गोपाल सिंह नेपाली

-अलका सिन्हा

हिंदी और नेपाली भाषा के सम्मानित कवि गोपाल सिंह नेपाली अपने गीतों के लिए विशेष लोकप्रिय रहे। उन्होंने फिल्मों के लिए भी गीत लिखे और रतलाम टाइम्स, चित्रपट, सुधा, पुण्य भूमि जैसी पत्रिकाओं में संपादन का कार्य भी किया।

उनके गीतों में समाया ओज का स्वर लोगों में जोश भर देता था। आजादी की ललक उनके गीतों में इस तरह मुखरित होती थी कि जो भी उन गीतों को सुनता था वह जोश से भर उठता था। इनके गीतों में एक अजब तरह की आग थी जो हर किसी के भीतर ऐसी हिलोर पैदा कर देती थी कि हर नागरिक योद्धा में बदल जाता था। चीन के आक्रमण पर जो गीत उन्होंने लिखे वे गीत थके हुए पैरों में नया जोश और मन में नई उमंग भर देने वाले थे। एक गीत बानगी के तौर पर देखिए-

यह दिया बुझे नहीं
घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो
आज द्वार–द्वार पर यह दिया बुझे नहीं
यह निशीथ का दिया, ला रहा विहान है।

शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ
भक्ति से दिया हुआ, यह स्वतंत्रता–दिया
रूक रही न नाव हो, जोर का बहाव हो
आज गंग–धार पर यह दिया बुझे नहीं
यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है।

झूम–झूम बदलियाँ, चूम–चूम बिजलियाँ
आंधिया उठा रहीं, हलचलें मचा रहीं
लड़ रहा स्वदेश हो, यातना विशेष हो
क्षुद्र जीत–हार पर, यह दिया बुझे नहीं
यह स्वतंत्र भावना, का स्वतंत्र गान है।

स्वतंत्रता की लड़ाई में ऐसे लेखकों की क्या भूमिका रही, इसे कह पाना कठिन है। आज जिस तरह टीवी चैनलों पर घर तोड़ते सीरियल और क्राइम सीरिज की भरमार दर्शकों के भीतर हत्या और वारदात के नए-नए रास्ते सुझा रहे हैं, उनके विपरीत उस समय साहित्यकारों की रचनाएं लोगों के भीतर जीवन जीने की कला और देश के लिए मरने का जज्बा भर रही थीं। आज के समय में ऐसे साहित्यकारों की कमी बहुत महसूस होती है। ऐसा तो मैं नहीं कहूंगी कि आज सार्थक रचना नहीं हो रही है मगर दुनिया के बाजार में खरीदारों की पसंद बदल गई है। आज के ज्यादातर चैनल जिंदगी बचाने के बदले जिंदगी छीनने के तरीके सिखा रहे हैं।

खैर, नेपाली जी के जीवन में भी मोहभंग की स्थिति आई जब स्वतंत्रता पाने के बाद जिस यथार्थ से सामना हुआ वह उनके सपनों की तस्वीर से बिलकुल अलग थी। गीतों का राजकुमार इस आघात से बहुत छटपटाया और उसकी कलम इस की कराह को व्यक्त करने लगी। उसने लिखा

बदनाम रहे बटमार मगर घर तो रखवारों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को नौ लाख सितारों ने लूटा।

अब तक हम इस बात का शोक मना रहे थे कि हम बाहरी ताकतों के अधीन हैं मगर अब तो यह स्थिति थी कि हम अपनों की ही मार सह रहे थे। मगर निराशा के इस अंधकार में भी आस्थावान कवि आशा का दीपक जलाए बैठा रहा।

तन का दिया, प्राण की बाती, दीपक जलता रहा रात भर।

अगणित तारों के प्रकाश में, मैं अपने पथ पर चलता था
मैंने देखा, गगन-गली में, चाँद सितारों को छलता था
आँधी में, तूफ़ानों में भी, प्राण-दीप मेरा जलता था
कोई छली खेल में मेरी, दिशा बदलता रहा रात भर।
दीपक जलता रहा रात भर।
छिपने नहीं दिया फूलों को, फूलों के उड़ते सुवास ने
रहने नहीं दिया अनजाना, शशि को शशि के मंद हास ने
भरमाया जीवन को दर-दर, जीवन की ही मधुर आस ने
मुझको मेरी आँखों का ही, सपना छलता रहा रात भर,
दीपक जलता रहा रात भर।

मुंबई प्रवास के दिनों में नेपाली जी ने तकरीबन चार दर्जन फिल्मों के लिए गाने लिखे। उसी दौरान इन्होंने ‘हिमालय फिल्म्स’ और ‘नेपाली पिक्चर्स’ की स्थापना की थी। निर्माता-निर्देशक के तौर पर नेपाली ने तीन फीचर फिल्मों – नजराना, सनसनी और खुशबू का निर्माण भी किया। उन्होंने सिनेमा के लिए 400 से अधिक गीत लिखे। उनकी कविताओं में देशभक्ति से लेकर प्रेम और जीवन के आत्मीय राग बहते हैं। अपने जीवन दर्शन को व्यक्त करती कई कविताएं उन्होंने लिखीं। दुनिया की चमक दमक से प्रभावित हुए बिना वे अपने कर्म पथ पर चलते रहे। उन्होंने जीवन के प्रति आसक्त हुए बिना निस्पृह भाव से जीवन जिया। चल रहा है आदमी, साँझ लाल-लाल है, यह गीत उनके दर्शन को समझने के लिए काफी है। वे कहते हैं–

ज़िंदगी की दौड़ में, जो गिरे, गिरे रहे, मोड़ पर पड़ाव के, जो फिरे, फिरे रहे
या दरो-दिवार से, जो घिरे, घिरे रहे, कारवाँ चला गया, वक़्त का सवाल है।
चल रहा है आदमी, साँझ लाल-लाल है।

आदमी ने झूम के उम्र यों निकाल दी,
मौत के मज़ार पर ज़िंदगी उछाल दी
मर गया तो और के, हाथ में मशाल दी,
हम मरे कि तुम मरे, कुछ नहीं मलाल है।
चल रहा है आदमी, साँझ लाल-लाल है।

नेपाली जी अपनी सादगी को स्वाभिमान की तरह देखते थे। इसलिए उनके तन पर हमेशा खद्दर की साधारण-सी कमीज हुआ करती थी और वे पूरे गर्व के साथ हर किसी से मिलते थे। उनकी गरीबी, उनकी मुफलिसी कभी भी उनकी खुद्दारी पर हावी न हो सकी। वे ऐसे योद्धा थे जो अपनी कलम को तलवार से अधिक धारदार मान कर जीवन का रण लड़े। चाहे उन्होंने फिल्मों के लिए लिखा चाहे अन्य किसी भी मौके के लिए, उनका सिर स्वाभिमान से उठा रहा। अपनी कलम को उन्होंने अपनी सबसे बड़ी दौलत माना और कलम के प्रति उनकी आस्था को व्यक्त करता यह गीत तो उनकी पहचान बन गया।

मेरा धन है स्वाधीन क़लम
लिखता हूँ अपनी मर्ज़ी से, बचता हूँ कैंची-दर्ज़ी से
आदत न रही कुछ लिखने की, निंदा-वंदन ख़ुदग़र्ज़ी से
कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन क़लम।

लेकर रंगीनी की बहार, इठलाते चलते अलंकार
हर दर्द बना देता कवि को, सब से मस्ताना गीतकार
नित नई कल्पना करती है, यह अनुभव की प्राचीन क़लम।

ग़ैरों की क़लम चिलम जैसी, फैलाती घटा भरम जैसी
नित धुआँ उड़ाती रहती है, पर मेरे पास क़लम ऐसी
उड़ने को उड़ जाए नभ में, पर छोड़े नहीं ज़मीन क़लम।

तुझ-सा लहरों में बह लेता, तो मैं भी सत्ता गह लेता
ईमान बेचता चलता तो, मैं भी महलों में रह लेता
हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम।

17 जुलाई 1963 को भागलपुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नं-2 पर हृदय गति रुकने से उनका निधन हो गया। स्वाभिमानी व्यक्तित्व वाले, कलम के धनी, गीतों के राजकुमार ने 52 वर्ष की आयु में जितना प्रेम और प्रसिद्धि पाई उतना लोग लंबी आयु जी कर भी हासिल नहीं कर पाते। वर्तमान समय में जहां लोग जरा से लाभ और लोभ से अपनी संगत और फितरत बदल लेते हैं वहां उनकी ये पंक्तियां बहुत बड़ा संदेश देती हैं-

अपनेपन का मतवाला था भीड़ में भी मैं खो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता मैं हो न सका….
उन्हें शत शत नमन।

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