– नरेश शांडिल्य

घास काटती हुई औरत

बाग़ में
घास काट रही है एक औरत

पर वैसे नहीं –
जैसे गोवा के टापू
काट रहे हैं छुट्टियाँ

पर वैसे नहीं –
जैसे संसद के खंबे
काट रहे हैं अपना वक़्त

पर वैसे नहीं –
जैसे सरकारी फाइलें
काट रही हैं इक दूजे की बात

बाग़ में
घास काट रही है एक औरत

घास बेचकर
आज शाम
वो जो बीस तीस रुपए कमाएगी
उससे वो
एक और दिन काटेगी
ज़िन्दगी का एक और दिन

जैसे –
लोहे को काटता है लोहा
जैसे –
पीड़ा को काटती है पीड़ा
जैसे –
करवट दर करवट
रात को काटता है कवि
अधूरी कविता और अधूरे चाँद के साथ

बाग़ में
घास काट रही है एक औरत

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