
पं. माधवराव सप्रे

– रजनीकांत शुक्ला
पं. माधवराव सप्रे जी का जन्म 19 जून 1871 में मध्य प्रदेश के दमोह ज़िले के पथरिया ग्राम में हुआ था। वे राष्ट्रभाषा हिन्दी के उन्नायक, प्रखर चिंतक, मनीषी संपादक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और सार्वजनिक कार्यों के लिये समर्पित कार्यकर्ताओं की श्रृंखला तैयार करने वाले प्रेरक-मार्गदर्शक थे। माधवराव सप्रे जी की कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को हिंदी की पहली कहानी होने का श्रेय प्राप्त है।
उन्होंने बिलासपुर में मिडिल तक की पढ़ाई के बाद मैट्रिक शासकीय विद्यालय रायपुर से उत्तीर्ण किया। 1899 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी. ए. करने के बाद उन्हें तहसीलदार के रुप में शासकीय नौकरी मिली लेकिन जैसा कि उस समय के देशभक्त युवाओं में एक परंपरा थी सप्रे जी ने भी शासकीय नौकरी की परवाह न की। सन 1900 में जब समूचे छत्तीसगढ़ में प्रिंटिंग प्रेस नहीं था तब इन्होंने बिलासपुर ज़िले के एक छोटे से गांव पेंड्रा से “छत्तीसगढ़ मित्र” नामक मासिक पत्रिका निकाली। हालांकि यह पत्रिका सिर्फ़ तीन साल ही चल पाई।
सप्रे जी ने लोकमान्य तिलक के मराठी केसरी को यहां हिंद केसरी के रुप में छापना प्रारंभ किया, साथ ही हिंदी साहित्यकारों व लेखकों को एक सूत्र में पिरोने के लिए नागपुर से हिंदी ग्रंथमाला भी प्रकाशित की। इन्होंने कर्मवीर के प्रकाशन में भी महती भूमिका निभाई। सप्रे जी ने लेखन के साथ-साथ विख्यात संत समर्थ रामदास के मराठी दासबोध व महाभारत की मीमांसा, दत्त भार्गव, श्री राम चरित्र, एकनाथ चरित्र और आत्म विद्या जैसे मराठी ग्रंथों, पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद भी बखूबी किया। 1924 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के देहरादून अधिवेशन में सभापति रहे सप्रे जी ने 1921 में रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना की और साथ ही रायपुर में ही पहले कन्या विद्यालय जानकी देवी महिला पाठशाला की भी स्थापना की। यह दोनों विद्यालय आज भी बदस्तूर चल रहे हैं।
सप्रे जी के कुछ स्मरणीय कथन इस प्रकार हैं-
“मैं महाराष्ट्री हूं पर हिंदी के विषय में मु्झे उतना ही अभिमान है जितना कि किसी हिंदीभाषी को हो सकता है।”
“जिस शिक्षा से स्वाभिमान की वृत्ति जागृत नहीं होती वह शिक्षा किसी काम की नहीं है।”
“विदेशी भाषा में शिक्षा होने के कारण हमारी बुद्धि भी विदेशी हो गई है।”
राजा राममोहन राय ने आधुनिक भारतीय समाज के निर्माण में जो चिंगारी जगाई थी उसके वाहक के रूप में छत्तीसगढ में वैचारिक सामाजिक क्रांति के अलख जगाने का काम किसी ने पूरी प्रतिबद्धता से किया है तो निर्विवाद रूप से यह कहा जायेगा कि वह छत्तीसगढ के प्रथम पत्रकार व हिन्दी की प्रथम लघुकहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ के रचनाकार पं. माधवराव सप्रे जी ही थे।
इन्होंने छत्तीसगढ के पेंड्रा से ‘छत्तीसगढ मित्र’ पत्रिका का प्रकाशन सन् 1900 में सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री वामन राव लाखे के सहयोग से आरंभ किया था। रायपुर में अध्ययन के दौरान पं. माधवराव सप्रे, पं. नंदलाल दुबे जी के संपर्क में आये जो इनके शिक्षक थे एवं जिन्होंने अभिज्ञान शाकुन्तलम और उत्तर रामचरित मानस का हिन्दी में अनुवाद किया था व उद्यान मालिनी नामक मौलिक ग्रंथ भी लिखा था।
पं. नंदलाल दुबे ने ही पं. माधवराव सप्रे के मन में साहित्यिक अभिरुचि जगाई जिसने कालांतर में पं. माधवराव सप्रे को ‘छत्तीसगछ मित्र’ व ‘ हिन्दी केसरी’ जैसे पत्रिकाओं के संपादक के रूप में प्रतिष्ठित किया और राष्ट्र कवि माखनलाल चतुर्वेदी जी के साहित्यिक गुरु के रूप में एक अलग पहचान दिलाई।
माधवराव सप्रे सन् 1889 में रायपुर के असिस्टेंट कमिश्नर की पुत्री से विवाह के बाद श्वसुर द्वारा अनुशंसित नायब तहसीलदार की नौकरी को ठुकराकर अपने कर्मपथ की ओर बढ गए। पहले रार्बटसन कालेज जबलपुर फिर 1894 में विक्टोरिया कालेज ग्वालियर एवं 1896 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एफ.ए. पास किया। इसी बीच उनकी पत्नी का देहावसान हो गया और शिक्षा में कुछ बाधा आ गई। पुन: 1989 में इन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी.ए. की डिग्री ली एवं एलएलबी में प्रवेश ले लिया किन्तु अपने वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण इन्होंनें विधि की परीक्षा को छोड छत्तीसगढ़ वापस आ गए।
छत्तीसगढ़ में आने के बाद परिवार के द्वारा इनका दूसरा विवाह करा दिया गया जिसके कारण इनके पास पारिवारिक जिम्मेदारी बढ गई तब इन्होंने सरकारी नौकरी किए बिना समाज व साहित्य सेवा करने के उद्देश्य को कायम रखने व भरण पोषण के लिए पेंड्रा के राजकुमार के अंग्रेज़ी शिक्षक के रूप में कार्य किया।
समाज सुधार व हिन्दी सेवा के जज्बे ने इनके मन में पत्र-पत्रिका के प्रकाशन की रुचि जगाई और मित्र वामन लाखे के सहयोग से ‘छत्तीसगढ मित्र’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया जिसकी ख्याति पूरे देश भर में फैल गई।
मराठी भाषी होने के बावजूद इन्होंने हिन्दी के विकास के लिए सतत कार्य किया। सन् 1905 में हिन्दी ग्रंथ प्रकाशक मंडल का गठन कर तत्कालीन विद्वानों के हिन्दी के उत्कृष्ठ रचनाओं व लेखों का प्रकाशन धारावाहिक ग्रंथमाला के रूप में आरंभ किया। इस ग्रंथमाला में पं. माधवराव सप्रे जी के मौलिक स्वदेशी आन्दोलन एवं बायकाट लेखमाला का भी प्रकाशन हुआ। बाद में इस ग्रंथमाला का प्रकाशन पुस्तकाकार रूप में हुआ, इसकी लोकप्रियता को देखते हुए अंग्रेज़ सरकार ने सन् 1909 में इसे प्रतिबंधित कर प्रकाशित पुस्तकों को जब्त कर लिया। हिन्दी ग्रंथमाला के प्रकाशन से राष्ट्रव्यापी धूम मचाने के बाद पं. माधवराव सप्रे ने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से अनुमति प्राप्त कर उनकी आमुख पत्रिका मराठा केसरी के अनुरूप ‘हिन्दी केसरी’ का प्रकाशन 13 अप्रैल 1907 को प्रारंभ किया। हिन्दी केसरी अपने स्वाभाविक उग्र तेवरों से प्रकाशित होता था जिसमें अंग्रेज़ी सरकार की दमन नीति, कालापानी, देश का दुर्देव, बम के गोले का रहस्य जैसे उत्तेजक लेख प्रकाशित होते थे फलत: 22 अगस्त 1908 में पं. माधवराव सप्रे जी गिरफ्तार कर लिये गए । तब तक सप्रे जी अपनी केन्द्रीय भूमिका में एक प्रखर पत्रकार के रूप में संपूर्ण देश में स्थापित हो चुके थे।
पत्र-पत्रिका प्रकाशन व संपादन की इच्छा सदैव इनके साथ रही इसी क्रम में मित्रों के अनुरोध एवं पत्रकारिता के जज्बे के कारण 1919- 1920 में पं. माधवराव सप्रे जी जबलपुर आ गए और ‘कर्मवीर’ नामक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया जिसके संपादक पं. माखन लाल चतुर्वेदी जी बनाए गए। उन्होंने देहरादून में आयोजित 15 वें अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता भी की एवं अपनी प्रेरणा से जबलपुर में राष्ट्रीय हिन्दी मंदिर की स्थापना करवाई जिसके सहयोग से ‘छात्र सहोदर’, ‘तिलक’, हितकारिणी’, ‘श्री शारदा’ जैसे हिन्दी साहित्य के महत्वपूर्ण पत्रिकाओं का प्रकाशन संभव हुआ जिसका आज तक महत्व विद्यमान है।
इनकी प्रमुख कृतियाँ-
स्वदेशी आंदोलन और बॉयकाट,
यूरोप के इतिहास से सीखने योग्य बातें,
हमारे सामाजिक ह्रास के कुछ कारणों का विचार,
माधवराव सप्रे की कहानियाँ (संपादन : देवी प्रसाद वर्मा)
अनुवाद :
हिंदी दासबोध (समर्थ रामदास की मराठी में लिखी गई प्रसिद्ध)
गीता रहस्य (बाल गंगाधर तिलक)
महाभारत मीमांसा (महाभारत के उपसंहार : चिंतामणी विनायक वैद्य द्वारा मराठी में लिखी गई प्रसिद्ध पुस्तक)
संपादन :
हिंदी केसरी (साप्ताहिक समाचार पत्र)
छत्तीसगढ़ मित्र (मासिक पत्रिका)
माधवराव सप्रे ने छत्तीसगढ़ मित्रा (1900), हिन्दी ग्रंथ माला (1906) और हिन्दी केसरी (1907) का सम्पादन प्रकाशन कर हिन्दी पत्राकारिता और साहित्य को नये संस्कार प्रदान किए। नागरी प्रचारिणी सभा काशी की विशाल शब्दकोश योजना के अन्तर्गत आर्थिक शब्दावली के निर्माण का महत्वपूर्ण कार्य सप्रे जी ने किया। मराठी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृतियों में से ‘दासबोध’, ‘गीतारहस्य’ और ‘महाभारत मीमांसा’ के प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद सप्रे जी ने किये।
कर्मवीर का प्रकाशन उन्हीं ने कराया और उसके सम्पादक के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी जैसा तेजस्वी सम्पादक हिन्दी संसार को दिया। 1924 के देहरादून हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता पं.माधवराव सप्रे ने की। उनका एक अत्यंत महत्वपूर्ण अवदान स्वतंत्रता संग्राम, हिन्दी की सेवा और सामाजिक कार्यों के लिए सैकड़ों समर्पित कार्यकर्त्ताओं की श्रृंखला तैयार करना है। 19 जून 1984 को राष्ट्र की बौद्धिक धरोहर को संजोने और भावी पीढ़ियों की अमानत के रूप में संरक्षित करने के लिये तब एक अनूठे संग्रहालय की स्थापना का विचार सफल हुआ जब सप्रे जी के कृतित्व के प्रति आदर और कृतज्ञता अभिव्यक्त करने के लिये संस्थान को ‘माधवराव सप्रे समाचार पत्र संग्रहालय’ नाम दिया गया।
हिंदी के इन पहले लघुकहानीकार पं. माधवराव सप्रे का निधन 23 अप्रैल, 1926 को हो गया।
उनके जन्मदिन पर उनकी स्मृति को नमन उनकी इस लघु कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ के साथ-
‘एक टोकरी भर मिट्टी’
किसी श्रीमान जमीनदार के महल के पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोंपड़ी थी। जमीनदार साहब को अपने महल का हाता उस झोंपड़ी तक बढ़ाने की इच्छा हुई। विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोंपड़ी हटा ले, पर वह तो कई जमाने से वहीं बसी थी। उसका प्रिय पति और एकलौता पुत्र भी उसी झोपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पाँच बरस की कन्या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धापकाल में एक मात्र आधार थी। जब कभी उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती, तो मारे दुःख के फूट-फूट कर रोने लगती थी, और जब से उसने अपने श्रीमान पड़ोसी की इच्छा का हाल सुना, तब से तो वह मृतप्राय हो गई थी। उस झोंपड़ी में उसका ऐसा कुछ मन लग गया था कि बिना मरे वहाँ से वह निकलना ही नहीं चाहती थी। श्रीमान के सब प्रयत्न निष्फल हुए, तब वे अपनी जमीनदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने वाले वकीलों की थैली गरम कर उन्होंने अदालत से उस झोंपड़ी पर अपना कब्जा कर लिया और विधवा को वहाँ से निकाल दिया। बिचारी अनाथ तो थी ही। पाँड़ा-पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी।
एक दिन श्रीमान उस झोंपड़ी के आस-पास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि इतने में वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहाँ पहुँची। श्रीमान ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि उसे यहाँ से हटा दो। पर वह गिड़गिड़ा कर बोली कि “महाराज! अब तो झोंपड़ी तुम्हारी ही हो गई है। मैं उसे लेने नहीं आई हूँ। महाराज छिमा करें तो एक विनती है।” जमीनदार साहब के सिर हिलाने पर उसने कहा कि “जबसे यह झोंपड़ी छूटी है, तब से पोती ने खाना-पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत कुछ समझाया, पर एक नहीं मानती। कहा करती है कि अपने घर चल, वहीं रोटी खाऊँगी। अब मैंने सोचा है कि इस झोंपड़ी में से एक टोकरी भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्हा बनाकर रोटी पकाऊँगी। इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज कृपा करके आज्ञा दीजिये तो इस टोकरी में मिट्टी ले जाऊँ।” श्रीमान ने आज्ञा दे दी।
विधवा झोंपड़ी के भीतर गई। वहाँ जाते ही उसे पुरानी बातों का स्मरण हुआ और आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। अपने आंतरिक दुःख को किसी तरह सम्हाल कर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठाकर बाहर ले आई। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान से प्रार्थना करने लगी कि, “महाराज कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ लगायें जिससे कि मैं उसे अपने सिर पर धर लूँ।” जमीनदार साहब पहिले तो बहुत नाराज हए, पर जब वह बारबार हाथ जोड़ने लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके भी मन में कुछ दया आ गई। किसी नौकर से न कहकर आप ही स्वयं टोकरी उठाने को आगे बढ़े। ज्योंही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे, त्योंही देखा कि यह काम उनकी शक्ति से बाहर है। फिर तो उन्होंने अपनी सब ताकत लगाकर टोकरी को उठाना चाहा, पर जिस स्थान में टोकरी रखी थी, वहाँ से वह एक हाथ भर भी ऊँची न हुई। तब लज्जित होकर कहने लगे कि “नहीं, यह टोकरी हमसे न उठाई जाएगी।”
यह सुनकर विधवा ने कहा, “महाराज,! नाराज न हों। आपसे तो एक टोकरी भर मिट्टी उठाई नहीं जाती और इस झोंपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़ी है। उसका भार आप जनम भर क्यों कर उठा सकेंगे! आप ही इस बात का विचार कीजिये।”
जमीनदार साहब धन-मद से गर्वित हो अपना कर्तव्य भूल गये थे, पर विधवा के उपरोक्त वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गईं। कृतकर्म का पश्चात्ताप कर उन्होंने विधवा से क्षमा माँगी और उसकी झोंपड़ी वापस दे दी।
***** ***** *****
(साभार : रजनीकांत शुक्ला (Rajnikant Shukla) के फेसबुक वॉल से)