
–डॉ. गौतम सचदेव, ब्रिटेन
यक्ष प्रश्न
चढ़ गया एक और प्यासा
आत्महन्ता
सीढ़ियां रचकर शवों की
ललकता
पीने सुनहरा
स्वर्ग का मृगजल।
अभी मुंह रक्त पी खारा हुआ था
हाथ हत्या से रंगे
बदले हुए थे बोटियों में
और शव के नाम पर कुछ लोथड़े।
छूंछा कफन
कुछ गोलियों छर्रों बमों के चंद तमगों को समेटे
चाटता था धूल
जय-जयकार से अविचल ।
खोजते मृगजल
बधिक इनसान के
पहले वहां पहुंचे हुए
मरुभूमि में भटके
पथिक ज्यों कारवां से छूटकर ।
और यह उन्मत्त प्यासा
मुक्त साधक की तरह
बलिदान का खप्पर उठाए
अनगिनत सपने संजोए
अमर लोकातीत निधियों के
सुनहरी रमणियों के
मानता मैं आ गया हूं
छोड़कर अन्याय के मरघट
अंधेरों में कहीं नीचे।
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(‘धरती एक पुल’ कविता संग्रह से साभार)