अपने बुजुर्गों को अकेला मत छोड़िए

डॉ शिप्रा शिल्पी

जर्मनी में विगत एक दशक से ज्यादा समय हो गया है। यहां के जीवन मे सहज रूप मे रम भी चुकी है, अपनी बहुत सारी व्यक्तिगत एवं व्यवसायिक व्यस्तताओं के मध्य हर रविवार 2 घण्टे का समय सुनिश्चित है, बच्चों के हिंदी शिक्षण के लिए एवं विशेष रूप से यहां के अकेले रह रहे बुजुर्गों के लिए। ये कोई काम नहीं है, ये मेरा सुकून है।

पर इस यात्रा में जो अनुभव हुए उन पर ये पोस्ट लिखनी जरूरी लगी क्योंकि ये बात हम क्या कर रहे की नहीं है, ये बात है लोगों के मन पर क्या गुज़र रही, उनकी भावनाओं की। बुजुर्गों के लिए सभी सुख सुविधाओं से लैस घरों को यहां Altheim (ऑल्ट का अर्थ यहां “पुराना” भी है और “वृद्ध जनो के लिए भी प्रयोग किया जाता है, heim अर्थात घर) कहा जाता है।

ऊपरी तौर पर वृद्धावस्था में जरूरत होती है, किसी के साथ की और बेहतर देखभाल की। जिसकी कमी यहाँ पर काम करने वाले डॉक्टर व अन्य कर्मचारी पूरी कर देते है। जिन्हें यहां की भाषा मे Altenpflege कहा जाता है। यहां रहने वाले बचपन से ही Do not disturb एवं Personal Space पालिसी को priority देने वाले, एकांत में रहते हुए भी एकाकीपन की समस्या से जूझ रहे है। जिसका असर मानसिक रोगों, अवसाद, ड्रग्स के सेवन, अराजक गतिविधियों के रूप मे हमेशा से दिखता भी आया है। मन के एकाकीपन की यह स्थिति सच में भयावह है। जो आज के परिदृश्य में एक ऐसी समस्या है जिसका इलाज सिर्फ हमारे ही अंदर होता है, पर हम ढूंढ दूसरों में रहे होते है।

हमारा बुजुर्गों के साथ समय बिताना, हमारे एकांत का ही एक भाग है, जहां हम भले ही बॉलीवुड गाने गाते हो या संस्कृत से जर्मनो के लगाव के कारण, संस्कृत श्लोकों का पाठ करते हो, योग, मेडिटेशन, नृत्य भी करते हो और उनको भी नृत्य करवाते हो, साथ ही पेंटिंग, गेम्स, उनकी सुनना, उनके अनुभव, संस्कृति, पर्व त्योहारों के बारे मे जानने की कोशिश करर्ते हो पर हां कुछ समय उनका हाथ थामकर, बिना कुछ बोले, उनको सुनते हुए, उनके साथ बैठना कभी नहीं भूलते। इसे प्रेम, सद्भावना, एवं सकारात्मक ऊर्जाओं का ट्रांजिक्शन कह सकते है आप।

जो मन को विश्वास दिलाता है “मै हूं न” । आज नहीं तो कल सबको इस मैं हूँ न के भाव की जरूरत पड़ेगी। ये सब भाता है हमें, भाषा कभी बैरियर नहीं बनी, क्योकि साथ होने का भाव ही काफी होता है, ऐसे रिश्तों में।

हमारे देश मे यदि मैं अपने बचपन से आज तक कि बात करूं, तो मेरी हर बात में, मेरे हर अपने को, बोलने का, जानने का, यहां तक कि मेरे लिए गए फैसलों को बदलने का भी हक़ है। आज के बदलते परिवेश में स्पेस के साथ, हर बात मे शामिल रहना जरूरी है, मैं अपने बेटे को उसके फैसलों मे प्रभावित तो नहीं करती पर वो चाहे न चाहे मैं पक्ष विपक्ष रखती जरूर हूँ। और एक सीमा तक इसे दखल नहीं, परवाह या चिंता, कंसर्न कहते है ताकि उसे एकाकीपन का कभी एहसास न हो, हम है उसके साथ, उसके लिए हर क्षण ये विश्वास देना होता है।

ये शुरुआत हुई मेरे पड़ोस में रहने वाली 80 वर्षीय अलेक्जेंड्रा से हर शुक्रवार की शाम एक कप कॉफ़ी के साथ। अलेक्जेंड्रा अकेली रहती है, और मुश्किल से चल पाती है बच्चे है उनके पर सब बाहर, आते जाते रहते हैं, पति आर्मी में थे वर्षों पूर्व वो उन्हें छोड़कर चले गए। एक दिन उन्होंने भारतीय खाने की इच्छा जताई, मैंने भी उन्हें बिरियानी बनाकर दी बात सहज थी अक्सर अपने इंटरनेशनल दोस्तों के लिए मैं भारतीय व्यंजन बनाती रहती हूँ। पर विशेष ये था खाना हाथ में लेते हुए वो रोने लगी। भींच कर गले लगा लिया बस इतना बोली तुम नहीं जानती तुमने क्या किया है मेरे लिए। और उस पल लगा हमेशा अपने एकांत में रहने को अपनी चॉइस बताने वाली, अलेक्जेंड्रा कितनी एकाकी है। लड़ रही है वो अपने एकाकी पन से।

आज के डिजिटल युग मे हमसब कहीं न कहीं एकांत चाहते है, पर ये भी सच है लड़ रहे हैं एकाकीपन से। जो वैक्यूम की तरह हमारे मन को जकड़ लेता है। हो सकता है आज हमारे अपनो का हमारे जीवन मे बेधड़क दखल हमें अनमना करता हो। पर सच तो ये है हमारे अपनों, दोस्तों का ये दखल भले ही हमें एक पल का एकांत न दे, पर एकाकी नहीं होने देता। जो कि वरदान है आज के समय में।

सोचियेगा……

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