
मधुमक्खी
– डॉ मीनाक्षी गोयल नायर, कोबे, जापान
बालकनी में लगे पौधौं पर फूल खिलने लगे हैं। छोटे छोटे तीन फूलों के गमले जो गार्गी ने कुछ उदासी दूर करने की आशा में लगाए थे लगता है कि जीने का कारण पा गए हैं और जीवन की धुंधली सी किरण का आभास दे रहे हैं। लिविंग रूम और बालकनी के बीच बहुत चौड़ी और बड़ी खिड़की है जिसका काँच इतना साफ़ और पारदर्शी है कि लगता है काँच है ही नहीं बस सर्र से अन्दर आओ और फर्र से बाहर वापस। खिड़की के बराबर में ही एक दरवाज़ा है जो चौबीसों घंटे खुला रहता है। इतना हवादार और इतना रोशनीदार कमरा है हर कोई धोखा खा जाए। यह एक मायामहल है। कमरा जितना हवादार और रोशन, रहने वालों के दिलों में उतनी ही घुटन और अँधेरा। बस यही हुआ, शायद फूलों की खुशबू से आकर्षित मधुमक्खी भी खा गई धोखा, फँस गई माया के जाल में और दरवाज़े से अन्दर आ गई। उसे अन्दर और बाहर का फर्क ही शायद समझ में नहीं आया वह तो बस और फूलों का रस तलाशती आगे बढ़ गयी। पर उसे क्या पता जिसे उसने आगे बढ़ना समझा था वह वास्तव में एक मायामहल में फँसने की शुरुआत थी। अन्दर आकर वह पगली लगी फूल तलाशने, पर इस तिलिस्म में फूल कहाँ? अब मधुमक्खी चली वापस पीछे की ओर पर काँच जो बिलकुल पारदर्शी था जो बिलकुल पाक-साफ़ लगता था उसने उसे जकड़ लिया ओर लगा मनमानी करने। मधुमक्खी बदहवास सी समझ नहीं पा रही थी कि यह कैसे हो गया, जब आगे बढ़ना इतना आसान था तो पीछे जाना इतना मुश्किल क्यों? उस पगली को वह मायावी काँच पागल बना रहा था। उस नादान को काँच और दरवाज़े का फर्क समझ नहीं आ रहा था और काँच था कि जैसे ठहाके लगा रहा था, हँस रहा था मधुमक्खी की कमअक्ली पर, मज़े ले रहा था उसकी बेबसी पर।
मधुमक्खी पूरी ताकत से उड़ती थी, काँच से टकराती थी और फिर धम्म से नीचे खिड़की के तल पर गिर पड़ती थी। गार्गी कल से यह तमाशा लगातार देख रही है, उसका नई आशा से पूरी ताकत लगाकर ऊपर उड़ना, गिरना, फिर कोशिश करना। हर बार मधुमक्खी थकती जा रही है। अब तक उसका तन ओर मन दोनों ही थक कर चूर हो गए हैं। अब उसकी कोशिशों में निराशा और हताशा साफ़ झलक रही है क्योंकि उसकी उडान अब उतनी ऊँची नहीं हैं, उसके टकराने की आवाज़ अब इतनी तेज़ नहीं है और उसके पंखों कि फड़फड़ाहट में अब गुस्सा नहीं बल्कि याचना की आवाज़ है।
गार्गी उस मधुमक्खी के संघर्ष में अपना प्रतिबिंब देख रही है। शायद यही कारण है कि उसने पहली बार की तरह इस बार उस मधुमक्खी को बाहर जाने कि दिशा नहीं दिखाई। हाँ यह मधुमक्खी पिछले हफ्ते भी यहाँ फँसी थी, या हो सकता है कि कोई दूसरी मधुमक्खी हो, क्या फ़र्क पड़ता है? यह मायामहल पता नहीं कितनी मधुमक्खियों के जीवन से खेला है ओर कितनी और से खेलेगा? इतना पाक़-साफ़ लगता है कि मधुमक्खियाँ बस खिंची चली आती हैं और एक इंच की दूरी पर सहायता को तत्पर दरवाज़े को देख तक नहीं पाती हैं।
हाँ तो मैं कह रही थी कि जब यही या चलिए कोई और मधुमक्खी पिछले हफ्ते आई थी तो गार्गी ज़ोरों से चिल्लाई थी, लीलाआआआआआअ….इसे बाहर निकाल यह किसी को काट लेगी। उस दिन गार्गी के डर ने इस मधुमक्खी को झाड़ू से बहार जाने का रास्ता दिखा कर जीवनदान दे दिया था पर आज खिड़की के मायावी काँच पर सर पटकती मधुमक्खी में अपना प्रतिबिंब देखती गार्गी की इन्द्रियां इतनी सुन्न हो चुकी हैं कि उसे इसके द्वारा काटे जाने का भी भय नहीं है। वह तो बस इस मधुमक्खी के संघर्ष में अपना संघर्ष देख रही है और जानना चाहती है कि यह काँच इस मक्खी की जान ले लेगा या फिर कोई अदृश्य शक्ति इसे सहारा देकर बाहर खींच लेगी। जाने क्यों उसे लगता है कि इस मक्खी के संघर्ष का अंत उसके अपने भविष्य का आईना होगा। इस काँच के ठहाकों से ज़ख़्मी गार्गी की आत्मा मर गई है, स्वार्थी हो गई है, वह इस मधुमक्खी को पल पल मरते देख रही है पर बाहर जाने का रास्ता नहीं दिखा रही। या फिर वह यह सोच रही है कि यही इसका भाग्य है और जब इसे हवा और काँच का अंतर नहीं पता, जब यह फूलों के रस की हवस में आगा पीछा नहीं सोचती तो फिर इसका यह अंत इसके कर्मो का फल है और कर्मो का फल तो हर किसी को भोगना है।
मधुमक्खी का संघर्ष, अंत या आज़ादी। सुन्न सी बैठी गार्गी इस माया को देख रही है। काँच के ठहाके गूँज रहे हैं, उसने कान बंद कर लिए हैं, आँखें भी। पर यह ठहाके तो उसके अन्दर समा गए हैं। एक बार उसे जोश आता है, अब मैं कुछ ऐसा करूंगी कि जिससे मैं और मधुमक्खी दोनों बच जाएँ, तोड़ डालूँगी इस काँच को, उसने बची खुची सारी ताकत बटोर ली है, मुट्ठियाँ भींच ली हैं, बाजुओं की फूली हुई नसें उसे और बढ़ावा दे रही हैं। बस एक पल इंतज़ार कर मधुमक्खी, फिर यह काँच कभी ठहाके नहीं लगाएगा, और मैं और तू आज़ाद होंगे। पर जैसे ही वह आगे बढ़ती है उसका बेटा चिल्लाता हुआ अन्दर आता है, माँ यह काँच कितना मजबूत है न अगर यह न हो तो हम ठण्ड से मर जाएँगे, है न। गार्गी की सारी हिम्मत जवाब दे जाती है। विचारों का एक बवंडर सा उठता है उसके दिमाग़ में और वह चक्कर खा कर गिर पड़ती है काँच के एकदम नीचे। यह मैं क्या करने जा रही थी. काँच को तोड़ देती तो मेरे बेटे को ठण्ड लग जाती। उसे याद आती है सर्दियों की सुबह, काँच पर जमा भाप और उस पर फूल सितारे बनाता उसके जिगर का टुकड़ा, मुंह से निकली भाप काँच पर छोड़ खिलखिलाता उसका मासूम बेटा, और काँच, यह कितना प्रेममय लग रहा है। जो काँच मुझे कैद कर मेरा दम घोंटता है वही काँच कवच बन कर मेरे बेटे की रक्षा करता है।
मधुमक्खी तेरी और मेरी यही नियति है, इस काँच से लड़ना और हार कर दम तोड़ देना। जहाँ गार्गी चक्कर खा कर गिरी थी, मधुमक्खी वहीँ उसके पास दम तोड़ कर पड़ी है। गार्गी ने अपनी आज़ादी की आहुति देकर अपने बेटे का रक्षा कवच बचा लिया है।
***** ***** *****