
अधूरी उड़ान
– शिखा रस्तोगी, थाईलैंड
चाहा था नभ को छूना, सपनों को रंग देना,
पर हर मोड़ पर कहा गया — तू लड़की है, संयम से रह लेना।
हर कहानी के पीछे एक सिसकी होती है। कभी कही नहीं गई, बस महसूस की गई। यह कहानी एक लड़की की है, इससे मिलती–जुलती कितनी ही कहानियाँ हर घर की दीवारों के पीछे कैद हैं। अनकही, अनसुनी, अनदेखी। यह सिर्फ़ एक लड़की की बात नहीं, यह उस सोच की बात है जो ‘लड़की‘ शब्द को सीमाओं की परिभाषा मान बैठी है। यह कहानी उस संघर्ष की दास्तान है, जिसमें सपने उड़ना चाहते हैं, पर परंपराओं की बेड़ियाँ उन्हें ज़मीन से बाँध देती हैं। यह प्रश्न है क्या लड़की होना ही एक अपराध है? साथ ही यह उत्तर भी है कि हर चुप्पी, एक दिन आवाज़ बनती है। इस कहानी को पढ़ते समय मैं चाहती हूँ कि आप सिर्फ़ मेरा चेहरा नहीं, हर उस लड़की की आँखों को देखें, जो आज भी अपने पंखों को खोलने के लिए छुप–छुपकर खिड़कियों से आसमान निहारती है।
हम समाज में रहते हैं और यह समाज केवल इमारतों, सड़कों और गलियों से नहीं बना, बल्कि लोगों की सोच, परंपराओं और मान्यताओं से बना होता है। वहीं सोच जो हमारे घरों में बिना कहे दस्तक देती है, और हमारी ज़िंदगी की दिशा तय कर देती है खासकर तब, जब हम “लड़कियाँ” होते हैं।
मैं पाँच बहनों में से एक। एक ऐसा घर जहाँ प्यार भी था, शिक्षा भी, और सुविधाएँ भी — पिता सरकारी अभियंता, माँ कुशल गृहणी। हम सब बहनों का राजकुमारियों जैसा पालन-पोषण हुआ। घर में किसी चीज़ की कमी नहीं – नौकर-चाकर, सुविधाएँ, सब कुछ… पर फिर भी उस सजे-संवरे घर में एक खालीपन था — एक अधूरापन। जो हमारे नहीं, समाज की नज़रों में था — और वो था, “लड़कियाँ” होना। हमें कभी माता-पिता ने नहीं रोका, लेकिन समाज की अदृश्य बेड़ियाँ हर मोड़ पर सामने आ खड़ी होतीं।
“तुम अकेली बाहर कैसे जाओगी?”
“लड़की होकर नाइट ड्यूटी?”
“स्कूल दूर है, साइंस मत लो, अरे बेटा, आर्ट्स ले लो, ये क्या ज़िद है?”
“घर से दूर? कौन जाएगा साथ?”
हर सपने से पहले, मेरे ‘लड़की’ होने की शर्त रख दी जाती।
कानून की पढ़ाई की। वकालत करना चाहा। न्यायिक अफसर बनना चाहा आँखों पर पट्टी बाँधकर नहीं, बल्कि आँखें खोलकर सच देख सकूँ। — तब भी रोक लगी। मैंने क्वालिफाई किया, पर जॉइन नहीं कर पाई।
रेडियो की दुनिया ने आकर्षित किया — आवाज़ से लोगों के दिलों में जगह बनाना चाहा। रेडियो एनाउंसर बनने का सपना देखा। टीवी स्क्रीन पर मुस्कुराते हुए दिखना चाहा। मैंने वो परीक्षा पास की। सिलेक्शन हुआ। स्टूडियो शहर के बाहर था। और उसमें नाइट ड्यूटी की भी संभावना थी। समाज की सोच ने फिर से पूछ लिया —”हर वक्त तुम्हारे साथ कौन रहेगा?”
लड़की हो, कैसे रहोगी?” और मैं चुप रह गई। मैंने सफलता का स्वाद चखा — पर निगल न सकी।
मैंने पुलिस सेवा में जाने की ठानी। परीक्षा दी, पास की, इंटरव्यू का बुलावा आया। लेकिन उसी समय दादाजी की तबीयत खराब हो गई। पापा काम में व्यस्त थे, और कोई साथ नहीं जा सका। मैं अकेली नहीं जा सकती थी — क्योंकि मैं “लड़की” थी।
हर बार मेरी योग्यता, मेरे सपने, मेरी मेहनत, मेरा आत्मविश्वास — सब कुछ, मेरे ‘जेंडर’ के तराजू में तौला गया।
हर दरवाज़े पर, हर मौके पर, एक ही सवाल —“लड़की हो, कैसे करोगी?”
मैंने पुलिस सेवा में जाने की ठानी। परीक्षा दी, पास की, इंटरव्यू का बुलावा आया।
लेकिन उसी समय दादाजी की तबीयत खराब हो गई। पापा काम में व्यस्त थे, और कोई साथ नहीं जा सका।
मैं अकेली नहीं जा सकती थी — क्योंकि मैं “लड़की” थी। फिर से वही उत्तर मिला: “तुम लड़की हो, कैसे जाओगी?”
एक से बढ़कर एक अवसर मेरे सामने आए, पर हर बार लड़की होने के अभिशाप और पुरुष साथी की आवश्यकता की शर्त ने मुझे रोक दिया। मन चुप रहता, पर आत्मा पूछती रही — “क्या लड़की होना, इतना बड़ा अपराध है?”
क्या पढ़ना है, क्या पहनना है, कब घर लौटना है — हर बात को मेरी देह की पहचान से जोड़ा गया।
समाज ने हर निर्णय हमारे “जेंडर” से जोड़ दिया। सब कुछ हमारे स्त्री होने की सीमाओं में बाँध दिया गया।
समाज ने निर्णय लेने का अधिकार भी मेरे स्त्रीत्व से बाँध दिया।
आज, मैं एक शिक्षिका हूँ — विदेश में, आत्मनिर्भर, शिक्षित, और हिंदी भाषा की प्रतिनिधि।
आज मैं सैकड़ों बच्चों की प्रेरणा हूँ। पर दिल के किसी कोने में कुछ सपनों की चुभन अब भी बाकी है। कुछ टूटे पंख सहेजे बैठी हूँ। वो सपने जो पूरे हो सकते थे, अगर मैं “लड़की” न होती। लोग कहते हैं — “जो हुआ, किस्मत में लिखा था।
“मैं पूछती हूँ — “क्या किस्मत भी स्त्री-पुरुष देखकर लिखी जाती है?”
जब शादी की बात आई, तब भी यही सोच हावी रही — “लड़की तो पराया धन है”, “उसे एक दिन ससुराल जाना ही है”।
“अपने माँ-बाप के साथ कब तक रहेगी?” एक लड़की अपने माता-पिता की सेवा करना चाहती है। उनके साथ बुढ़ापे में खड़ी रहना चाहती है, लेकिन समाज उसे उसके जन्म के घर में भी मेहमान बना देता है। बचपन से ही उसे सिखाया जाता है,”ऐसे मत बोलो, ससुराल में क्या कहेंगे?” “ऐसे मत हँसो, वहाँ क्या सोचेंगे?” “तुम्हें तो उस घर में नाम कमाना है।”
और लड़का? उसके लिए न कोई वर्जना, न कोई रुकावट।
शादी के बाद लड़की को फिर से खुद को बदलना होता है। पति के घर के अनुसार, उसकी सोच, उसकी परंपरा, उसके नियम।
जिस घर में जन्म लिया, वो छूट गया। जिस घर में ब्याह कर आई ,वो कभी पूरी तरह उसका नहीं हुआ।
अगर वह खुद का घर भी बना ले, अपनी पहचान भी पा ले —
तब भी वो ‘किसी की पत्नी’, ‘किसी की माँ’, ‘किसी की बहू’ बनकर पहचानी जाती है।
उसका अपना ‘मैं’ कहाँ गया? उसका अपना ‘स्वत्व’, उसका ‘अधिकार’ — कहाँ है?
वह सबको देती है — अपने सपने, अपनी इच्छाएँ, अपनी आज़ादी — लेकिन उसकी पीड़ा को समझने वाला कोई नहीं।
जिस स्त्री ने संसार को जन्म दिया, उसी के लिए संसार में कोई ठिकाना क्यों नहीं है
यह कहानी केवल एक लड़की की नहीं, हर उस लड़की की आवाज़ है, जिसे अपने सपनों से सिर्फ इसलिए समझौता करना पड़ा, क्योंकि वो ‘लड़की’ थी।
उन आँखों को जो सपने तो देखती हैं, पर हर बार ‘लड़की’ कहकर रोक दी जाती हैं।
उन पंखों को, जो आसमान छूना चाहती हैं, पर ज़मीन की बेड़ियाँ उन्हें बाँध लेती हैं।
उन आवाज़ों को, जो अपनी बात कहना चाहती हैं, पर ‘संस्कार’ के नाम पर चुप करा दी जाती हैं।
यह कहानी है हर उस स्त्री की जो संसार को जन्म देती है, पर अपने ही जीवन में ‘अपना’ कोई कोना नहीं पाती।
यह कहानी एक प्रश्न है — क्या स्त्री होना ही हमारी पहचान की सीमा है?
या अब समय है उस सोच को बदलने का — जो सपनों को जेंडर से तौलती है।
यह कहानी समर्पित है हर उस बेटी को,
जो चुप रही — फिर भी हारी नहीं।
जो झुकी — पर टूटी नहीं।
जो थमी — पर रुकी नहीं।
और जिसने अंततः खुद को फिर से गढ़ा, एक नई चेतना, एक नई रोशनी बनकर।
पंख थे अधखुले, आसमान बुलाता रहा,
ज़ंजीरों में बंधी रही, फिर भी उड़ना चाहा।
सपनों की राहों में भेद की दीवारें थीं,
फिर भी हिम्मत ने हमेशा उम्मीद जगाई।
जो टकराई अंधेरों से, वो खुद रोशनी बन गई,
जो चुप रही बरसों , वो आवाज़ की जननी बन गई।
जिसे रोका हर मोड़ ने ,वो प्रश्न बन समाज समक्ष खड़ी हो गई।
चुप पर टूटी नहीं ,चुप्पियाँ ओढ़कर जिंदा रही,
हर हार में उम्मीद की परछाई रही,
हर बार ‘लड़की’ कहकर रोकी गयी,
वो आज अपनी पहचान बन गई।
मैं इतिहास नहीं, एक नई शुरुआत हूँ,
मैं प्रश्न नहीं, परिवर्तन की बात हूँ।
समर्पित —
उन स्त्रियों को,
जिन्होंने नज़रें झुकाकर नहीं, दुनिया की सोच बदलकर अपनी पहचान बनाई।
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