
मेरी माँ
– आशा बर्मन
यह भी कैसी विडम्बना है कि माँ तुमको पत्र तो लिख रही हूं यह जानते हुए भी कि यह पत्र कभी तुम तक पहुंचेगा तो है ही नहीं, क्योंकि तुम इस संसार की सीमाओं से कहीं दूर चली गई हो। तुम्हारा पता भी नहीं मालूम। जानती भी हूँ कि किसी सांसारिक व्यक्ति की तो पहुँच है ही नहीं वहाँ पर। अपने हृदय की बात मैं अभिव्यक्त कर पा रही हूं, यही क्या कम है। कभी न कभी, कहीं ना कहीं, कोई तो पढ़ेगा ही।
सबसे कठिन होता है अपनी माँ के विषय में कहना या लिखना जैसे कि मैं स्वयं के विषय में ही बात कर रही होऊं। माँ, सच तो यह है कि तुम्हारे साथ इतना समय मिल ही नहीं पाया, केवल दो दशक ही तो बिता पाई थी मैं तुम्हारे साथ। उस समय स्कूल कॉलेज की पढ़ाई के बीच इतना समय कहाँ मिल पाया था मुझे कि मैं तुम्हारे साथ अपने संबंधों को और अधिक गहरा सकूं। जितना भी समय मिला था उसमें अधिकतर मैंने तुमसे कुछ न कुछ माँगा ही था, कभी खाना, कभी विशेष पोशाक और कभी स्कूल की जरूरत की कुछ वस्तुएं। शिकायत ही की थी कभी कुछ पसंद ना आने पर या कभी खुशामद की थी सहेली के घर जाने के लिए। उन दिनों केवल स्कूल से संबंधित सारी वस्तुएं ही मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण थीं। कहाँ समय था तुम्हारे लिए या तुम्हारी बातों के लिए।
तब क्या पता था कि इतनी दूर देश में मेरा ब्याह हो जाएगा और तुम्हें देखने को ही मैं तरस ही जाऊँगी और केवल रह जाएगा पत्रों का एक लंबा सिलसिला, जिसने हम दोनों को परस्पर एक दूसरे से जोड़ रखा था। तुम्हारे लिखे हुए वे अंतर्देशीय पत्र मेरे लिए कितने महत्वपूर्ण थे मेरे हृदय के कितने निकट थे वह तो यदि कोई मेरी कविता ‘वे पत्र’ पढ़े तो उसे सहज ही समझ में आ जाएगा। सभी कहते हैं कि वह कविता अच्छी है क्योंकि उसमें मैंने अपने हृदय के भावों को उड़ेल कर रख दिया है। बिल्कुल सहज और सच्ची मन की बातें,शायद तभी वह कविता सबके हृदय तक पहुंच पाती है।
पत्र तो मैंने तुमको कई लिखे पर क्या सचमुच मैं अपने हृदय का सब कुछ कह पाती थी तुमसे। शायद नहीं, कई बार पत्र लिखते-लिखते कलम रुक जाती थी यह सोच कर कि यह लिखने से कहीं तुमको कष्ट न हो। अपने आरंभिक गृहस्थ जीवन का एक बहुत बड़ा सच तुमसे मैंने छिपाया ही था। वह सच था कि मैं मां बनने वाली थी। लोग तो पूछते हैं कि इतना बड़ा सच कैसे छुपाया अपनी मां से? यही सोच कर कि मुझे पता था कि तुम इतनी अधिक चिंता करोगी कि तुमको तो रात को नींद भी नहीं आएगी। तुम्हारा स्वास्थ्य भी इतना अच्छा नहीं था, यही सोच कर मैंने तुमको नहीं बताया।
वह भी एक अलग कहानी है कि कैसे तुमको पता चला कि तुम्हारी बिटिया को बच्चा हुआ है। जब मेरी सास ने टेलीग्राम से जाना कि मुझे बेटी हुई है तो उन्होंने तुमको बताया, पर तुमको विश्वास ही नहीं हुआ और तुमने मेरी सास से कहा कि शायद आपकी कनाडा में रहने वाली बड़ी बहू को बच्चा हुआ होगा मेरी बेटी को नहीं। पर तुमने इस बात का बुरा नहीं माना कि मैंने पहले से नहीं बताया बल्कि तुमने कहा कि मेरी बेटी ने मेरी चिंता का ख्याल करके ही नहीं बताया उसने मुझे नानी बनने का आनंद तो दिया पर कष्ट नहीं, मुझे घबराहट से बचा लिया। माँ तो कभी भी किसी बात का बुरा नहीं मानतीं, उनके पास तो क्षमा करने की अद्भुत क्षमता होती है।
ऐसी कितनी सारी स्मृतियाँ है तुम्हारे साथ। तुम्हारा संगीत प्रेम, सभी लोगों के साथ तुम्हारा प्यार, सद्भाव और उदारता का व्यवहार, सात दशक जीवन जीने के पश्चात अब मैंने जाना है कि तुम्हारे ऐसे कई विशेष गुण है जो मैंने और कहीं भी किसी में भी नहीं देखे।
माँ कितनी सारी स्मृतियां है तुम्हारे साथ। तुम्हारी शिक्षा भी सीमित रही और न ही तुम्हें ज्ञान अर्जन करने में विशेष रूचि थी, परंतु तुम्हारे हृदय में सबके प्रति कूट-कूट कर प्रेम भरा हुआ था. जिसमें छोटे-बड़े, अमीर गरीब के प्रति कोई भेदभाव नहीं था। वह प्रेम, सद्भाव, उदारता और निस्वार्थ भाव से भरा विशुद्ध प्रेम था, जो मैंने अन्यत्र कहीं नहीं देखा। मेरे अपने बचपन में ऐसे कई उदाहरण हैं जो इस बात की पुष्टि करते हैं।

मुझे याद है,बच्चों की देख रेख के लिए हमारे घर पर एक महिला पारुल दी रहती थी अपनी बेटी कमली के साथ। उनके सुख -दुःख का तुमको बड़ा ख्याल रहता था। जब कमली का विवाह हुआ, तुम्हारी उदारता की चरम सीमा देखने को मिली। कमली का रिश्ता हो नहीं पा रहा था। जब तुमने पारुल से इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि लड़के वाले सोने के गहने की मांग कर रहे हैं, इसलिए शादी में मुश्किल पड़ रही है। तुम बोलीं कि “यह तो कोई बात नहीं हुई, सोना नहीं है तो लड़की की शादी नहीं होगी।” इसके बाद तुमने कमली के लिए सोने के गहने बनवाएं और उसका विवाह हो गया।
हर वर्ष दुर्गा पूजा अष्टमी के दिन तुम्हारी उदारता का एक और उदाहरण मिलता था जबकि तुम पास -पड़ोस की कई लड़कियों को कंजिका भोजन खिलाती थी। तुम सभी लड़कियों को केवल भोजन ही नहीं करातीं बल्कि सबको नए कपड़े भी बनवा कर देती थीं।
पड़ोस के सभी नौकर चाकर हमारे घर शाम की चाय पीते थे क्योंकि उनके मालिक चाय नहीं देते थे। तुमको इसमें कोई आपत्ति भी नहीं थी।
तुमको हिंदी सिनेमा देखने का बहुत शौक था। प्रायः सभी नई पिक्चर की तुम पहले से ही टिकट मँगाकर रखती थी, बिना सोचे कि कौन जाएगा। जब मेरी पढ़ाई बढ़ गई तो मैं अपनी टिकट में बुआ की लड़की मुन्नी को भेज देती थी, वह भी बहुत खुश होती थी। तुम्हारे संग पिक्चर देखना सभी बच्चों को बहुत अच्छा लगता था, क्योंकि इंटरवेल में जिस बच्चे को जो भी खरीदना हो तुम सबको खरीद देती थी, जैसे, आलू के चिप्स, पॉपकॉर्न, आइसक्रीम इत्यादि। सारे बच्चे खुशी-खुशी घर लौटते। मुन्नी हमेशा कहती थी तुम लोग कितने भाग्यशाली हो कि तुम लोगों को ऐसी माँ मिली है।
बचपन में तुम कैसी थी, क्या सोचती थी, कभी-कभी इस विषय में मैं जानना चाहती थी। पर तुमने कभी भी इस बारे में किसी से भी बातचीत नहीं की। तुम शायद बतलाना चाहती नहीं थी और क्या था बतलाने लायक? बचपन में ही 8 वर्ष की अवस्था में तुम्हारी मां चली गई। पिता ने जैसे परिवार से संन्यास सा ही ले लिया था। वे केवल अपने दो बड़े लड़कों के साथ अलग रहने लगे और बाकी बच्चे अपने मामा -मासी के यहां पलने लगे। तुम भी अपने नाना के घर अपनी छोटी बहन के साथ आ गयीं। वहां मामी- मामा और कई बच्चों के साथ रही थी। यद्यपि कोई तकलीफ तो नहीं थी पर माता पिता के प्यार से तो वंचित तुम रही, कुछ विशेष नहीं था तुम्हारे पास बात करने को। तुम्हारा विवाह तो साधारण घर में ही हुआ था, पर सौभाग्य से कालान्तर में बाबूजी के व्यवसाय में सफलता के कारण तुम्हारे बहुत सारे शौक पूरे हुए।
बाबूजी के व्यवसाय में सफलता के संबंध में भी एक रोचक कहानी है कुशाग्र बुद्धि संपन्न होने के उपरांत भी मैट्रिक के आगे पढ़ाई न कर सके। उनकी माँ ने उनसे स्पष्ट रूप से कह दिया था की नौकरी खोजो नहीं तो तुम्हारी तीन बहनों को कौन पार लगाएगा। उन्होंने माँ की बात का निरादर तो नहीं किया पर साथ ही एक शर्त रख दी कि काम के पश्चात शाम को रोज पुस्तकालय में जाकर पढ़ेंगे, उस पर कोई आपत्ति नहीं की गयी। नौकरी तो मिल ही गई। स्वाध्याय में लगे रहे, पढ़ने -लिखने में विशेष रूचि थी। स्मरण शक्ति तीव्र होने के कारण उन्हें कविताएं बहुत जल्दी याद हो जाती थीं। इसी अध्ययन के बल पर उन्होंने संस्कृत, उर्दू और बांग्ला भाषा को अपने आप ही सीखा। विवाह के बाद जब व्यवसाय में उन्नति होने लगी तो तुमने सोच लिया कि अब तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो गए हैं और तुम्हारे सारे शौक पूरे होने का समय भी आ गया और तुम मनमाना भी खर्च कर सकती हो।
जीवन के इस पड़ाव में तुम्हारा सबसे बड़ा कष्ट था तुम्हारा निस्संतान होना। संतान होने की संभावना के उपरांत भी बच्चे समय के पहले ही चले जाते। सात बच्चों के असमय चले जाने के पश्चात मेरा जन्म हुआ के कारण मेरा नाम आशा रखा गया। तुम मुझको किसी को छूने भी नहीं देती थी मेरी दादी को भी नहीं। दादी उनके इस कष्ट को, उनकी भावना को समझती थीं क्योकि वे भी तो एक माँ थीं।
जहां तक मुझे याद है कि मेरे प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण अतिरिक्त सुरक्षा पूर्ण रहा। शादी के पहले कभी भी मुझे रसोई घर में जाने ही नहीं दिया। दादी को लगता था कि ब्याह के बाद लड़की क्या करेगी। तुम सहजता से कह देती थी कि “कोई बात नहीं, हम अपने पैसे से नौकर रखवा देंगे उनके घर।“ इसी से पता चलता है कि तुममें प्यार तो बहुत था सबके लिए. लेकिन व्यवहारिकता का सर्वथा अभाव था विदेश में. विवाह होने के कारण घर का काम करनेवाले को रखना हमारे बस की बात नहीं थी, सब काम सीखा।
बचपन में मुझे याद है कि जब मेरी परनानी का देहांत हुआ तो कमला नानी के यहां मेरी परनानी का कामकाज इतनी धूमधाम से मनाया गया, तब तुमने नाटक जैसा कुछ किया था जिसमें तुम कुर्ता पहन के तुम धोबी का पात्र भी निभा रही थी। गाने के साथ तुम्हें नाच की क्षमता भी थी| तुम इतना अच्छा गाती थी कि जब भी शादी ब्याह या किसी का बच्चा होने पर सोहर गाना हो तो सब जगह तुम्हारा ही नाम पुकारा जाता। तुम्हारे देर से आने पर भी हारमोनियम बजाने के लिए सब तुमको बुलाते थे। तुमको गाना गाने का तो इतना शौक था कि उस जमाने में तुमने स्केल चेंजर हारमोनियम खरीदा और हम बच्चों ने उसी हरमोनियम पर खेल-खेल में हारमोनियम बजाना भी सीख लिया। कभी भी तुमने यह नहीं कहा कि इतना महंगा हारमोनियम है खराब हो जाएगा। शायद तुमको यह खुशी थी कि बच्चे संगीत सीखना चाहते हैं। उस समय मुझे गाना सीखने में रुचि नहीं थी क्योंकि मुझे नाचने का शौक था। तुम्हारा मानना था कि नाच लड़कियों के जीवन में काम नहीं आता, गाना काम आता है। यद्यपि बचपन में 3 वर्ष तक कत्थक नाच हम दोनों बहनों को तुमने सिखाया था। कुछ ही वर्षों के बाद एक दिन अचानक बिना किसी सूचना के तुम 36,000 रुपयों का एक प्यानो खरीद कर ले आई। किसी को बजाना भी नहीं आता था, पूछने पर तुमने इतना ही कहा कि “बस शौक था खरीदने का तो खरीद लिया।“
शायद ईश्वर की कोई प्रेरणा ही रही होगी, तभी मेरा छोटा भाई खेल-खेल में इतना अच्छा प्यानो बजाने लगा कि लोग दूर-दूर से सुनने आते थे। वह कोई भी गाना प्यानो में निकाल लेता था। कालान्तर में उसने माउथ ऑर्गन, गिटार और कीबोर्ड बजाना भी सीख लिया। तुमको जीवन को सुंदर ढंग से जीने का, अच्छे ढंग से रहने का बहुत शौक था। अच्छा खाना, अच्छा पहनना, घूमना फिरना, सिनेमा देखना, ठाठ से रहना और अपने परिवार को हर प्रकार की सुविधाओं से भरपूर करके रखना।
हम बच्चों के लिए अच्छा से अच्छा कपड़ा तुम अच्छे दर्जी से सिलवाया करती थीं। जब हम किसी वेकेशन पर जाते तो हमारे सूटकेस में हर कपड़ा नया रहता, इसके लिए कितने दिन से उसके लिए तैयारी करती। बचपन की एक और बहुत मधुर स्मृति है। एक बार तुमने हम दोनों बहनों के लिए एक बहुत महंगे कपड़े की फ्रॉक सिलवाई। पारुल की लड़की कमली की भी इच्छा हुई कि उसको भी वैसी ही ड्रेस चाहिए और उसने तुमसे निसंकोच कह भी दिया। तुमको उसके प्रति बड़ी करुणा हुई। तुमने उसके लिए भी वैसी ही हम लोगों की तरह एक ड्रेस सिलवा दी और कमली बहुत खुश हो गई। पर उससे एक समस्या भी पैदा हो गई। जब हम लोग तीनों एक ही ड्रेस पहन कर घूमने गए तो पड़ोस के कुछ बच्चे हम दोनों बहनों को यह कहकर चिढ़ाने लगे कि देखो तुमने दैया की लड़की के जैसी ड्रेस पहनी है। कभी-कभी बच्चे भी बड़े निर्दयी होते हैं।
प्रायः ऐसा होता कि पास पड़ोस के नौकर चाकर उधार मांग कर मेरी माँ से ले जाते, यह जानते हुए भी कि वे पैसे कभी भी वापस नहीं मिलेंगे तुम उनको दे देती और कभी पूछती भी नहीं कि कब मिलेगा क्योंकि तुम्हारे मन में यही होता गरीब आदमी कहां से उधार चुकाएगा।
मुझे ऐसा लगता है कि माँ बचपन में तुम्हारे सभी कार्य कलापों तथा व्यवहार का मैं कभी भी सही मूल्याङ्कन नहीं कर पायी। अपने जीवन को अनेक वर्षो को जीने के उपरान्त अब पुनः तुमको समझने का प्रयास कर रही हूँ। तुम्हारी उदारता, सहृदयता और सकारात्मक सोच सबके लिए प्रेरणा है, यही मुख्य कारण है कि मैं तुम्हारे सम्बन्ध में लिखना चाहती थी। कितना सीधा, सरल,सच्चा व्यक्तित्व था तुम्हारा !
यद्यपि माँ, इस जग की सीमाओं से, तुम दूर हुईं।
फिर भी मुझे लगा करता है, हो सदैव तुम पास यहीं॥
जबतक मैं हूँ, तुम हो मुझमें, दूर नहीं हम हुये कभी,
माता का नाता ही होता, सब सम्बन्धों का आधार॥
माँ बनकर ही मैंने जाना, क्या होता है माँ का प्यार।
– आशा बर्मन