
समीक्षा के भाषिक आयाम

– अलका सिन्हा
इसमें शक नहीं कि आजकल लेखक होना बहुत अधिक फैशन में है। यानी सभी लेखक बनना चाह रहे हैं। हद तो यह है कि लेखक को कसौटी पर परखने वाला तंत्र भी आजकल लेखक ही होना चाह रहा है। रातोंरात लेखक तैयार हो रहे हैं और उन्हें लेखक रूप में प्रमाणित करने वाले समीक्षक भी दरअसल लेखक ही हैं। क को ख लेखक प्रमाणित करता है और ख को ग लेखक। ग को क प्रमाणित कर देता है। यानी खुद ही लिख रहे हैं और खुद ही एक-दूसरे को प्रमाणित भी कर रहे हैं। आलोचना आज के समय में बहुत ही गौण या कहें औपचारिकता भर हो कर रह गई है। इसके भी कई कारण हैं। अब लेखक को छपने के लिए किसी संपादक की कसौटी पर खरे उतरने का इंतजार नहीं करना पड़ता है। अब वह फेसबुक, यूट्यूब जैसे अपने ही सोशल मीडिया पर खुद को पोस्ट कर सकता है। ऐसे में बहुत हद तक अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई है। इसलिए यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि ऐसे कैसे चलेगा… एक समय था कि पुस्तक प्रकाशित होने से पहले समीक्षकों के पैनल से गुजरती थी। संपादन मंडल उस पर चर्चा करता था, भाषा और शिल्प पर विचार कर यह निर्णय लिया जाता था कि इस पुस्तक को प्रकाशित करना कितना उचित रहेगा। मगर आजकल प्रकाशक पहला ही सवाल पूछता है कि आपको कितनी प्रतियां चाहिए। इसी आधार पर आपसे पुस्तक का मूल्य ले लिया जाता है। उतनी प्रतियां प्रकाशित कर दी जाती हैं और हो गई किताब की इतिश्री। नई तकनीक ने प्रकाशन को इतना सुलभ कर दिया है कि अधिक प्रतियां तत्काल छापने की कोई जरूरत नहीं, जब जितनी मांग आती है (अगर आती है तो), उसी अनुसार उसे प्रिंट ऑन डिमांड के आधार पर निकाल लिया जाएगा। यानी प्रकाशक के जिम्मे पुस्तक को छापने और बेचने का कोई रिस्क नहीं रहा। अब जितने की डिमांड है बस उतनी ही प्रतियां निकाली जाएं।
यह एक खतरनाक स्थिति है और इससे सबसे बड़ी क्षति पाठकों की हो रही है। जो पाठक लेखकों के नाम से उन्हें खोज-खोज कर पढ़ा करते थे ऐसे लगनशील पाठक लेखक-पाठक-प्रकाशक के त्रिकोण से बाहर निकलने लगे हैं। बड़े-बड़े पुरस्कार और सम्मान प्राप्त कई पुस्तकों के लालच में ये सुधी पाठक जब उन पुस्तकों तक पहुंचते हैं तो प्रायः खुद को छला हुआ महसूस करते हैं और धीरे-धीरे किताबों की दुनिया से उनका मोहभंग होने लगता है।
डॉ. वरुण कुमार की पुस्तक ‘समीक्षा के भाषिक आयाम’ को पढ़ते हुए समालोचना की अनिवार्यता को सहज ही महसूस किया जा सकता है। आलोचना ऐसी कि जिसमें भाव और भाषा, शैली और शिल्प की कसौटी पर संप्रेषणीयता की समुचित परख की गई हो। अपनी भूमिका में ही लेखक का यह प्रश्न मंथन पैदा करता है कि प्रभाव की सृष्टि में भाषा और शिल्प क्या भूमिका निभाते हैं। यानी यह प्रश्न ‘लेखक ने क्या कहा और लेखक ने कैसे कहा’ के बीच झूलता है। लेखक ने यहां गद्य और पद्य की विधाओं को अलग-अलग कर उसकी गहन पड़ताल की है।
अरुण कमल की कविता को पद्य रूप में पढ़ते हुए – ‘आज जब घर लौटा’ की विभिन्न संदर्भों में हुई आवृत्तियों से ध्वनित लय का आनंद कविता का सौंदर्य बनता है तो लेखक ने इसी मुक्त छंद की कविता को पूरी तरह गद्य में बदलते हुए जब इसका पुनर्पाठ किया तो पाया कि यह आवृति तथ्यात्मक सिलसिले की तरह उभरती है जिससे प्रभाव के स्तर पर संवेग का अंश घट जाता है। हालांकि, इस बात से लेखक का यह कतई अभिप्राय नहीं है कि गद्य के फार्मेट में संवेग की गुंजाइश नहीं होती या कम होती है। वरुण कुमार का मानना है कि जहां पद्य में संक्षिप्तता उसका गुण होती है, वहीं, गद्य में पूर्ण वाक्यों की संरचना होती है।
निर्मल वर्मा का एक अंश इस उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत किया है कि कैसे कोई गद्य छंद, अलंकार से रहित होते हुए भी प्रतीक्षा की बेचैनियों को मार्मिक मनोयोग के साथ संप्रेषित करता है। आधा घंटा कुछ नहीं होता … इस आधे घंटे को कितनी तरह से व्यक्त करता है लेखक और कितनी बार उस समय को रेखांकित करता है- इसे खंड-खंड में जिस खूबसूरती से वरुण जी ने व्याख्यायित किया है, वह भी निस्संदेह एक अनूठा उदाहरण है। स्मृति का अंश, विछोह का संवेग और किसी की अनुपस्थिति का इस तरह उभर कर आना पाठक को भावात्मक गहराई से जोड़ देता है। वरुण कुमार की कसौटी जिस तरह इस आधे घंटे में समाए युगांतर की स्मृतियों की पड़ताल करती है और दर्द के दुरुह अंतराल का विश्लेषण करती है वह सचमुच अचंभित करती है। भाव और भाषा के स्तर पर अर्जित अनुभव को इस तरह आलोचनात्मक रूप से रेशा-रेशा उघाड़कर की गई व्याख्या अपने आप में अनुपम है। छोटे-छोटे वाक्यांशों से अनुभूत पीड़ा की सघनता को समझना और उसे सहजता से व्याख्यायित कर देना, सचमुच उल्लेखनीय है। (पृ 20-21) इस प्रकार वरुण कुमार यह सिद्ध करते हैं कि भाषा का पक्ष कविता ही नहीं, गद्य की समीक्षा में भी अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
भाषिक आयामों पर चर्चा करते हुए वरुण कुमार की मूलभूत पड़ताल प्रोज वर्जेस पोएट्री के इर्द गिर्द घूमती है। लेखक का मानना है कि गद्य बोलचाल की भाषा से गुजरते हुए अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है। इसलिए रोजमर्रा की सहजता उसकी सबसे बड़ी विशेषता होती है। उसका लोक के निकट होना, परिचित और सहज होना ही उसकी संप्रेषणीयता को प्रभावी और विशेष बनाता है। अब सवाल यह उठता है कि यदि काव्य का छंद में होना ही उसे गद्य से अलग करता है तो उन वैदिक ऋचाओं के बारे में क्या कहा जाए जो छंद के बगैर होकर भी काव्य का अनूठा उदाहरण मानी जाती हैं। यहां समीक्षक का मानना है कि छंद से अधिक लय की अनिवार्यता किसी पीस को गद्य अथवा पद्य की पहचान देती है। गद्य की लय मूलतः उसके अर्थ से निर्देशित होती है जबकि कविता की लय नाद योजना से भी अधिक प्रवाह के स्तर पर उसे श्रव्य बनाती है। ध्वन्यात्मक ऋदम का आनंद कविता का गुण बनता है। यहां भी अपनी बात को सिद्ध करने के लिए समीक्षक ने जहां हिमाद्रि तुंग ऋंग से … के पद बंध में नगाड़े की चोट का अहसास कराया है वहीं अज्ञेय की तत्सम पदावली से युक्त एक गद्य भी रखा है जहां अलंकारों से युक्त होने के बावजूद भाषा की जटिलता पठनीयता की लय को मद्धिम कर देती है।
कहना न होगा कि इस तरह की विवेचना का वर्तमान संदर्भों में पूर्णतः अभाव महसूस होता है जबकि वरुण कुमार का यह प्रयास आलोचना के कई नए मापदंड रचता है जिनके आधार पर पाठ के भाव और प्र-भाव को परखा जाना चाहिए।
मूल्यांकन के क्रम में समीक्षक ने जयशंकर प्रसाद वर्सेज रघुवीर सहाय, निराला वर्सेज निर्मल वर्मा आदि लेखकों की रचनाओं के उदाहरण से भाषा की सीमाओं और सघनताओं की बहुत सशक्त पड़ताल प्रस्तुत की है।
सर्जनात्मक लेखन में भाषाई प्रतिबद्धता के प्रति आलोचकों की उदासीनता गद्य विधा में अधिक दिखाई पड़ती है। वरुण कुमार कहते हैं कि अभिव्यक्ति के धरातल पर रचना की भाषा में व्यक्तिगत तत्वों और विरासत से ग्रहण किए गए तत्वों का कितना योग होता है, इसकी विशेषकर गद्य की विधाओं में बहुत कम पड़ताल हुई है। कविता की भाषा में लय, छंद, अलंकार, ध्वन्यात्मक योजना, व्याकरणिक नियमों से छूट लेने की स्वतंत्रता आदि ऐसा बहुत कुछ होता है जिनके बल पर कवि की अभिव्यक्ति के संबंध में मूल्यवान निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। गद्य में इनकी उपस्थिति अत्यल्प या नगण्य होने के कारण एक कहानी, उपन्यास, ललित निबंध का लेखक भाषा के प्रयोक्ता के तौर पर कितना मौलिक और रचनात्मक है और कितना अभिव्यक्ति के पूर्व प्रचलित उपादानों का ऋणी है, इस पर स्पष्ट और सप्रमाण कुछ खास कह पाना सदैव कठिन रहा है। इस कारण गद्य की विधाओं में शैलीवैज्ञानिक अध्ययन के प्रादुर्भाव के बावजूद इस प्रकार के अध्ययन की कमी रही है। (पृ- 33)
यह सच है कि काव्य की समीक्षा में बिंब विधान से लेकर शिल्प विधान तक पर भरपूर चर्चा की जाती है मगर गद्य विधाओं में भाषा के जिन आयामों पर जिस तरह गहन चर्चा अपेक्षित है उसका अभाव ही दिखाई देता है। इस पुस्तक में पर्याप्त संदर्भों सहित भाषा के हर पक्ष पर बारीकी से किया गया अध्ययन किसी भी भाषा विज्ञानी के लिए आधारभूत तत्वों पर चिंतन का आह्वान करता है।
विरासत से प्राप्त और सामाजिक परिस्थितियों से उपजे शब्दों के प्रायोगिक पक्षों पर बहुत सघन शोध किया गया है। मुहावरों, लोकोक्तियों के संबंध में तो यह खासकर बहुत ही रोचक बन पड़ा है। चर्चित और लोकप्रिय लेखकों की रचनाओं से निकाले गए उद्धरण में कितने शब्द, कितने अलंकार और कितने मुहावरों का प्रयोग किया गया है, और संपूर्ण पाठ के मद्देनजर उसकी प्रतिशतता कितनी है, ऐसे तथ्य पाठक को विस्मित भी करते हैं।
भाषा के प्रयोग में हमारा समाज किस हद तक आयातित है यानी खासकर अंगरेजी पर निर्भर करता है, इसके बारे में महत्वपूर्ण उदाहरण रखे गए हैं। बच्चों को हम क, ख, ग के बदल ए, बी, सी रटाते हैं। और बच्चों पर ही क्यों, यह आक्रमण तो परिपक्व मस्तिष्क पर भी हावी रहता है। लिखना हो या बोलचाल, हमारा समाज अंगरेजी से किए गए अनुवाद की शैली में बोलता या लिखता है, ऐसे कितने ही वाक्य संरचनाओं को यहां प्रस्तुत किया गया है जिन पर अनायास ही ध्यान नहीं जाता किंतु एक भाषा विज्ञानी के लिए यह निश्चिय ही ध्यान देने वाले तथ्य हैं। लिपि पर रोमन का प्रहार कितना आक्रामक हो चला है, क्या यह भाषा विज्ञानियों के लिए बड़ी चिंता और चिंतन का विषय नहीं है? समाज और राजनीति किस तरह भाषा को प्रभावित करती है, उस पर अपना दबाव बनाती है, वह भी इस शोध का एक अहम पक्ष है। तकनीक के युग में हिंदी की स्थिति और संभावनाओं पर व्यापक चर्चा की गई है तो राजभाषा, जनभाषा और विश्वभाषा के संदर्भ में आकार ग्रहण करती विडंबनाएं भी वरुण जी के शोध को विस्तार देती हैं।
मोड ऑफ परसेप्शन यानी अभिव्यक्ति के प्रकारों पर बात करते हुए समीक्षक लय और छंद को विशेष गुण मानते हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि कविता की लय में नियमितता होती है जबकि गद्य में यही लय अनियमित होती है। नियमितता को रचने के लिए आवृत्ति की जाती है, जिसमें वर्णों की आवृत्ति हो सकती है जिसे सरल भाषा में कहें तो तुक या अनुप्रास हो सकता है। अधिक गहराई में जाएं तो शब्दों की आवृत्ति में यमक, ध्वन्यर्थ व्यंजना जैसी विशेषताएं आ सकती हैं। वरुण कुमार का मानना है कि छंद और काफी हद तक लय से स्वतंत्रता ने आज की कविता के फॉर्म में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है जिससे पुरानी अभिरुचि के आधार पर नई कविता के साथ न्याय नहीं किया जा सकता है। वे यह भी कहते हैं कि हिंदी कविता अब अपनी विधागत विशिष्टता – प्रभाव की सघनता – से भी वंचित हो रही है। उसमें गद्य की काया में मामूली अनुभवों और सपाट गद्यात्मक कथनों की बाढ़ है। (पृ-84)
समीक्षा के इस क्रम में एक बहुत रोचक और महत्वपूर्ण तथ्य की ओर पाठकों का ध्यान दिलाया गया है वह यह कि निर्मल वर्मा हों कि कुंवर नारायण.. लगभग सभी बड़े लेखक हिंदी के लेखकों-विचारकों को न के बराबर उद्धृत करते हैं। वे कहते हैं कि निर्मल वर्मा ने अपनी पसंद की दस पुस्तकों के नाम गिनवाए तो उनमें चार ही भारतीय लेखक थे और उनमें भी एक भी हिंदी लेखक नहीं था। यह चिंतन का विषय है कि हिंदी लेखकों को हिंदी भाषा के लेखक प्रेरित या प्रभावित नहीं करते। यह सचमुच दीगर बात है कि वरुण जी ने इतनी साफगोई से ऐसे तथ्यों को उद्घाटित किया है जो हिंदी लेखकों पर सीधे-सीधे प्रहार करते हैं।
इसमें संदेह नहीं कि वरुण जी ने अपनी पुस्तक ‘समीक्षा के भाषिक आयाम’ में गद्य और पद्य की विभिन्न विधाओं को आधार बनाते हुए भाषा के प्रभाव और प्रवाह पर अत्यंत तथ्यपरक दृष्टि से मूल्यांकन किया है और अंततः अपनी स्पष्ट और बेबाक राय रखी है।
पुस्तक का नाम / विधा | समीक्षा के भाषिक आयाम / आलोचना |
लेखक | डॉ. वरुण कुमार |
प्रकाशक | हंस प्रकाशन, नई दिल्ली 01145647564, 7217610640 |
कुल पृष्ठ / मूल्य | 165 / 595/- रुपये मात्र |