
खुद से खुद की पहचान कराती कहानियां

– अलका सिन्हा
प्रसिद्ध कथाकार उर्मिला शिरीष के कहानी-संग्रह ‘मैं उन्हें नहीं जानती’ की कहानियों को पढ़ते हुए ब्रॉनी वेयर की लिखी किताब ‘द टॉप फाइव रिग्रेट्स ऑफ द डाइंग’ का ध्यान आता रहा जिसमें लेखिका ने मरणासन्न व्यक्तियों से संवाद कर उन पांच बातों को व्यक्त किया है जो लगभग सभी के लिए समान रूप से पश्चाताप का कारण बने हैं। ‘मैं उन्हें नहीं जानती’ की अधिकतर कहानियों के पात्र जीवन के अंतिम चरण में किसी माध्यम से उस पश्चाताप को व्यक्त करते हैं जो उन्हें ताउम्र सालता रहा।
उर्मिला शिरीष की कहानियां लंबे अरसे से पढ़ती रही हूं। उर्मिला जी की कथात्मकता हर कहानी में अलग-अलग विषय उठाती है और उनकी शैली भी पात्र के अनुरूप खुद को ढालती चलती है। यह संग्रह कई मायनों में अपने ही पूर्व लिखित ढांचों को तोड़ता है और नए शिल्प का परिधान पहनता है। जीवन के अकेलेपन को एकांत राग से गुंजरित करती एक खास तरह की धुन अधिकांश कहानी के पार्श्व में बजती रहती है। संवादहीनता के दंश पर हावी होता यह एकांत राग वास्तविकता को स्वीकार कर मुस्कराने की कोशिश में कभी तीव्र, तो कभी मद्धम हो जाता है। यह राग विगत जिंदगी को फिर से जीने की ख्वाइश में ललककर गूंजता है और उस पल को बदलने की हिम्मत जुटाता है जिसने जीवन को पश्चात से ग्रस लिया था। यह सच है कि बीता वक्त लौटकर नहीं आता मगर कथाकार उसे पुनर्सृजित करती हैं और उन विकल्पों की पड़ताल करती हैं जो उसके पास तब भी थे मगर शायद समाज के भय से उसने उसका चुनाव नहीं किया।
पहली कहानी ‘देखेगा सारा गांव बंधु!’ में समाज के भय से नायक जिस दायित्व को पूरा नहीं कर पाया, उसका मलाल मृत्युपर्यंत बना रहता है। कहानी का मुख्य पात्र अपने पिता के गुजर जाने के बाद उनकी अलमारी, डायरी और लाल कपड़े में लिपटे भावात्मक अवशेषों से टकरा रहा है। यहां तक कि पुत्र अपने पिता को दोषी मानता है कि उन्होंने मां से विश्वासघात किया। वहां पिता मरते दम तक इस पश्चाताप से मुक्त नहीं हो पाता कि पत्नी के प्रति निष्ठावान रहने की प्रतिज्ञा में वह अपनी प्रेयसी के प्रति अपना दायित्व नहीं निभा पाया। अपनी तरह का जीवन न जी पाने का मलाल ‘तड़प’ उपनाम से लिखे गए पत्रों में साफ दिखाई पड़ता है जिसे उसका पुत्र कुछ हद तक निभाने का प्रयत्न करता है। कथाकार पुनः कुछ उसी तरह की परिस्थितियों को ‘दरवाजे’ कहानी में प्रस्तुत करती हैं। इस बार कहानी का नायक साहस के साथ आता है और जो मलाल ‘देखेगा सारा गांव बंधु!’ में बना रह गया था, उसे दूर करता है। ये दोनों कहानियां एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह मालूम पड़ती हैं जहां ‘दरवाजे’ कहानी बेहतर विकल्प के रूप में संभावना के नए द्वार खोलती है। ढलती उम्र के पड़ाव पर अस्वस्थता के दौर में, आत्म मंथन करते हुए इन कहानियों के पात्र पाठकों को उस जीवन को दोबारा से देखने का अवसर देते हैं और अंततः ‘दरवाजे’ कहानी का नायक अपनी तरह के जीवन को जीने का निर्णय लेकर कर मुक्ति का अनुभव करता है। इस तरह ‘दरवाजा’ कहानी संग्रह की पहली कहानी का री-मेक बनकर प्रस्तुत होती है।
अब प्रश्न यह भी उठता है कि यह साहस, यह हौसला जीवन के अंतिम चरण में ही क्यों! अगर इसे सही समय पर लिया जाता तब जो चित्र बनता, उसे ‘नियति’ कहानी में उकेरा गया है। कथा नायक दिनेश युवावस्था में ही अपनी पत्नी को खो चुका है। उधर विभावरी का पति उसे भरी जवानी में अकेला छोड़ कर आत्महत्या कर बैठता है। लेखिका इन दोनों को एक-दूसरे के साथ के लिए प्रेरित करती है और वृद्धावस्था में होने वाले अकेलेपन के अहसास से पहले ही सीमा, जोकि कहानी की नैरेटर भी है, उन दोनों को इस ओर सजग करती है। सीमा के प्रयासों से दोनों पात्रों के भीतर उस निर्णय को लेने का हौसला बनता है जो ‘दरवाजे’ कहानी के नायक को जीवन के अंतिम चरण में प्राप्त होता है और पहली कहानी का नायक जिसे न ले पाने के पश्चाताप के साथ ही संसार से विदा ले लेता है। इस तरह ‘नियति’ कहानी चर्चा में आई पूर्व दोनों कहानियों से आगे बढ़ जाती है जिसमें वक्त रहते अपनी पसंद का निर्णय लेने का साहस दिखाई पड़ता है।
संग्रह की अधिकांश कहानियां जीवन के अंतिम चरण में अपने जीवन का विश्लेषण करती मालूम पड़ती हैं। जीवनसाथी को खोने के बाद का एकाकी जीवन, वृद्धावस्था की शारीरिक व्याधियां और संवादहीनता इन कहानियों में संगत करती है। ‘स्पेस’ कहानी में भी इस अकेलेपन के भंवर में डूबता चरित्र है जो जीवन संध्या में अपने बेटे-बहू का साथ पाने को लालायित है। बहू से उसे वह प्रेम और अपनापन नहीं मिलता जिसकी तड़प लिए वह अपना घर, अपना देश छोड़कर उनके पास आई थी। ‘चल खुसरो घर आपने’ की अमिता भी उसी अकेलेपन से जूझते हुए अपने मां के घर आती है। इस भरे-पूरे घर में मां और अमिता दोनों ही अकेले हैं। यह अकेलापन कितना नागवार है जो हर किसी के समक्ष उन्हें बार-बार कठघरे में खड़ा करता है। मां को भाई-भाभी के साथ रहना है इसलिए वह चाह कर भी विरोध नहीं कर सकतीं। बहन अपना घर छोड़ कर आई है। कहीं यहीं तो न बस जाएगी? इस घर पर कब्जा तो न कर लेगी? ऐसे कितने ही सवाल उसे वापस अपने घर के अकेलेपन में लिए चलते हैं जहां कम-से-कम उसे हर तरह के अधिकार तो हैं। वह इस अकेलेपन से उबर नहीं सकती इसलिए उसी का वरण कर लेती है। इनके बरक्स ‘सप्तधारा’ कहानी बहनों के लिए भाई द्वारा एक ऐसा स्थान सुरक्षित करती है जहां भाभियों के क्लेश से बचते हुए सातों बहनें अपनत्व और अधिकार से आ-जा सकती हैं। इसी तरह ‘अत्र कुशलं तत्रास्तु’ में दादा जी सभी को एकजुट करने में कामयाब होते हैं। आज के समय में ‘अत्र कुशलम् तत्रास्तु’ एक तरह का ‘क्लीशे’ बन चुका है जिसके बाद संवाद का क्रम आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है। दादा जी द्वारा सभी को साथ बुलाने का प्रयोजन यही है कि उस अबोलेपन को तोड़ा जा सके जो आने वाली पीढ़ियों के बीच पनपने लगा है। दादा जी अपने पोते के माध्यम से इस जड़ता को तोड़ने में सफल होते हैं।
‘दुपट्टा’ इस संग्रह की बहुत जुदा कहानी है। एक महिला को नित नए दुपट्टे में देखकर लेखिका विचलित हो जाती है। यह दुपट्टा कभी बंधन लगता है तो कभी रूढ़िवादी सोच का पर्याय। जब कभी वह जीन्स के साथ संगत करता है तो वह आधुनिकता की धुन पर थिरकता मालूम पड़ता है। यह दुपट्टा कई तरह के विरोधाभास के साथ लेखिका के मन में हलचल पैदा करता रहता है। कई बार तो ऐसा महसूस होता है जैसे दुपट्टा ओढ़ती वह महिला स्वयं लेखिका ही है और वह अपना ही आत्मावलोकन कर रही है। तब यह दुपट्टा एक मेटाफर की तरह पुरातनता और नवीनता के बीच सेतु बनकर उभरता है। इसी तरह ‘पीले फूल’ शीर्षक कहानी पर्यावरण के प्रति सामूहिक दायित्व का बोध लेकर रची गई है। तथापि, अलग-अलग पात्रों और परिस्थितियों के मध्य कुछ है जो सभी कहानियों को एकसूत्र में बांधता है और ये कहानियां किसी उपन्यास के अलग-अलग दृश्यों वाले कोलाज की तरह दिखाई पड़ती हैं। इन कहानियों के बीच एक तरह की लयात्मकता इन्हें अलग होकर भी अलग नहीं होने देती है।
इन कहानियों के नायक संघर्षरत जीवन के बारे में दोबारा सोचते हुए कहीं-न-कहीं यह मानते हैं कि जिस समाज के भय से उन्होंने अपना जीवन अपनी तरह से नहीं जिया, वह समाज उनसे या उनके त्याग से कितना बेपरवाह रहा। कहानियां यह आकलन करती हैं कि समाज के मानदंडों पर खरे उतरने के लिए छलावे भरी जिंदगी को जिए जाना कितना तार्किक था।
संग्रह की शीर्षक कहानी में जिया के माध्यम से हर नागरिक को उसके कर्तव्य के प्रति जाग्रत कराया गया है। दरअसल, जिया हम सभी के भीतर रहती है मगर हम उसे जानते ही नहीं। उसकी ताकत को, उसकी तार्किकता को, उसकी क्षमता को हम पहचानते ही नहीं। वह जिस दिन आवाज उठाती है, उस दिन बड़े-बड़े दलाल और भ्रष्टाचारी औंधे मुंह गिरते हैं। मगर अफसोस कि हमें इसका अहसास मुश्किल से ही हो पाता है!
‘मैं उन्हें नहीं जानती’ कहानी-संग्रह उर्मिला शिरीष के लेखन का समेकित ग्राफ लेकर उभरता है। स्वयं को खोजती, अपना आकलन करती, विगत को नए विकल्पों से गढ़ती ये कहानियां उर्मिला शिरीष के जीवन दर्शन को समझने में सहायक होती हैं। इस संग्रह से पूर्व के लेखन पर दृष्टि डालें तो उर्मिला जी की कहानियां कहीं पात्र आधारित हैं तो कहीं परिस्थितियां आधारित। उनका उपन्यास जीवन संघर्ष के बिंब रचते हुए सामाजिक, आर्थिक और व्यावहारिक पक्षों पर प्रकाश डालता है। किंतु यह संग्रह स्वयं अपनी ही पड़ताल करता मालूम पड़ता है। अपने जिए हुए जीवन का आकलन करता है और नए विकल्प गढ़ता है। एक तरह की मानसिक विवेचना लगभग हर कहानी में दिखाई पड़ती है।
स्वेटर के खूबसूरत डिजाइन की तरह ये कहानियां अकेलेपन और संवादहीनता के दर्द को महीन बुनावट के साथ उकेरती हैं। आत्मविश्लेषण की प्रक्रिया से गुजरते हुए कभी बुनती हैं तो कभी उधेड़ती हैं। पहेलियों की तरह बार-बार खुद को ही सुलझाने की कोशिश करती दिखाई पड़ती हैं। ये कहानियां अलग और स्वतंत्र होते हुए भी अनुभूति की दृष्टि से कहीं एकसार होती मालूम पड़ती हैं। व्यक्ति अपनी उम्र की पूरी यात्रा का विश्लेषण करता है कि वह कहां से चला था, कहां रुका था और कहां वह अपने किए में थोड़ा फेरबदल कर पाता तो शायद वह बेहतर जीवन जी पाता। इसका भी लेखा-जोखा इन कहानियों में दिखाई पड़ता है।
इस लंबी यात्रा में उसने क्या खोकर क्या पाया इसका बहुत ही दार्शनिक अहसास इन कहानियों में उभरता है।
| कृति का नाम, विधा | मैं उन्हें नहीं जानती, कहानी-संग्रह |
| लेखक | उर्मिला शिरीष |
| प्रकाशक, ईमेल | शिवना प्रकाशन, shivna.prakashan@gmail.com |
| कुल पृ. 158 मूल्य 275/- | |
समीक्षक – अलका सिन्हा 9910994321
Email – lekhakalkasinhagmail.com
