
– अनिल वर्मा, ऑस्ट्रेलिया
अलग-अलग
कुछ शब्द पड़े थे कोने में
स्वर देकर तुमने समझाया
अन्तर होने, न होने में
जैसे ठंढी की रातों में
कुछ जागे-जागे, कुछ विस्मृत
सपनों पर कोई छलका दे
अधरों का थोड़ा सा अमृत
वैसे ही अलग सी मस्ती है
सजने में और संजोने में
रज-ग्रसित, उपेक्षित वीणा की
वेणी के अवसादों को ले
ज्यों अनायास छू जाने पर
झन् से कोई तंत्री बोले
वैसा ही कुछ आकर्षण है
खिलने में और खिलौने में
लय बिना विलय, सुर बिना असुर
संज्ञा विहीन है सर्वनाम
जल* में जल कर आभास हुआ
जो है अजान उसका अज़ान
कुछ दर्द अलग, कुछ स्वाद अलग
पीरों में और पिरोने में
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- तस्मान् जयते तस्मिन् लियते
