3 अक्टूबर : जर्मनी एकीकरण दिवस (Tag der Deutschen Einheit!!)

डॉ शिप्रा शिल्पी सक्सेना, कोलोन, जर्मनी

युद्ध कभी समाधान न हुए है न होंगे। युद्ध नरसंहार देता है, नेस्तनाबूत करता है और सिर्फ और सिर्फ नुकसान करता है।

कारण कोई भी हो, लाभ जिनका होता वो आप भी जानते हम भी। जर्मनी के एकीकरण के ऐतिहासिक घटनाक्रम को अधिकांशतः लोग जानते है।

जर्मन एकता दिवस : 3 अक्टूबर, 1990 में जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक (पूर्वी जर्मनी) जर्मनी के संघीय गणराज्य (पश्चिम जर्मनी) के पुनर्मिलन का दिन एकता दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन आधी रात को – एक पुन: एकीकृत जर्मनी द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहली बार पूर्ण संप्रभु राज्य बन गया था। ये एक राष्ट्रीय अवकाश का दिन है।

1945 और 1949 के बीच, देश को चार कब्जे वाले क्षेत्रों में विभाजित किया गया था – अमेरिकियों, ब्रिटिश, फ्रांसीसी और तत्कालीन सोवियत के कब्जे में। 1949 में सोवियत क्षेत्र साम्यवादी पूर्वी जर्मनी – या डॉयचे डेमोक्रैटिस रिपब्लिक (डीडीआर) बन गया, जबकि शेष देश पश्चिम जर्मन बुंडेसरेपब्लिक डॉयचलैंड (बीआरडी) बन गया।  बुंडेसरेपुब्लिक आज भी जारी है, लेकिन अब पांच पूर्वी संघीय राज्यों और पूर्वी बर्लिन के साथ, जो पहले डीडीआर में थे।

किन्तु ये वो इतिहास है जो आप पढ़ते आये है, आज बात कुछ अलग कुछ भावनाओ की,  मुझे इतिहास के गलियारों में, उनकी कहानियों को सुनना रुचिकर लगता है, इसी संदर्भ में मैं मिसेज वाल्डेंरकर, जो कि 89 वर्ष की जर्मन महिला है, कोलोन विश्वविद्यालय में पूर्व प्रोफेसर (इतिहास) रही है,उनके पति जर्मन आर्मी में अफसर थे एवं इन सब से बड़ी बात ये 9 नवंबर, 1989 बर्लिन की दीवार गिरने की प्रत्यक्षदर्शा रही है। जब एक लेख के संबंध में इनसे मिलना हुआ तो बातचीत के मध्य मुझे लगा ‘जर्मनी से विश्व को एकता का’ एक पाठ अवश्य सीखना चाहिए।

यूँ तो जर्मनी विश्व मे अपनी हिटलर शाही के लिए अधिक जाना जाता है, किंतु बर्लिन की दीवार का गिरना प्रमाण है, एक देश के दो विभाजित भागो को एक किया जा सकता है। यदि दृढ़ इच्छा शक्ति हो तो शांतिपूर्ण ढंग से भी पुनः एक हुआ जा सकता है। ऐसा उदाहरण विश्व के किसी भी विभाजित हुए देश मे देखने को नही मिलता।

आज भी कितने ही देश, उनके नागरिक, जिसमे भारत, सोवियत यूनियन,चेकोस्लोवाकिया, अफ्रीका आदि अनेकों कितने ही देश विभाजन की पीड़ा के दर्द को सह रहे है। राजनीतिज्ञ अपने तख्तों ताज को बनाये रखने के लिए अलगाववाद की नीति अपनाने के तनिक भी गुरेज नही करते। ऐसे  में एक देश अपनी की गई भूलों को सुधार कर एकीकरण को अपनाता है, तो निश्चित ही एकता का इससे सुंदर उदाहरण विश्व पटल पर देखने को नही मिलता।

मैं राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक हानि लाभ की दृष्टि से इस विषय को नही देख रही, बिना लाभ के ये एकीकरण संभव नही होता, एक पक्ष नही रहा होगा, अनेकों समझौते किये गए थे, पर कोई भी झुका हो या टूटा, किसने किसकी सुनी इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण था सीमाओं का असीमित होना। जानती हूँ, पर बात उस भावना की भी, जिसकी आज भी सम्पूर्ण विश्व में जरूरत है। मतभेदों के बाद भी समान हित के लिए एक होने की बात। जो द्वितीय विश्वयुद्ध में तबाह होने के बाद भी जर्मनी ने कर दिखाई।

डॉ वाल्डेंरकर बताती है, लाखो की भीड़ थी पर सब अपने थे, हम रो रहे थे, घायल थे, खून बह रहा था, परवाह नही थी, पर हमारी भावनाएं उन्माद पर थी। हम अपनो को ग़ले लगा रहे थे, तड़प के साथ। कभी न अलग जाने देने की भावना के साथ।

ये हमारी भावनाओ के विस्फोट के क्षण थे।  एक स्वतंत्रता जो हमारी भंगिमाओं में थी,  हमारे मन को खुशी से भर रही थी।

वो सिक्युरिटी अफसर भी जो मृतप्राय से दीवार गिरने से पहले हमें जांच पड़ताल करते थे, कड़ी नजरो से देखते थे, आज जिंदा प्रतीत हो रहे थे। वो दीवार नही भावनाएं भरभराकर गिर रही थी, जो दीवार उठने पर पागलों सी अपनो को देखने के लिए, स्वतंत्र जीने के लिए दीवार को नोचती, खसोटती, पागलों सी चारो ओर चक्कर लगाया करती थी। उनकी आँखों में आंसू थे वो चलचित्र सा उन पलो का मुझे साक्षी बना रहीं थी।

अब मेरा सवाल था इतनी बड़ी खुशी का दिन 9 नवम्बर क्यों नही एकता दिवस के रूप मे मनाया गया?

जवाब आशानुरूप संवेदना पूर्ण था।

उन्होंने कहा,  पुनर्मिलन का जश्न मनाने का एक वैकल्पिक विकल्प बर्लिन की दीवार गिरने का दिन हो सकता था: 9 नवंबर 1989, जो 1918 में जर्मन गणराज्य की घोषणा की सालगिरह और 1923 में हिटलर के पहले तख्तापलट की हार के साथ मेल खाता था। हालाँकि, 9 नवंबर 1938 में यहूदियों के खिलाफ पहले बड़े पैमाने पर नाजी नेतृत्व वाले नरसंहार (kristalnacht,) की सालगिरह भी थी, इसलिए इस दिन को राष्ट्रीय अवकाश के रूप में अनुपयुक्त माना गया था।

लेकिन ये राजनीतिक कारण हो सकते है हमने 28 वर्षों का एक काला अतीत बिताया था, जो उस समय हम सब पर हावी था, हम खुश थे पर अनगिनत कडुवी यादों के साथ। मन कसैला था और जीवन पर्यंत ये दिन खुशी के साथ उस कडुवाहट, दर्द, तड़प को भूलने नही देता।

इसलिये 3 अक्टूबर 1990, औपचारिक पुनर्मिलन का दिन एकता दिवस के रूप में चुना गया।

आज ये लिखने का मंतव्य बस एक प्रश्न है सभी से, क्या स्वार्थगत राजनीति से ऊपर उठकर विश्व के अनेक विभाजित देश पुनः समान हितों के आधार पर एक होने की संकल्पना नही कर सकते। जब जर्मनी जैसा अति प्रतिबद्ध देश ऐसा कर सकता है तो अन्य देश क्यों नही।

युद्ध कभी समाधान न हुए है न होंगे। युद्ध नरसंहार देता है, नेस्तनाबूत करता है और सिर्फ और सिर्फ नुकसान करता है।

एक अति सामान्य नागरिक की दृष्टि से जब भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मिली हूँ कोई भी विभाजन नही चाहता, युद्ध तो बिल्कुल भी नहीं ।

आपसे पूछती हूँ क्या आप चाहते है इन पीड़ाओं से गुजरना।

मैं जानती हूँ आपको ये प्रश्न बचकाना लगेगा, बुद्धजीवियों को मूर्खतापूर्ण, न ये सहज है, न मेरे लिख देने जितना आसान पर एक सोच जरूर है, जब युद्ध एवं अलगाव के विषय में सोचा जा सकता है, तो एकता के विषय मे क्यों नहीं।

कठिन तो जर्मनी के सियासतदारों के लिए भी रहा होगा पर निजहित को थोड़ी देर परे रखकर, जब देशहित सोचा होगा, तभी सम्भव हो पाया एकीकरण।

कभी सोचिएगा क्यों इतनी आसानी से नफ़रतें फैला दी जाती है पर प्रेम क्यों नहीं। क्योकि नफरतों को हम आसानी से स्वीकार कर लेते, बिना सोचे विश्वास कर लेते और प्रेम में स्वार्थ ढूंढते है उसे सहज स्वीकार नही करते उसी रूप में।

कभी कही जब अलगाव का बीज बोया जाता होगा तो एकता का बीज बोने में दुरेज क्यों।

मुश्किल तो कुछ भी नही है न नफ़रतें, न प्रेम। हाँ लाभ हानि के आधार पर चुनाव कठिन हो सकता है।

सोचिएगा!!

एकता, प्रेम, पुनर्मिलन के दिन की पुनः पुनः बधाई मात्र मेरे जर्मन दोस्तों को नही उन सभी को जो एकता में विश्वास रखते।

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