मधुमालती वाली खिड़की

-पूजा अनिल, स्पेन

 मेरी माँ के घर में किचन की खिड़की अपेक्षाकृत काफ़ी लम्बी (ऊँचाई में) थी इसलिए किचन के प्लेटफ़ॉर्म से भी थोड़ी नीचे तक जाती थी। (अब भी वैसी ही है।) उस खिड़की के पल्ले खोलकर आप सर बाहर निकाल कर देख सकते थे कि घर में कौन आया! जब माँ किचन में काम कर रही होती थी और हम सब लोग स्कूल, कॉलेज या फिर ऑफिस गए होते थे तब यदि कोई आए तो यह बड़ी ज़बरदस्त काम की खिड़की थी। एक पल में पता चल जाता था कि कौन आया है! कभी डाकिया, कभी पड़ोसनें, कभी लम्बे चौड़े परिवार के कोई सदस्य आ जाते थे तो माँ तुरंत देख लेती थी। उस खिड़की के बाहर लम्बे गलियारे के दायीं तरफ लोहे की मज़बूत जाली से बना हुआ मुख्य द्वार था। पता नहीं कैसे पापा को सिल्वर रंग पसंद आ गया था तो वह लोहे का दरवाजा सिल्वर कलर का रखा गया। तेज भड़कीले रंगों के बीच वह शांत चांदी का रंग बेहद आकर्षक लगता था। उसी दरवाज़े से सबका आवागमन होता था, आने वाले कुंडी ठोंक कर या ज़ोर से  आवाज़ देकर अपने आने की सूचना देते थे। माँ भी आवाज़ देकर कहती कि अभी आ रहीं दरवाज़ा खोलने। (आजकल ऐसे दृश्य गायब होते जा रहे हैं, आजकल घर चारदीवारी में बंद रहते हैं और विडियो कैमरा से आप देख लेते हैं कि कौन आया है, घंटी बजा दीजिए, दरवाजा खोल दीजिए, आवाज़ देने की ज़रूरत ही नहीं रही अब)

फिर से किचन की खिड़की की तरफ चलते हैं। उसी खिड़की के बाहर ठीक नीचे की कच्ची जमीन पर एक छोटी सी क्यारी भी बनी हुई थी। उसमें समय समय पर अलग-अलग पौधे उगाए जाते थे। जैसे करेले की बेल, टमाटर के पौधे, भिंडी या बैंगन के पौधे, तुलसी और अनार भी। ये सब एक साथ नहीं उगते थे, हम कभी कोई और कभी कोई पौधा उगाते थे। लेकिन इन सबके साथ एक बेल हमेशा उगी रही, वह थी मधु-मालती की बेल। यह बेल झूमती झूलती एक बार जो ऊपर उठना शुरू हुई तो फिर बढ़ती ही चली गई और बढ़ते बढ़ते छत तक जा पहुँची। पापा ने बेल को छत पर सहारा देकर बांध दिया तो  वह बेल किचन की खिड़की के बाहर छज्जे के समान फैल गई। अब जब भी उस पर फूल आते तो पूरी बेल गुलाबी लाल फूलों के गुच्छों से भर जाती और किचन के भीतर से एवं बाहर से खिले फूलों का ऐसा सुंदर नजारा दिखाई देता कि जिस पर से दृष्टि ही न हटती थी। मुझे फूलों से बेहद लगाव है, तो मैं छत पर जाकर भी उन फूलों को देखकर प्रसन्न होती थी। और जब फूल खिल कर बिखरने लगते तब पूरा गलियारा और छत उन्हीं फूलों से भर जाते थे। इन्हें देखकर महसूस होता कि डाल पर से टूटे फूल भी बड़े लुभावने लगते हैं। इन खिले फूलों पर तितली, मधुमक्खी, कीड़े मकोड़े और तरह-तरह की चिड़ियों का दिन भर आना जाना लगा रहता था। चिड़ियों की चहचहाहट से गुंजार होता था माँ का किचन।

छत के सामने नेशनल हाईवे गुजरता था और हाइवे से ठीक जुड़ी हुई शांति काल की सैन्य छावनी थी। हरे भरे ऊँचे पेड़ों से घिरी हुई बंद जगह, जहाँ से भीतर कुछ नहीं दिखता था। कभी कभार आते जाते सैनिक दिख जाते थे। गेट के बाहर दो सिपाही पहरे पर खड़े रहते थे! जब भी कोई महत्वपूर्ण घटना होती तो छावनी के पास आर्मी की गाड़ियों की आवाजाही बढ़ जाती थी। हम केवल दूर से ही देखा करते थे। जिज्ञासा हुआ करती थी लेकिन संयम रखते थे, जब तक समाचारों से न पता चले तब तक हम प्रतीक्षा करते थे कि क्या हुआ होगा! बहुत बार ऐसा भी हुआ कि पता ही न चला कि क्या हुआ था!! सेना अपने तौर तरीक़े से काम करती है,  हमारी और उनकी सुरक्षा के लिए बहुत कुछ गुप्त रखना आवश्यक होता है। यह हम सभी समझते हैं और इस नियम का पालन भी करते हैं। सोशल मीडिया पर भी इसका पालन किया जाना चाहिए। इसलिए सेना से संबंधित कोई जानकारी साझा न करें।जो कुछ बताना होगा वो सेना के अधिकारी स्वयं साझा करेंगे। 

जब जब माँ की खिड़की के बाहर वाले मधुमालती के वे सुंदर खिले फूल याद करती हूँ तब तब ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि हमारे सैनिक भी खिले रहें, खुश रहें, देश में शांति रहे, कभी युद्ध जैसी स्थिति न बने और हमारी सेना सुरक्षित रहे ताकि देश सुरक्षित रहे।

***** ***** *****

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »