
– विनोद पाराशर
स्त्री की पहचान!
जब वह
पैदा हुई
तो बनी
किसी की बेटी
किसी की बहन
बढ़ती रही
खर-पतवार-सी
करती रही
सब-कुछ सहन।
जवान हुई
बन गयी
किसी की पत्नी
किसी की भाभी
तो किसी की पुत्र-वधु!
विष पीकर भी-
घोलतीं रही
ओरों के जीवन में मधु।
फिर बनी-
किसी की माँ
बच्चों को बड़ा करने में
क्या क्या नहीं सहा?
अब-
जब बड़े हो गये हैं बच्चे !
बच्चों के भी हो गये हैं बच्चे !
अब सभी बुलाते हैं-उसे
रिंकू की दादी।
जीवन के
इस संध्या काल में
सूखा बरगद-सी खडी़
वह सोचती है
इन सब में-
वह कहाँ है?