(मूल मैथिली कविता श्री मंत्रेश्वर झा, भारत)
हिन्दी अनुवाद – आराधना झा श्रीवास्तव, सिंगापुर
कैसे पाटी जाएगी ये खाई?
ये पीढ़ियों का अन्तर
जो निरन्तर होती जा रही है गहरी
बाप को बेटा और बेटा को बाप
कभी नहीं सुहाया ।
‘पुत्रात् शिष्यात् पराजय’ का सिद्धान्त
पुस्तकों में ही बहाया गया।
‘चिरजीवी’ परशुराम को नहीं सुहाया कर्ण;
‘प्रियदर्शी’ अशोक को
क्या सुहाया था कुणाल?
औरंगजेब से क्या देखा गया
शाहजहाँ का भाल?
बेटे के जन्मते ही ताली पीटना
कभी नहीं होता है बन्द
किन्तु पश्चाताप में बदल जाता है
– क्षणिक सुख का यह आनन्द।
टुकड़ों टुकड़ों में तब बजती है ताली
‘जय माँ काली’ अन्धेरजाली
बाप के मरने के दु:ख को चबा
– जाता है काल।
अकाल – महाकाल
निकलती है गाली और
निस्संकोच हो चलती है कुदाल।
तब कैसे पाटी जाएगी ये खाई
ये पीढ़ियों का अन्तर
जो निरन्तर होती जाती है गहरी।
एक खाई भरने के लिए
केवल दूसरी खाई खोदी जाती है
इसीलिए एक पर दूसरी
दूसरी पर तीसरी खाई का
जाल बिछता चला जाता है
पीढ़ी पीढ़ी का अभियान
बढ़ता जाता है
पीढ़ी, जिसके पैर पाताल में
पक गए हैं
पीढ़ी, जिसका सिर
आकाश तक पहुँच गया है।
तब कैसे कोई सिल पाएगा
इस फटे विश्वास को
कैसे कोई चाट पाएगा
क्रान्ति की इस व्याधि को?
इसीलिए यह प्रश्न –
कि कैसे पाटी जाएगी ये खाई,
पीढ़ियों का यह अन्तर,
जो निरन्तर होती जा रही है गहरी।