जापान में भारतीय ज्ञान परंपरा की कुछ छवियाँ

डॉ वेदप्रकाश सिंह

ओसाका विश्वविद्यालय, जापान

जापान की संस्कृति में शिंतो और बौद्ध धर्म का अमिट प्रभाव है। शिंतो धर्म जापान में बौद्ध धर्म आने से पूर्व प्रचलित धर्म है। जो अभी भी प्रचलित है। बौद्ध धर्म आने के बाद बौद्ध धर्म भी शिंतो धर्म के साथ ही जापानी समाज में अपनाया गया और छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म युवराज शोतोकु के बौद्ध धर्म के प्रति अनुराग के कारण राज धर्म भी बन गया। जापान में उनका वही महत्त्व है जो भारत में सम्राट अशोक का है-“सोतोकु ने बौद्ध धर्म को जापान में दृढ़ और स्थायी बुनियाद पर कायम किया। इतिहास उसे “जापान के अशोक प्रियदर्शी” के नाम से जानता है। राजकुमार सोतोकु ने ही (ईसवी सन् 574-621) में सत्रह धाराओं वाला सबसे पहला संविधान बनाया, ‘त्रिरत्न’ (बुद्ध, धर्म और संघ) जिसके आधारभूत सिद्धांत थे।” भारत और मानव संस्कृति, खंड 2, बिशम्भरनाथ पांडे, प्रकाशन विभाग, पृष्ठ संख्या 292

जापान में भारत के चित्रों की झलक भी मंदिरों में दिखाई देती है। जापान के सबसे पुराने मंदिर होर्युजि की दीवारों पर दिखने वाले चित्रों से भारत के सातवीं शताब्दी के बौद्ध बिहारों के भित्ति-चित्रों की झलक दिखाई देती हैं। इस संबंध में बिशम्भरनाथ पांडे जी ने लिखा भी है- “कोण्डो-स्वर्ण भवन में भित्ति-चित्रों का पेनल चित्रित है जिसके चित्र भारत में इस तरह के पेनल में बने चित्रों से मिलते-जुलते हैं। उन भित्ति चित्रों में सातवीं शताब्दी के भारत की प्रतिभा झलकती है। ईसवी सन् 643-646, 648-649 और 657-661 में हुएन्त्सांग के निर्देशन में बिहार में बौद्ध बिहारों में ऐसे भित्ति-चित्र अंकित किए गए थे। बाद में उन चित्रों को चालीस जिल्दों में उतारा गया। उन्हीं जिल्दों में से कतिपय कोरियन हान्जित्सु जापान लाया। होर्यु-जि के भित्ति चित्र उन्हीं के आधार पर चित्रित किए गए।” भारत और मानव संस्कृति, खंड 2, बिशम्भरनाथ पांडे, प्रकाशन विभाग, पृष्ठ संख्या 294  

भारत के बौद्ध धर्म ने हिन्दू धर्म से अलग अपना रास्ता बनाया था लेकिन जापान में बौद्ध मंदिरों में सरस्वती, ब्रह्मा, गणेश, शिव और अग्नि देव, वरुण और गरुण आदि हिन्दू देवी-देवताओं को भी बौद्ध मंदिरों में देख सकते हैं। शिंतो धर्म के साथ अब बौद्ध धर्म और हिन्दू धर्म की छवियाँ जापान में एक साथ देख सकते हैं। शिंतो धर्म भी भारतीय वैदिक धर्म और प्रकृति पूजा का ही जापानी संस्करण प्रतीत होता है। इस प्रकार से देखें तो जापान में भारतीय ज्ञान परंपरा धर्म और आस्था के विभिन्न रूपों में प्रकट होती है।

जापानी लोककथा मोमोतारो पर रामायण की कहानी के प्रभाव को भी कुछ जापानी विद्वानों ने लक्षित किया है। मोमोतारो एक लड़के की कहानी है। जो राक्षसों को मारने के लिए ओनिगाशिमा जाता है। उसे रास्ते में एक कुत्ता, बंदर और एक पक्षी मिलते हैं। इन तीनों की मदद से मोमोतारो राक्षसों को मारता है। बंदर और पक्षी इस कहानी में हनुमान और गरुड के जापानी रूपांतरण लगते हैं।

जापान में मनाए जाने वाले विभिन्न त्योहारों में भारतीय धर्म और संस्कृति दिखाई देती है। अगस्त महीने में जापान में ओबोन त्योहार मनाया जाता है। यह भारत में प्रति वर्ष मनाए जाने वाले पितृ पक्ष की भाँति ही मनाया जाता है। अगस्त के पंद्रह दिनों में माना जाता है कि पुरखों की आत्मा धरती पर आती है और उनको भोज चढ़ाया जाता है। इस त्योहार को मनाने के लिए बहुत सारे जापानी लोग अपने दिवंगत हो चुके माता-पिता की समाधि पर जाते हैं और फल-फूल आदि चीजें चढ़ाते हैं।

जापानी भाषा में एक अनुमान के अनुसार दो सौ ऐसे शब्द हैं जो संस्कृत से लिए गए हैं। जैसे ओसेवा शब्द सेवा शब्द से ही लिया गया है। इसका अर्थ भी सेवा-सत्कार की तरह ही है। जापानी में घास को संस्कृत के कुश शब्द से बना कुशा कहा जाता है। हिंदी और संस्कृत में प्रयुक्त नरक भी जापानी भाषा और जीवन में नरकु के रूप में शामिल हो चुका है। नरक की अवधारण का जापान में आगमन बौद्ध परंपरा में हिन्दू ज्ञान परंपरा के आगमन का सूचक है।

इसी प्रकार जापानी भाषा की तीन लिपियों में से दो लिपियाँ हिरागना और काताकाना का निर्माण भी कहा जाता है कि बोधिसेन के कारण हुआ। बोधिसेन भारत से जापान आने वाले पहले भारतीय थे और उन्होंने जापान में प्राचीन मंदिर तोदाईजी मंदिर में बुद्ध की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा की थी। उन्होंने जापान में संस्कृत भाषा भी सिखाई। इसी के परिणाम स्वरूप जापान में कहा जाता है कि हिरागाना और काताकाना लिपियाँ निर्मित हुईं। उस समय प्रचलित संस्कृत आज भी सिद्धम के रूप में प्रचलित है। सिद्धम को जापानी में गोकोकुजी कहते हैं। जिसे मृत लोगों की समाधि पर एक लकड़ी की लंबी पट्टी पर पाँच महाभूतों के प्रतिनिधि पाँच अक्षरों के रूप में लिखा जाता है। क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर के लिए पाँच सिद्धम अक्षरों को एक लंबी पट्टिका में ऊपर से नीचे क्रमश: लिखकर मृतक के अस्थि-फूलों की समाधि के ऊपर लगाया जाता है। भारतीय ज्ञान परंपरा के ऐसे अनगिनत चिह्न जापान में यत्र-तत्र बिखरे हुए आपको दिख जाएंगे। अभी इस दिशा में काम होने बाकी हैं जिन्हें भारतीय समाज के सामने लाया जा सके। जो काम हुए भी हैं वे जापानी में और अचर्चित ही रह गए हैं। जापानी भाषा में निष्णात न होने के कारण मैं भी इस दिशा में अंग्रेजी और हिंदी में मौजूद लेखों और सूचनाओं पर ही आश्रित हूँ।

भारतीय सब्जी इंडियन करी अथवा करे के रूप में हर दुकान पर उपलब्ध है। यह भी भारतीय स्वाद परंपरा का जापान में समावेश है। प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी रास बिहारी बोस के कारण यह करी जापान में प्रचलित हुई। भारतीय जीवन में प्राचीन काल से चली आ रहीं अनेक आदतें और चीजें भी इंडियन करी की तरह ही दिखाई देती हैं। चाहें वे रिवाज मंदिरों में प्रवेश के बारे में हों अथवा घर में प्रवेश के बारे में हों। घर में आने से पहले अपने जूते-चप्पल बाहर उतारने का रिवाज मंदिरों और घरों में आज भी चल रहा है। खाना खाने से पूर्व संस्कृत में भोजन मंत्र का विधान है। कुछ दिनों पूर्व इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव श्री सच्चिदानंद जोशी जी के साथ एक जगह जापान में खाना खाने का अवसर मिला। खाना खाने से पूर्व उन्होंने भोजन मंत्र का स्मरण किया और फिर भोजन किया। इसी प्रकार पूरे जापान में आज भी भोजन करने से पूर्व हर जापानी इतादाकिमस अवश्य बोलते हैं। जिसमें भोजन बनाने वाले से लेकर अन्न उपजाने वाले की वंदना होती है और उसे धन्यवाद दिया जाता है। 

जापान में एक दूध कंपनी का नाम सुजाता है। यह नाम उस युवती का नाम है जिसने कहा जाता है कि महात्मा बुद्ध को खीर खिलाई थी। भारतीय ज्ञान और संस्कृति की ऐसी अनेकानेक छवियाँ जापान में मिलती हैं।

इस दिशा में अभी शोधकार्य होने की बहुत संभावनाएँ हैं। जापानी भाषा का सम्पूर्ण ज्ञान और भारतीय ज्ञान परंपरा के विद्वान जब इस क्षेत्र में कार्य करेंगे और ऐसी अनेक रोचक जानकारियाँ हम सभी को मिलेंगी।

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