
सुशीला सामद: हिंदी की पहली आदिवासी कवयित्री – एक विस्तृत परिचय

~ विजय नगरकर
भारतीय साहित्य के विशाल फलक पर कई ऐसे नाम हैं, जो अपनी प्रतिभा और योगदान से इतिहास में दर्ज हो गए। इन्हीं में से एक हैं सुशीला सामद, जिन्हें हिंदी की पहली आदिवासी कवयित्री होने का गौरव प्राप्त है। उन्होंने न केवल हिंदी साहित्य में अपनी जगह बनाई, बल्कि आदिवासी समाज की आत्मा को अपनी कलम के माध्यम से जगाया।
उनकी पंक्तियां,
“मैंने आंसुओं से ही सींचा है अपने स्वप्नों का आंगन”,
उनके जीवन के संघर्ष और दृढ़ता को दर्शाती हैं।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा:
सुशीला सामद का जन्म मुंडा आदिवासी समाज में 7 जून 1906 को झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम में चक्रधरपुर स्थित गांव लउजोड़ा में मोहन राम संदिल और लालमणि संदिल के घर हुआ था। उन्होंने 1932 में प्रयाग महिला विद्यापीठ से विनोदिनी की परीक्षा उत्तीर्ण की और 1934 में बीए ऑनर्स की डिग्री हासिल की। कुछ प्राथमिक शिक्षा के बाद उनका विवाह रामचरण सामद से हुआ, जो सिंहभूम में स्थित टाटा स्टील में कार्यरत थे। ‘हिंदी विदुषी’ बनने वाली सुशीला सामद देश की पहली आदिवासी महिला थीं।
स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान:
सुशीला सामद का जीवन केवल साहित्य तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। महात्मा गांधी के सहयोग से झारखंड से वह एकमात्र शिक्षित महिला थीं, जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं का नेतृत्व किया। 12 मार्च 1930 को जब महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह (डांडी मार्च) की शुरुआत की, उस वक्त झारखंड क्षेत्र की आदिवासी महिलाओं का नेतृत्व सुशीला सामद ही कर रही थीं। उन्होंने डेढ़ साल के बच्चे को छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ीं, एक मां के कर्तव्य को पीछे छोड़कर देश की आजादी को प्राथमिकता दी।
खरसावां में 1 जनवरी 1948 को हुए नरसंहार के दौरान, जहां कथित तौर पर सैकड़ों लोगों को गोलियों से भून दिया गया था, सुशीला सामद ने मौके पर बहुत से घायलों की सेवा की और अपनी कलम के माध्यम से ब्रिटिश हुकूमत के काले कारनामों को उजागर किया।
साहित्यिक योगदान और प्रकाशित पुस्तकें:
सुशीला सामद ने सिर्फ हिंदी में ही कविताएं नहीं लिखीं, बल्कि अपनी मातृभाषा में भी कविताएं लिखीं। उनका पहला कविता संग्रह ‘प्रलाप’ 1935 में प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में उन्होंने आदिवासियों की सामाजिक समस्याओं को केंद्र में रखकर अपनी रचनाएं प्रकाशित करवाईं, जिसने तत्कालीन साहित्य में एक भूचाल ला दिया। उस समय के शीर्ष साहित्यकारों ने उनकी रचनाओं को तिरस्कार करते हुए उन्हें लेखन का श्रेय नहीं देना चाहा और आदिवासी आवाज को दबाने के लिए हर संभव प्रयास किया, क्योंकि उनका साहित्य नस्लभेदी, सामंती और लैंगिक भेदभाव से भरपूर रहा। उन्हें जानबूझकर उपेक्षित रखा गया और उनकी अनुपस्थिति को दरकिनार कर दिया गया।
हालांकि, कुछ पत्रकारों और संपादकों ने उनकी प्रतिभा को पहचाना। 1934 में ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादक देवीदत्त शुक्ल ने सुशीला सामद के बारे में लिखा, “सरल शब्दों में भावों को कविता का रूप देने में सुशीला ने कमाल हासिल किया है।”
‘प्रलाप’ (1935) के बाद, ‘सपने का संसार’ सुशीला सामद का दूसरा काव्य-संग्रह है जो 1948 में प्रकाशित हुआ। यह दर्शाता है कि उनकी साहित्यिक यात्रा जारी रही, भले ही उन्हें मुख्यधारा के साहित्य में पर्याप्त सम्मान न मिला हो।
पत्रकारिता और संपादन:
सुशीला सामद कवयित्री के साथ-साथ पत्रकार, संपादक और प्रकाशक भी रहीं। उन्होंने 1925 से 1930 तक ‘चांदनी’ पत्रिका के संपादन और प्रकाशन का कार्य किया। उन्हें यह जिम्मेदारी उनके बहनोई द्वारा तब दी गई थी, जब उन्होंने बिहार में चुनाव जीता था। ‘चांदनी’ के संपादन के दौरान उन्हें हिंदी साहित्य जगत में एक नई पहचान मिली। वह देश की पहली महिला आदिवासी संपादक भी रही हैं, जिन्होंने आदिवासी लेखन की परंपरा को समृद्ध बनाया है।
हिंदी में योगदान और विरासत:
सुशीला सामद का साहित्यिक संसार मुख्यधारा के साहित्य से भिन्न एक ऐसी वैकल्पिक धारा प्रस्तुत करता है, जो हाशिए पर पड़े समुदायों की वास्तविकताओं को सामने लाने के साथ-साथ साहित्य की पारंपरिक परिभाषाओं को भी चुनौती देता है। उन्होंने आदिवासी समाज, परंपराओं, संघर्षों, विस्थापन, पर्यावरणीय विनाश, स्त्री अधिकारों और सामाजिक अन्याय के खिलाफ मुखर अभिव्यक्ति की।
आज, जब आदिवासी शोषण की बात होती है, तो वरिष्ठ आदिवासी नेता, सामाजिक कार्यकर्ता और यहां तक कि मुख्यधारा समाज के लोग भी अपने भाषणों में उनकी मिसाल देते हैं। उन्होंने दिखाया कि आदिवासी समुदाय ने सदैव ही बाहरी सभ्यता, पूंजीवाद और आर्थिक साम्राज्यवाद का खुलकर विरोध किया है। सुशीला सामद ने अपनी कविताओं के माध्यम से आदिवासी समुदाय के संघर्षों और भावनाओं को स्वर दिया, और उनकी रचनाएं आज भी पाठकों के मन में क्रांति और प्रश्नचिह्न उत्पन्न करती हैं, जो समाज के लिए महत्वपूर्ण हैं।
सुशीला सामद ने हिंदी के अलावा अपनी मातृभाषा में भी कविताएँ लिखी थीं। जानकारी के अनुसार, उनकी मातृभाषा मुंडारी थी। वह मुंडा आदिवासी समुदाय से आती थीं, और उन्होंने अपनी इस मातृभाषा में भी अपनी साहित्यिक रचनाओं को अंजाम दिया। यह उनकी आदिवासी जड़ों के प्रति उनके गहरे जुड़ाव और अपने समुदाय की आवाज़ को विभिन्न माध्यमों से उठाने की उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
कुछ स्रोतों में यह भी उल्लेख मिलता है कि उन्होंने खड़िया भाषा में भी खूब लेखन किया है। उनकी खड़िया की कुछ रचनाएं ‘सिंकोय सुलोओ’ (कहानी), ‘अबसिब मुरडअ’ (कविता) और ‘सेंभो रो डकई’ (लोकगीत) बताई जाती हैं। उन्होंने ‘खड़िया लोककथाओं का साहित्यिक सांस्कृतिक अध्ययन’ नाम से एक शोध प्रबंध भी प्रकाशित किया था।
यह दर्शाता है कि सुशीला सामद केवल हिंदी तक ही सीमित नहीं थीं, बल्कि उन्होंने अपनी आदिवासी भाषाओं में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिससे इन भाषाओं के साहित्य को भी समृद्ध किया जा सके।
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