
– दूर्वा तिवारी, ऑस्ट्रेलिया
कविता
एक नई कविता की ख़ातिर मैं स्याही हो जाऊँगी
रिक्त हृदय में ढूँढूंगी
निःशब्द मेरे सारे अनुभव
फिर धीमे-धीमे दूँगी मैं
रूप उन्हें यथा सम्भव
कुछ होंगीं बिसरी सी स्मृतियाँ
और कुछ जानी पहचानी सी
जो सिमटी होंगी कोनों में
खोई-खोई बेमानी सी
प्रेम पाश में बांध के उनको, फिर से मैं सहलाऊँगी
एक नई कविता की ख़ातिर मैं स्याही हो जाऊँगी
नित घटता है जो जीवन में
सब रहता है अंतर्मन में
अभिव्यक्त नहीं हो पाता तो
बहता नस-नस के स्पन्दन में
कुछ स्वप्न कहीं अधूरे से
कुछ किस्से पूरे-पूरे से
बैठे होंगे बेबस यूँ ही
कि कब उनको बतलाऊँगी
भावो की रत्न मंजूषा को, खाली कैसे कर पाऊँगी
एक नई कविता की ख़ातिर मैं स्याही हो जाऊँगी
मेरे भीतर के दर्पण में
प्रतिबिंब तुम्हारा भी तो है
जो है मैंने महसूस किया
वो दर्द तुम्हारा भी तो है
जब उतरुंगी कागज़ पर मैं
तुम खुद को भी तो पाओगे
नहीं हो तुम अब एकाकी
स्वतः व्यक्त हो जाओगे
इत्र सुगंध की भांति
मैं ‘स्वयं’ ही ‘तुम’ हो जाऊँगी
एक नई कविता की ख़ातिर मैं स्याही हो जाऊँगी