि ने लिखा था। इस उपनिषद में मंत्रों को लिखने के संदर्भ में गणेशविद्या का वर्णन किया गया है। गणपति अथर्वशीर्ष के अनुसार, भगवान गणेश तीन देहों—स्थूल, सूक्ष्म, और कारण—से परे हैं, लेकिन “गं” उनका तांत्रिक शरीर है, जो उनका मंत्र भी है। गणपति को विश्व का आधार माना गया है, और वे ज्ञान तथा विज्ञान के प्रतीक हैं।

गणेशविद्या ध्वनि के उच्चारण, लेखन, और उसके अवस्थांतरों का अध्ययन करती है। हालाँकि इस विषय पर उपलब्ध जानकारी संक्षिप्त है, फिर भी यह शास्त्रीय और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। गणेशविद्या के आधार पर गणपति और बुद्धि के बीच गहरा संबंध समझा जा सकता है, क्योंकि गणेश को बुद्धि और विवेक का देवता माना जाता है।

 लिपि और प्रतीकों का विकास:

 ॐ कार और गणेश

बौद्ध धर्म के प्रसार के साथ ब्राह्मी लिपि का प्रयोग शुरू हुआ, जो समय के साथ व्यवहार से बाहर हो गई। इसी तरह, ॐ कार का रूप भी कालांतर में बदलता रहा। प्राचीन काल में ॐ कार का स्वरूप “अउ” जैसा स्वरात्मक था, जो बाद में “अउ में” जैसे व्यंजनात्मक रूप में परिवर्तित हुआ। पौराणिक काल में इस प्रतीक के आधार पर गणपति की मूर्ति की रचना हुई होगी। वर्तमान में ॐ कार का रूप आडवा (क्षैतिज) है, लेकिन इसके मूल अवयव आज भी वही हैं।

विद्वान वालावलकर ने इस विकास को चित्रों के माध्यम से समझाया है:

1. प्रणव या ॐ कार का प्राचीन रूप – स्वरात्मक “अउ”।

2. ब्राह्मी मकार और हलंत का प्रयोग – इसमें स्वर को अनुनासिक के स्थान पर ब्राह्मी मकार और तमिल की तरह हलंत के लिए अर्धमात्रा रूपी टिंब का उपयोग हुआ।

3. आधुनिक ॐ कार – आडवा रूप, जिसमें मूल के सभी तत्व समान हैं।

यह परिवर्तन दर्शाता है कि ॐ कार का विकास गणपति के प्रतीकात्मक स्वरूप और उनकी पूजा से जुड़ा है।

लेखनविद्या मानव सभ्यता के लिए एक अमूल्य उपहार है, जो ज्ञान को संजोने और संचार करने में सहायक रही है। भारतीय लेखनविद्या का इतिहास न केवल प्राचीन है, बल्कि यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी समृद्ध है। गणेशविद्या इस परंपरा का एक विशेष हिस्सा है, जो ध्वनि और लेखन के बीच के संबंध को उजागर करती है। भगवान गणेश का ज्ञान और बुद्धि के देवता के रूप में महत्व, साथ ही ॐ कार के रूप का विकास, यह दर्शाता है कि प्रतीक और लिपियाँ समय के साथ बदलती हैं, परंतु उनका मूल सार कायम रहता है।

का भारतीय लिपि से संबंध

1.

भारतीय संस्कृति में “ॐ” मात्र एक शब्द नहीं, बल्कि एक ऐसी अनाहत ध्वनि है जिसे ब्रह्मांड की आदि ध्वनि कहा गया है। वैदिक परंपरा से लेकर आधुनिक युग तक, ॐ का प्रयोग मंत्रों की शुरुआत, ध्यान, साधना, पूजा-पाठ, और योग में एक महत्वपूर्ण ऊर्जा-स्रोत के रूप में होता आया है। किंतु यह पवित्र ध्वनि केवल श्रवण तक सीमित नहीं रही – इसे लिखने की परंपरा भी उतनी ही समृद्ध है, और इसका संबंध भारत की विविध लिपियों से जुड़ा हुआ है।

2. ॐ का ध्वन्यात्मक स्वरूप:

ॐ का उच्चारण तीन अक्षरों से होता है – अ (a), उ (u), और म् (m)। इन तीन ध्वनियों को मिलाकर जो एक समग्र ध्वनि उत्पन्न होती है, उसे “प्रणव” कहा जाता है। उपनिषदों में ॐ को ब्रह्म का प्रतीक कहा गया है – जो न आदि है, न अंत।

“अ” – निर्माण का प्रतीक है (ब्रह्मा),

“उ” – पालन का प्रतीक है (विष्णु),

“म्” – संहार का प्रतीक है (महेश)।

3. भारतीय लिपियों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

भारत में लेखन की परंपरा हज़ारों वर्षों पुरानी है। विभिन्न कालों में विभिन्न लिपियाँ प्रचलन में रही हैं। प्रमुख लिपियाँ इस प्रकार हैं:

ब्राह्मी लिपि (3री शताब्दी ई.पू. से)

खरोष्ठी लिपि (उत्तर-पश्चिम भारत में)

गुप्त लिपि, शारदा लिपि, सिद्धम लिपि

नागरी और देवनागरी लिपि (प्राचीन और आधुनिक संस्कृत तथा हिंदी की लिपि)

दक्षिण भारतीय लिपियाँ – तमिल-ब्राह्मी, वट्टेलुतु, ग्रंथ, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम आदि

पूर्वी भारतीय लिपियाँ – बंगला, असमिया, ओड़िया

इन लिपियों में ॐ का अंकन अलग-अलग रूपों में हुआ, लेकिन उसका उच्चारण और भाव समान बना रहा।

4. ॐ का विभिन्न लिपियों में रूपांतरण:

i. ब्राह्मी लिपि में ॐ:

ब्राह्मी लिपि भारत की प्राचीनतम लिपि मानी जाती है, जिसके अभिलेख सम्राट अशोक के शिलालेखों में मिलते हैं। इसमें ॐ का ध्वन्यात्मक रूप अलग-अलग ध्वनियों के रूप में होता था, पर कोई एक विशेष प्रतीक नहीं था। ॐ को “ओम्” या “अउम्” के रूप में दर्शाया जाता था।

ii. खरोष्ठी लिपि:

यह लिपि दाहिने से बाएँ लिखी जाती थी और मुख्यतः गांधार क्षेत्र में प्रचलित थी। इसमें भी ॐ का कोई विशेष प्रतीक नहीं था, लेकिन बौद्ध मन्त्रों में “ॐ” जैसे स्वर प्रयोग हुए।

iii. नागरी और देवनागरी लिपि में ॐ:

देवनागरी लिपि में आज जो ॐ का प्रतीक देखा जाता है (ॐ), वह मध्यकाल में विकसित हुआ। 11वीं-12वीं शताब्दी के पांडुलिपियों में इसका प्रयोग स्पष्ट रूप से मिलने लगता है। संस्कृत, हिंदी, मराठी, नेपाली आदि भाषाएँ इसी लिपि में लिखी जाती हैं, अतः देवनागरी में ॐ का उपयोग व्यापक रूप से हुआ।

iv. बंगला, असमिया, और ओड़िया लिपियों में ॐ:

इन लिपियों में ॐ का स्वरूप देवनागरी से अलग होता है। बंगला लिपि में ॐ को एक घुमावदार प्रतीक के रूप में लिखा जाता है। यद्यपि लिपियाँ भिन्न हैं, ॐ की महत्ता सभी भाषाओं में समान है।

v. दक्षिण भारतीय लिपियों में ॐ:

तमिल, कन्नड़, तेलुगु, और मलयालम में ॐ के लिए भिन्न-भिन्न ग्राफिकल रूप प्रचलित हैं। इनमें भी ॐ को मन्त्रों की शुरुआत में लिखा जाता है। विशेष रूप से ग्रंथ लिपि, जो संस्कृत लेखन के लिए प्रयोग होती थी, उसमें ॐ का विशिष्ट चिन्ह देखा जा सकता है।

5. धार्मिक और सांस्कृतिक उपयोग में ॐ की लिपि आधारित पहचान:

भारतीय लिपियाँ केवल ध्वनि को लिखित रूप में परिवर्तित करने का माध्यम नहीं थीं, बल्कि वे आध्यात्मिक प्रतीकों को दृश्य रूप देने वाली सृजनात्मक शक्तियाँ भी थीं। ॐ, जो कि सूक्ष्म और अनाहत ध्वनि का प्रतिनिधित्व करता है, लिपियों के माध्यम से मूर्त बनकर स्थायित्व प्राप्त करता है।

हिंदू धर्म: मंत्रों की शुरुआत और अंत में ॐ, अक्सर देवनागरी या तमिल लिपि में लिखा जाता है।

बौद्ध धर्म: मंत्र “ॐ मणि पद्मे हुँ” में ॐ का प्रयोग किया जाता है और इसे कई लिपियों में अंकित किया गया है – जैसे तिब्बती, सिद्धम, आदि।

सिख धर्म: “ੴ” (इक ओंकार) – यह भी ॐ की ही एक व्याख्या मानी जाती है।

जैन धर्म: पंच परमेष्ठियों का स्मरण “ॐ” शब्द से किया जाता है।

6. आधुनिक काल में ॐ का लिप्यांकन और प्रतीकात्मक प्रयोग:

भारतीय मुद्रा के सिक्कों और नोटों पर कभी-कभी ॐ अंकित पाया गया है।

विश्वविद्यालयों और योग संस्थानों के लोगो में ॐ का प्रतीक प्रचलित है।

ॐ का ग्राफिक डिज़ाइन अब डिजिटल और वैश्विक प्रतीक बन गया है, जिसकी लिपि आधारित विविधता आज भी विद्यमान है।

ॐ भारतीय संस्कृति की आत्मा है और भारतीय लिपियाँ उसकी देह। जैसे ॐ शून्य से उद्भव की ध्वनि है, वैसे ही लिपियाँ उस ध्वनि को स्थायित्व देने वाला माध्यम हैं। भारत की विविध भाषाओं और लिपियों ने मिलकर इस दिव्य ध्वनि को न केवल संरक्षित किया बल्कि उसके प्रतीक को भी संवारा।

ॐ का भारतीय लिपियों से संबंध इस बात का प्रमाण है कि भारत ने न केवल आध्यात्मिकता में, बल्कि भाषा और लिपि के विकास में भी अद्भुत योगदान दिया है। यह केवल एक ध्वनि नहीं, अपितु भारत की हजारों वर्षों की सांस्कृतिक चेतना का जीवंत रूप है।

गणेश लेखनविद्या और गणेश दर्शन के अध्ययन से हमें भारतीय संस्कृति की गहराई और उसकी वैज्ञानिक सोच का परिचय मिलता है। यह हमें यह भी सिखाता है कि ज्ञान और बुद्धि का सम्मान हमारी परंपरा का अभिन्न अंग है।

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