– शशिकला त्रिपाठी, भारत

बाजार में त्योहार

अब त्योहार झूमने लगे हैं
रसिकों में, जाति विशेष के समूहों में
क्लबों में, बेड़ों पर, बड़े-बडे होटलों में
जनता की पहुँच से दूर
गाई जाती है लोकगीत कजरी-चैती
तबले पर बजता है दादरा-कहरवा
धा धी ना धा तू ना, धा गे न ति नक धिन।

लेकिन घरों में या पास-पड़ोस में
किसी त्योहार पर नहीं उठते उमंग-तरंग
होली तक नहीं करती पड़ोसियों के
तन-मन को रंगों से सराबोर
मार्बल के फर्श भी रह जाते कोरे
उन पर पहाड़ों से उतर हों जैसे हिम-खंड
सड़कें भी सूनी जैसे लगाए हों ऋषिगण धूनी।

लेकिन, त्योहारों पर
बाज़ार में मचता है खूब धमाल
आत्मनिर्भर देश की दुकानें
अलंकृत होती हैं चीनी उत्पादों से ज़्यादा
साम्राज्यवादी ताक़तें मनाती हैं
धूमधाम से भारतीय त्योहार
उत्पादों की चकाचौंध से
फ़ेमिनिस्ट भी पूजने लगी हैं करवा।

त्योहारों पर
अख़बार बन जाते हैं विज्ञापन
उन्हें फर्क नहीं पड़ता
नवरात्रि शारदीय है या वासंतिक।
अर्धनग्न सुंदरियाँ
बढ़ातीं है उत्पादों की माँग
उन्हें पहुँचना है घर-घर माल।
लाखों की लालच में
बेचारे अभिनेता खाते हैं पान-पराग
चुनते हैं मज़बूत दीवार और
रसोईघर में बनाते हैं मसालेदार सब्ज़ियाँ।

चौराहों के बाज़ार में खूब रहती चहल-पहल
क्रेता-विक्रेता मनाते हैं त्योहार दिन-रात
उत्पादों से अब सीखने लगे हैं बच्चे
त्योहारों के अर्थ और रीतियाँ
खाद्य पदार्थों का विशेष स्वाद
जिन्हें टिकाए रखना चाहते हैं जिह्वा पर
अगले बरस की प्रतीक्षा में।

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