दक्षिण भारत में सतमाहे की रस्म और गीत
डॉ० नोरिहिको उचिदा
[प्राय: सारे भारतवर्ष में गर्भावस्था के दौरान गर्भिणी के लिए कम से कम एक रस्म पूरी की जाती है। साधारणतः उस समय गाना भी गाया जाता है। इस लेख में दक्षिण भारत में प्रचलित रस्म का वर्णन है तथा तीन गीत अनुवाद सहित दिए हुए हैं। इस रस्म के लिए दक्षिण भारत में सीमंत, वळैक्काप्पु आदि नाम है। इस निबंध में इस रस्म को “सतमाहे की रस्म” नाम दिया गया है और गाने को “सतमाहे के गीत” नाम दिया गया है, हालाँकि “सतमाहे” का शब्द दक्षिण भारत में प्रचलित नहीं है।
सतमाहे की रस्म का वर्णन लोकवार्ता संबंधी पुस्तकों और निबंधों में बहुत कम मिलता है। रस्म का वर्णन न मिलने का एक कारण यह भी है कि प्रजनन संबंधी कार्यों पर चर्चा अश्लील मानी जाती है। दूसरे, बचपन से देखते रहने के कारण भारतीयों के लिए इस रस्म में विशेष आकर्षण नहीं रह जाता। गीतों का संग्रहण न किए जाने का कारण यह भी होगा कि इन गीतों में कलात्मक सौंदर्य कम है। लेकिन मैंने गीतों को इकट्ठा करने की कोशिश की है कि ये गीत भारत की गर्भावस्था संबंधी प्रथाओं, परंपराओं, रस्मों, लोक-चिकित्सा, तथा मान्यताओं आदि पर प्रकाश डालते हैं।
तमिल और तेलुगु गीतों की व्याख्या के लिए मैं श्री टी० जानकिरामन, श्री श्रीपति (आकाशवाणी श्री ए०पी० दशरथन् नई दिल्ली में द्राविड भाषा शास्त्र संस्थान के प्रतिनिधि और प्राध्यापक इन्द्रा पार्थसारथी (दिल्ली विश्वविद्यालय) का आभारी हूँ। हिंदी भाषांतर और संशोधन के लिए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक सत्यभूषण वर्मा तथा विद्यार्थी श्री सुशील डोवल, श्री नवाब अली वारसी, कुमारी नीरा कोंगारी, कुमारी मंजूश्री चौहान की सहायता के लिए भी आभार प्रकट करना चाहूँगा।]
- सतमाहे की रस्म
1.1 रस्म और प्रसव होने की जगह
दक्षिण भारत में प्रसव मायके में होता है और उत्तर भारत में अधिकतर ससुराल में। तदनुसार उत्तर भारत में सतमाहे की रस्म ससुराल में पूरी की जाती है और दक्षिण भारत में प्रायः मायके में पूरी की जाती है। लेकिन कर्नाटक में सतमाहे की रस्म पूरी करने के बाद गर्भिणी मायके भेजी जाती है। इन दोनों परंपराओं का समझौता माना जा सकता है। यह आर्यों और द्राविडों की पुरानी समाज व्यवस्था के अंतर का द्योतक है।
1.2 रस्म पूरी करने का समय
सारे भारत में यह रस्म 7वें महीने में या 9वें महीने में, यदि संभव न हो तो 5वें महीने में पूरी की जाती है। शुभकार्यों के लिए समसंख्या पसंद नहीं की जाती है। यह कहने की ज़रूरत नहीं होगी कि भारत की परंपरा के अनुसार यह रस्म शुभ दिन और शुभ मुहूर्त देखकर पूरी की जाती है।
1.3 इस रस्म का नाम
वैदिक संस्कार के रूप में इस रस्म को सीमंत कहते हैं। दक्षिण भारत में भी यह नाम किसी हद तक प्रचलित है। लेकिन इस से अधिक लोकप्रिय नाम प्रत्येक प्रदेश में सुनने में आता है। तमिल ब्राह्मण वैदिक संस्कार को सीमंतम् और लोक रस्म को वळैक्काप्पु (चूड़ियों की रस्म) कहते हैं तथा ये दोनों रस्म पूरी की जाती हैं। ग़ैर-ब्राह्मण लोग इसको वळैक्काप्पु कहते हैं और कभी-कभी सीमंतम् भी कहते हैं। लेकिन दोनों एक ही रस्म के दो नाम हैं। उत्तर प्रदेश में इसको “सतमासा पूजन” कहते हैं और “गोद भराई” भी कहते हैं। सीमंत नाम प्रचलित नहीं है। पंजाब में इसको ‘रीताँ दी रस्म” कहते हैं। बंगाल में इस को “शाध” कहते हैं और महाराष्ट्र में “ओटी भरण”। आंध्र प्रदेश में “गाजुलु तोडिगिचुट” (चूड़ियाँ पहनाना) और “सूडियलु” (उपहार) नाम प्रचलित है। “सीमंतम्” और अति-संस्कृत रूप “श्रीमंतम्” भी प्रचलित हैं, लेकिन वैदिक नाम अधिक उपयोग में नहीं आता। कर्नाटक में वैदिक नाम “सीमंत” या “श्रीमंत” शहरों में अधिक प्रचलित है और गाँव में इसे “बसिरु होसगे” यानी गर्भ का उत्सव कहते हैं। इन नामों से मालूम होता है कि इस रस्म के लिए तमिलनाडु में और आंध्र प्रदेश में चूड़ियाँ पहनाने को सबसे अधिक महत्त्व दिया जाता है और उत्तर प्रदेश में गोद भरने को। कर्नाटक में किसी एक को एकांतिक रूप से महत्त्व नहीं दिया जाता। इसलिए इस रस्म को “बसिरु होसगे” कहते हैं।
1.4 चूड़ियाँ पहनाना
तमिलनाडु में और आंध्र प्रदेश में चूड़ियाँ पहनाना इस उत्सव का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग समझा जाता है। जहाँ तक मुझे मालूम है, उत्तर प्रदेश और पंजाब में चूड़ियाँ पहनाने की रस्म प्रचलित नहीं है। तमिल ब्राह्मणों में सबसे पहले माता नीम की टहनी की बनी हुई चूड़ी पहनती है। माना जाता है कि नीम की टहनी संक्रामक रोगों को रोकती है। कर्नाटक और महाराष्ट्र में हरे रंग की चूड़ियाँ पहनाई जाती हैं। चूड़ियाँ क्यों पहनाई जाती हैं, यह किसी को ठीक पता नहीं है। श्रीमती जे० राजलक्ष्मी (2.1) के अनुसार चूड़ियों की आवाज़ सुनकर बच्चा संतोष अनुभव करता है, लेकिन यह शायद आधुनिक व्याख्या होगी। सिर्फ़ इतना ही कहा जा सकता है कि चूड़ियाँ सुहाग की प्रतीक समझी जाती हैं। मैसूर के लिंगायत समुदाय की एक महिला ने मुझे बताया कि पुराने जमाने में प्रत्येक महीने में एक रस्म होती थी। अब ख़र्च कम करने के लिए चूड़ियाँ सीमंत के समय पहनाई जाती हैं। इससे यह मालूम होता है कि लिंगायतों में वैदिक संस्कार में सीमंत के साथ-साथ चूड़ियाँ पहनाने की लोक रस्म भी होती थी।
1.5 गाना गाने की प्रथा
हर एक रस्म के लिए महिलाओं का गाना गाना भारत की परंपरा है। तमिल ईसाई श्रीमती बारबरा (2.2) के अनुसार वेळाळ-ईसाई लोग सतमाहे की रस्म के लिए गाना नहीं गाते। कारण दो हो सकते हैं। एक तो ईसाई लोग हिंदू रस्मों को संक्षिप्त रूप में ही पूरा करते हैं। दूसरे, तमिलनाडु में हर रस्म के लिए स्त्रियों का गाना गाना उतना प्रचलित नहीं है, जितना कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में (2.3)।
1.6 वैदिक और ग़ैर-वैदिक परंपराएँ
सीमंत की रस्म वैदिक-संस्कारों में से एक है। वैदिक सीमंत-संस्कार का वर्णन ‘Hindu Sanskars’ (Raj Bali Pandey: 1969, p. 64-69) में मिलता है। यह वैदिक संस्कार संभवतः पूर्व आर्यकालिक उत्तर भारत में प्रचलित रस्मों पर आधारित है।
दक्षिण भारत में वैदिक सतमाहे की रस्म और ग़ैर-वैदिक रस्म में नीचे दिए हुए भेद देखने में आते हैं :-
1. वैदिक रस्म में पुरोहित का भाग लेना ज़रूरी है, जबकि ग़ैर-वैदिक रस्म में पुरोहित को नहीं बुलाया जाता; सुहागिनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
2. वैदिक रस्म एक धार्मिक रस्म है, जबकि ग़ैर-वैदिक रस्म ग़ैर-धार्मिक है।
3. वैदिक रस्म में होम होता है, जबकि ग़ैर-वैदिक रस्म में नहीं।
वैदिक रस्म शास्त्र द्वारा निर्धारित होने के कारण वैदिक सीमंत को तमिल ब्राह्मण पूरा करते हैं। लेकिन किसी जाति में भी सीमंत का वैदिक संस्कार ग़ैर-वैदिक रस्म का स्थान नहीं ले सका है। फलत: दोनों का संबंध निम्नलिखित प्रकारों का हो सकता है।
1. दोनों रस्में पूरी की जाती हैं (जैसे तमिल ब्राह्मणों में)।
2. पुरोहित को बुलाकर होम या पूजा करवाते हैं, लेकिन उसमें लोक रस्मों का मिश्रण दिखाई देता है (कर्नाटक)।
3. लोक रस्म ही पूरी की जाती है (तमिलनाडु के ग़ैर-ब्राह्मणों में और आंध्र प्रदेश में)।
4. वैदिक संस्कार ही पूरा किया जाता है (केरल के नम्बूदिरी ब्राह्मणों में)।
2.0 सतमाहे की रस्म का वर्णन
नीचे दो तमिल सूचिकाओं (2.1, 2.2.) द्वारा किए गए रस्मों तथा रिवाज़ों का वर्णन प्रस्तुत है। दक्षिण भारत और उत्तर भारत के रस्म रिवाज़ों में कहीं समानता और कहीं असमानता भी पायी जाती है। समानताओं और असमानताओं के संदर्भ में उत्तर प्रदेश की वैश्य (गुप्ता) जाति की एक रस्म को उदाहरण रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है (2.4.)।
इसके अतिरिक्क रस्म की जानकारी के लिए ‘Folklore of Tamil Nadu’ ( Lakshmanan : 1973, P. 76) तथा ‘Caste and Tribes of South India’ (Thurston: 1909) आदि पुस्तकें देखी जा सकती हैं।
2.1 तमिल ब्राह्मणों में मनायी जाने वाली सतमाहे की रस्म
(श्रीमती राजलक्ष्मी (49), कोण्डपुरम्, तञ्जावूर जिला में जन्मी हुई स्मार्त्त ब्राह्मण के अनुसार)
गर्भवती होने के बाद पाँचवें या सातवें महीने की पंचमी को स्त्री को ससुराल से मायके भेज दिया जाता है। साधारणतः ससुराल से मायके भेजने की ज़िम्मेदारी स्त्री की ननद के ऊपर होती है, लेकिन ननद के न होने पर पति की चचेरी बहन आदि इस रस्म को पूरा करती हैं। इन स्त्रियों के साथ ससुर, पति का बड़ा भाई आदि भी जा सकते हैं। यह कार्य शुभ मुहर्त पर ही किया जाता है। उपहार के रूप में कोई चीज़ ले जाने की प्रथा नहीं है।
यह धार्मिक संस्कार न होने के कारण इसमें पुरोहित आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती। लकड़ी से बने हुए आसन को अल्पना से सजाकर गर्भवती स्त्री को पूर्व दिशा की ओर मुँह करके उस पर बिठाया जाता है। स्त्री को काले रंग की साड़ी पहनाई जाती है (यों तो काली साड़ी पहनने की अनुमति नहीं होती)। इसको मसक्कै करुप्पू (दोहद कालिमा) कहते हैं। स्त्री के सामने का फ़र्श एक बड़ी अल्पना से सजाया जाता है। उस पर टोकरी या दूसरे बरतन रखे जाते हैं जिनमें पचभक्षणंगळ् (पाँच प्रकार के खाद्य) रखे जाते हैं। उदाहरणतः
1. मुरुक्कु (एक प्रकार का नमकीन)
2. तेनकुषल् (एक प्रकार का नमकीन)
3. परुप्पू-तेङगाय् (चने, नारियल और गुड़ का मिश्रण)
4. लड्डू
5. कोई दूसरी चीज़
इस रस्म के लिए पहले मनिहार को बुलाया जाता है। हल्दी के चूर्ण को पानी में मिलाकर शंकु बनाया जाता है, विनायक (गणेश) पूजा से कार्य शुरू होता है। एक थाली में नीम की टहनी से बनाई हुई चूड़ी को रखा जाता है आर्थिक क्षमतानुसार सोने या चाँदी की चूड़ी भी रखी जाती है। थाली में पान, सुपारी, रोली आदि भी रखी जाती हैं। (नीम की चूड़ी रखने का रिवाज़ इसलिए है कि इससे संक्रामक रोगों का निवारण होता है)।
इस कार्य में सुहागिन स्त्रियाँ ही भाग लेती हैं। इनकी संख्या 5 होती है। पहले गर्भवती स्त्री की माता नीम की टहनी की चूड़ी गर्भवती स्त्री को पहनाती है जो कि सबसे महत्त्वपूर्ण समझा जाता है। इसके बाद स्त्री की सास उसको सोने या चाँदी की चूड़ी पहनाती है। इसके पश्चात् पाँच सुहागिन मिलकर अक्षत और चंदन की लेई को स्त्री की कमर के मेरुदंड पर लगाकर थपकी देती हैं। इसके बाद स्त्री स्वजनों को प्रणाम करती है। मनिहार स्त्री के बायें हाथ में रोग़न की चूड़ी पहनाता है। इसके बाद मनिहार और अन्य स्त्रियाँ स्त्री को दूसरी किस्मों की चूड़ियाँ पहनाती हैं। चूड़ियाँ इतनी सावधानी से पहनाई जाती हैं कि वे टूटें नहीं। चूड़ियों का टूटना अपशकुन समझा जाता है। चूड़ियाँ पहनाने के बारे में लोगों के तरह-तरह के मत हैं, लेकिन इनमें से एक भी प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता। श्रीमती राजलक्ष्मी के अनुसार बच्चा चूड़ियों की आवाज़ सुन कर खुश होता है।
“सीमंतम्” होने के बाद शाम को औरतें मसक्कै-प्पाट्टु (दोहद-गीत) गाकर गर्भिणी स्त्री का मनोरंजन करती हैं। यह रस्म ब्राह्मण जाति में अधिक आडंबर से मनायी जाती है। इकट्ठा हुए लोगों को जो खाना दिया जाता है, उसमें पोंगल (एक प्रकार की खिचड़ी) सबसे ज़रूरी चीज़ समझी जाती है। “सीमंत” समाप्त होने पर आम तौर पर लोग उसी दिन शाम को वापस जाते हैं। सुविधानुसार कुछ दिन बाद भी जा सकते हैं।
प्रसव के 22 वें दिन स्त्री ससुराल जा सकती है। सुविधानुसार 40 दिन के बाद या कभी दो-तीन महीने के बाद भी ससुराल जा सकती है।
दूसरा प्रसव अधिकतर ससुराल में होता है। इसलिए साधारणतः यह रस्म नहीं मनायी जाती।
2.2 तमिल वेळाळ ईसाइयों में मनायी जानेवाली सतमाहे की रस्म (5-4-1980)
(श्रीमती F बारबरा (50), ऊटी में जन्मी तिरुच्चिरपळ्ळि, तमिलनाडु की वेळाळर-रोमन कैथोलिक जाति के अनुसार)
तमिलनाडु की प्रथा के अनुसार, आम तौर पर, गर्भवती स्त्री को सातवें महीने में मायके बुलाया जाता है। एक दिन निश्चत करके स्त्री के माता-पिता दही-भात (तयिर्-सादम्), इमली का भात (पुळि सादम), नींबू का भात (ऍलुमिच्चम् सादम्), टमाटर का भात (तक्काळि सादम्), नारियल का भात (तेंगाय् सादम्), पकी हुई सूखी सब्जी, भुना हुआ गोश्त या सब्जी, लड्डू, मैसूर पाक, अतिरसम् (एक किस्म की मिठाई), वड़ा, खीर आदि लेकर उसकी ससुराल आते हैं। माँ अपने साथ लाई हुई नई साड़ी और काँच की चूड़ियाँ गर्भवती को पहनाती है। बालों में फूल गूँथकर बदन में चंदन लगाती है। इसके बाद, एक सुहागिन स्त्री (माता आदि) अपने साथ लाया हुआ नारियल, फल, पान, सुपारी, फूल, कुमकुम, हल्दी वग़ैरह उसकी साड़ी के पल्ले में डालती है। इसे “मडि कट्टुदल्” (गोद भरना) कहते हैं। इस रस्म में रिश्तेदार भी भाग लेते हैं। यदि किसी कारणवश स्त्री को मायके न लाया जा सके, तो उसे गिरजे में अथवा घर के बाहर ले जाया जाता है।
2.3 उत्तर प्रदेश के वैश्यों में मनायी जाने वाली सतमाहे की रस्म (20-1-1979)
(श्रीमती कमला गुप्ता (25) इलाहाबाद निवासी के 16 जुलाई 1980 को दी हुई जानकारी के अनुसार)
सात महीने पूरे होने के पश्चात् आठवां शुरू होने पर ससुराल में “सतमासा पूजन” नाम की पूजा होती है। नाइन या ससुराल की महिलाएँ आटे से आँगन में चौक पूर कर पटला बिछाकर पति-पत्नी को बिठाती हैं। दोनों का मुँह पूर्व की ओर होना चाहिए। इस पूजा के लिए पंडित बुलाया जाता है।
पंडित द्वारा हवन आदि होता है। इस पूजा के लिए बहू जो कपड़े पहनती है, वो सब मायके से आते हैं। इसके अतिरिक्त सभी रिश्तेदार बहू को कपड़ा देते हैं।
पूजा के बाद पंडित बहू की गोद मायके से आए हुए नारियल, फल, मेवा, मिठाई आदि से भरते हैं। पूजा के बाद सुहागिनें गाना गाती हैं। उस समय सोहर के गाने गाये जाते हैं। उसके बाद भोज होता है। इस अवसर पर गाया जाने वाला सोहर का गीत नीचे दिया हुआ है। (16-1-1980)
“ननदिया आज छम-छम नाचे
ये राजा मेरे माथे की बिंदिया भारी
ननदिया आज उसको माँगे
जो बहना मेरी माँगे मना मत करना
समय ऐसा न रोज़ आए
ननदिया आज छम-छम नाचे
ये राजा मेरे कानों के कुंडल भारी
ननदिया आज इसको माँगे
जो बहना मेरी माँगे मना मत करना
समय ऐसा न रोज़ आए
ननदिया आज छम-छम नाचे
ये राजा मेरे गले का हरवा भारी
ननदिया आज उसको माँगे
जो बहना मेरी माँगे मना मत करना
समय ऐसा न रोज़ आए
ननदिया आज छम-छम नाचे
ये राजा मेरे हाथों के कंगन भारी
ननदिया आज उसको माँगे
जो बहना मेरी माँगे मना मत करना
समय ऐसा न रोज़ आए
ननदिया आज छम-छम नाचे
ये राजा मेरे पैरों के पायल भारी
ननदिया आज उसको माँगे
जो बहना मेरी माँगे मना मत करना
समय ऐसा न रोज़ आए
ननदिया आज छम-छम नाचे
3.0 सतमाहे के गीत
3.1 गीतों के विषय
दक्षिण भारत में प्रचलित सतमाहे के गीतों के विषय निम्नलिखित हैं :-
(क) गर्भावस्था का वर्णन
गर्भावस्था के वर्णन में प्रत्येक पंक्ति “पहले महीने में…. दूसरे महीने में….” ऐसे शब्दों से आरंभ होती है। सतमाहे की रस्म में उपस्थित स्त्रियाँ इस प्रकार के गीत गाकर खुशियाँ मनाती है। ऐसे अवसर पर गीत गाने का कार्य सिर्फ़ खुशियाँ मनाना नहीं है। आधुनिक युग में “गर्भधारण से प्रसव तक” आदि शीर्षक को अनेक पुस्तक छप चुकी हैं और ऐसी पुस्तकों के द्वारा गर्भवती स्त्रियाँ स्वयं ही सभी आवश्यक बातों से भली-भाँति परिचित हो जाती हैं। पुराने समय में स्त्रियाँ, जो अधिकतर निरक्षर होती थीं, गीतों के माध्यम से गर्भावस्था संबंधी रस्मों और उपचार आदि का ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाती थी।
(ख) गर्भिणी की आवश्यकताओं का वर्णन
इस प्रकार के गीतों में हर पंक्ति के अंत में “चाहिए” शब्द आता है। इस प्रकार के गीतों में गर्भिणी बताती है कि उसकी क्या-क्या आवश्यकताएँ हैं। इस प्रकार के गीत गाने का कार्य भी खुशियाँ मनाने के साथ-साथ स्त्रियों को यह अवगत कराना है कि गर्भिणी को किन-किन चीज़ों की आवश्यकता होती है और उसका उपचार कैसे करना चाहिये। कलात्मक दृष्टि से इस श्रेणी के गीतों में कोई आकर्षण नहीं होता।
(ग) खुशी के गीत
इस प्रकार के गीत आंध्र प्रदेश में अधिक प्रचलित हैं। इन गीतों में गर्भवती स्त्री के सगे-संबंधियों में से कुछ सुहागिन मिलकर एक दूसरे से ये कहती हैं कि “चलो गर्भवती स्त्री के पास चलें” और साथ ही इसमें गर्भवती स्त्री के रंग-रूप को प्रशंसा करती हैं और “लायक लड़का पैदा हो” इस प्रकार का आशीर्वाद भी देती हैं। इस श्रेणी के गीतों में कलात्मक सौंदर्य की संभावना अधिक रहती है।
(घ) भक्ति
दक्षिण भारत में लोकगीतों को भक्ति गीतों का रूप देने की प्रवृत्ति मिलती है। उदाहरणतः लोरी गीत में बच्चे को भगवान कृष्ण समझकर उसके गुणों का वर्णन किया जाता है। इस रीति के अनुसार गीत (4.2.) में दंपति ने अच्युत से पुत्र के लिए प्रार्थना की और भगवान ने उनकी कामना पूरी की। गीत (4.3) में गर्भिणी को सीता समझकर उसका वर्णन किया गया है।
दक्षिण भारत में उपर्युक्त विषयों में से एक या दो को लेकर सतमाहे का गीत गाया जाता है।
3.2 दक्षिण भारत में सतमाहे के गीतों की परंपरा
महिलाओं का हर एक रस्म में गीत गाना भारत में व्यापक रूप से प्रचलित है। ऐसे गीत गाने वाली स्त्रियाँ आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में अधिकतर मिलती है। तमिलनाडु और केरल में स्थिति कुछ और है। ग़ैर-ब्राह्मण जातियों में रस्म के लिए गीत गाने वाली स्त्रियाँ मुश्किल से मिलती हैं। कारण यह हो सकता है कि अंग्रेज़ों का राज दक्षिण भारत में सबसे पहले तमिलनाडु से शुरू हुआ था और केरल शिक्षा में सबसे आगे है। इन कारणों से इन दोनों प्रदेशों में पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव सबसे अधिक पड़ा है। फलत: गाने की रीति समाप्त हो गई है। लेकिन यह सिद्धांत गलत लगता है, क्योंकि विदेशी संस्कृति का प्रभाव सबसे ज़्यादा शिक्षित वर्ग पर पड़ना चाहिये। लेकिन तमिलनाडु और केरल दूसरी जातियों को अपेक्षा ब्राह्मणों में सबसे अधिक रस्मों के गीत गाये जाते हैं। इसलिए मालूम होता है कि हर एक रस्म के लिए गीत गाने की रस्म, जो भारतीय लोक संस्कृति की मुख्य धारा है, तमिलनाडु में ग़ैर-ब्राह्मण जातियों में जड़ नहीं पकड़ सकी है।
4.0 सतमाहे के तीन गीत
41. दोहद गीत (तिरुनेलवेलि जिला तमिलनाडु से)
श्रीमती जे० सरस्वती, ब्राह्मण जातीय ग्राम शिवगिरि की स्तलिखित पुस्तिका से आभार :-
मचक्कैप् पाट्टु
कोवैप्पष-निरत्तारे
कुयिल मोषियाळे-एन्दन्
अन्न मो षि याळे-उन्दन्
अडि वयिरिल तान् एन्न?
वेण वेण बाग्गियगळ्
विद विदमाय नान् तरुवेन्ज
उरुक उरुक को रु को प्पारै
वेन्नीरुम् वेणुम्
आरिन पिरॅ पाडु अरै त्तवलै वेणुम् –
तवले रोम्प चादम्वे णुम्मा
ताकम् तण्णीर वेणुम्
एट्टोड तयिर् वेणुम्
इञ्जि ऊरुंकाय वेणुम्
इन्बमान चादत्तुक्कोर्
ऐलुमिच्चंकाय वेणुम्
नयमान चात्तुको रु
नार्तङ काय वेणुम्
पुळिक्काद चात्तुक्को रु
पच्चै माङ गाय् वेणुम्म्
ऐण्णे यप् पषयदुक्कु
मोळकायप्पो डि वेणुम्
चुडच् चुडत् तोचै वेणुम्
चुण्डेक्काय वेणुम्
चुक्कु मिळकु पोट्ट
इट्टलियुम् वेणुम्
अरुवरुत्त नाक्कुक्को रु
अळ्ळु चीडै वेणुम्
विरु विरुत्त नाक्कुक्को रु
वेल्लच् चीडै वेणुम्
पोक वरत् तिङ ग
पो रिकडले वेणुम्
पोरिच्च करि वेणुम्
वाषै क्कायप् पो रित्तूवल्1
वकै वकयाय वेणुम्
पोरि विळङ गाय् वेणुम्
वेळ्ळरिक्कायप् पोडित्तूवल्
विदमाक वेणुम्
करुणैक् किषङ गिले ओरु वीचै वेणुम्।
पाळ् रोम्बच् चेतदो रु
पायचम् वेणुम्मा
परुप्परुचि पोङ्गल वेणुम्
पच्चैप पुळि वेणुम्
इलैयिले चादिक्क तेङगायुम् वेणुम्
ऐडुत्तुच चादिक्क ओ रु एत्त तङगै वेणुम्
नालु नाळ नाळेक को रु
एण्णेय मुरै वेणुम्
नयमाकत तेयत्तु विड नात्तनार वेणमा
एटु नाळ नाळेक को रु
एण्णे य् मुरै वेणुम
इन्बमायत तेयत्तु विडत् तायारुम् वेणुम्
पिचुक्कुत् तलै तेयत्तु विड
चिरु तायार् वेणुम्
मञ्जळ अरैस्तु वैनक
मदिनि ओं रुचि वेणुम्
इत्तनैयुम् चें यदु तर
एत्त तङगै वेणुम्
200 पवुन् तारेन्
वेण्डियदैच् चे यदु कोळळ
एलेलो……. एलेलो……… एलेलो
1. मूल में – हंस जैसी बोलने वाली।
दोहद-गीत
दोहद-गीत
कुंदरू जैसे रंग वाली
कोकिल जैसी बोलने वाली
हंस जैसी चलने वाली
तेरे पेट में क्या है?
जितनी भी चीजें चाहे तू
दूंगा वो सब तरह तरह की
मेरे को हंडा भर गरम गरम पानी चाहिये
ठंडा होने पर आधा घड़ा और चाहिये।
मूल में-हंस जैसी बोलने वाली
मेरे को घड़ा भर भात चाहिये
और पीने का पानी भी
मेरे को ठोस दही चाहिये
और अदरक का अचार भी
मीठे भात के साथ
नीबू का अचार चाहिये
अच्छे पके भात के साथ
गलगल का अचार चाहिये
ताजे पके भात के साथ
कच्चे आम का अचार चाहिए
और गरम दोसे के साथ
पिसी लाल मिर्च चाहिये
बासी भात, तिल के तेल के साथ
सुडाइ1 फल चाहिये
सोंठ और काली मिर्च के साथ
मेरे को इडली भी चाहिये
स्वाद माँगती जीभ को
चुल्लू भर सीडाइ2 चाहिये।
स्वाद चाहती जीभ को
गुड़ की भी सीडाइ2 चाहिये
कभी कभी खाने को
लाई और चना चाहिये।
भुना हुआ माँस चाहिये
और तले केले भी
तरह-तरह के चाहिये
खीरे की भाजी भी
तरह-तरह की चाहिये
पसेरी भर जिमीकन्द चाहिये
खूब दूध वाली खीर चाहिये
दाल और चावल की खिचड़ी चाहिये
कच्ची इमली चाहिए।
पत्ते पर परोसने को नारियल चाहिये
परोसने के लिए छोटी बहन चाहिये
हर चौथे दिन में मालिश चाहिये।
अच्छी तरह रगड़ दे, ऐसी ननद चाहिये
हर आठवें दिन तेल से नहलाना चाहिये
और प्यार से रगड़ दे वह माँ भी चाहिये
तेल से चिकने माथे को
रगड़ने को छोटी मौसी चाहिये।
हल्दी पीस के रखने को
मेरे को भाभी चाहिये
ये सब करने के लिए
एक लायक छोटी बहन चाहिये
दो सौ तोला सोना दूंगा
इसी में तू जो चाहे कर ले
एलेलो एलेलो एलेलो……3
- एक छोटा फल जिसे सुखा कर, तलकर खाते हैं।
- पिसे हुए चावल से बना हुआ छोटा गोल नमकीन।
- गाना खत्म होने के बाद एक तरह का आलाप।
4.2. सीमंत गीत (तंजावूर जिला, तमिलनाडु से)
श्रीमती ज्ञानसुंदरी, ब्राह्मण जातीय, ग्राम इञ्जिक्कोल्ले के मेरे लिए टेप हुए गीतों के सौजन्य से :-
चीमंत-पाट्टु
पार् पुकष म् चिम्माचनपतियै नाडिनार्
रामदारै मादवरै तीत माडिनार्
अर्चनैगळ् अन्नपाकम् चे यदु मकिष न्दार्
अच्चुतन् तिरुवडियै पणिन्दु पुकष न्दार्
शमला दम्पत्तिगळ इरुपेरुम चन्नदि चे यदु
नळ्ळ चन्तति अरुळुम्एन्हें वेण्डिये निन्र्
अर्चकर् मूलमाय् नरचिम्मनुम् अप्पो
पदलवन् अरित्तेन् एन्रु तिरुवाक्कुरत्तार
अन्रु मूदळ गब्ब माकि अषकुमेनियाळ
मादम् मून्हें चेन्लॅदुमे मचक्कैयु मानाळ
लडड लाड पेनि काजा कचक्किर देन्बळ
ओटट माङगनि कटिट वेल्लम पळिकरदे बळ
अन्नवाडे आडैत्तयिर् आकादु एन्बळ्
मिा मिन्नल का डि पाल् तुवण्डु मान वळुत्ताळनान्गु मादम्
आन वुडन् मचक्कै तेळिन्दु नलमान वटचणङ गळ नाडि पूचित्ताळ
तन्दै आत्तिऴ् विन्दैयाक व काप्पु चे याळ
अञ्जु वकै बट्चमुम् चीरुम् एडुत्तार
मल्लिकै मो टु पुडवै मामियार् वाङि ग
वेल्लियै मणैयिल् वैत्त पूवुम चूट्टिनाळ
ऐन्दाम् मादम् अत्तै पाट्टि आत्त क्कर्ष त्तु
को जि आबरणम् पूट्टि चूल विरुन्दिट्टार्
ऐट्टाम् मादम् पिरन्दवुडन् चीमंतम् चेयदार
वेण पेरुक्कु वेण्डिय दानंगळ् चेय्दार
ईरैन्दु मादङ ळुम् पूर्णमा किए।
पारोर पुकष नल्ल बालन् पिदान्
वारि एडुत्त म् अबाळ मार्बु डन् अणैत्तु
मदिमुकत्तै मुत्तमि? मकिष च्चि यानार्कळ्
आरिरारो……….. आरिरारो…….
- नामदारि?
- वेण-वेण्डिय।
सीमंत-गीत
जाकर जग-पूजित सिंहासन पति में
दंपत्ति ने त्रिपुंडधारी माधव अभिषेक किया।
अर्चना नैवेद्य चढ़ा सुख से
अच्युत के पाँव पखार लिए।
दोनों ने तब विष्णु से
करी सुपुत्र की एक कामना
कहलाया विप्र से नरसिंह ने
होगी पूरी तेरी कामना
हुआ गर्भ उसी दिन सुंदरी को।
होते ही पूरा तीसरा महीना, उसका जी मिचलाया
लड्डू, फेनी, खाजे को भी कड़वा पाया
कलमी आम और गुड़ को भी खट्टा पाया
दही, भात भी उसको बिल्कुल रास न आया
चंचल, कोमल बदन पे उसके पीलापन था छाया
चौथा महीना शुरू हुआ, और जी भी उसका ठीक हुआ।
तब अच्छे पकवान उसने माँग-माँग कर खाए
और मायके वालों ने फिर उसकी गोद भराई।
मिले पकवान पाँच तरह के, साथ मिले उपहार
बिठाया सास ने चौकी पर,
पहनाई साड़ी मल्लिका के अंकुर की
और सजाया फूलों से फिर बालों को
हुआ शुरू फिर पाँचवा महीना,
दादी, चाची ने बुलवाया घर को
प्यार से पहनाने को गहने
और खाना खिलवाने को।
आठवें माह हवन कराया
और खुले हाथ से दान दिया
हुए जब पूरे महीने दस
सर्वगुण संपन्न बालक जन्मा
सबने उसे सीने से लगाया
चंदा-मुख को चूम लिया
आरिरारो…. आरिरारो…..1
- गाना खत्म होने के बाद एक तरह का आलाप।
4.3 सीमंत-गीत (पश्चिम गोदावरी जिला आँध्र प्रदेश से)
श्रीमती मद्दारि वेंकट रमणम्मा (76), नियोगी ब्राह्मण जातीय, ग्राम ताडिमळळ, जिला पश्चिम गोदावरी ने इस गीत को अपनी पुत्री अ० छायादेवी, उप-ग्रन्थालयाध्यक्ष, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के माध्यम से अप्रैल, 1980 में मुझे पहुँचाया :-
श्रीमंतम् पाट
श्री जानकी देवि श्रीमन्तनरे
महालक्ष्मी सुंदर बदनमु गनरे
पन्नीरु गन्धमु चेलि पैन चिलकिञ्च
कानुकलु कट्नालु चदिविञ्चरम्मा
मल्ले मोल्ला सरुल सति जडलो सवरञ्चि
शाग येल्ला वेडकलन चेयिञ्चरम्मा ॥ श्री ॥
कुलुकुचुन्न कलिकोनि तिलकिञ्चि।
अलुक चेन्दनीक अत्तरिञ्चरम्मा
कुलमेंल्ल दीपिञ्च को मरूनि कनुमनुचु
ये ल्ला मुत्त दूलु दीविञ्चरम्मा
श्री जानकी देवि श्रीमन्त वनरे ॥
सीमंत-गीत
आओ मिलकर गाएँ, जानकी देवी का सीमंत-गीत
आओ मिलकर देखें मुखड़ा, सुंदर महालक्ष्मी का
सर पर छिड़कें उसके, पानी गुलाब और चंदन का
बहनों आओ, करवाएँ घोषणा उपहारों की
आओ सजाएँ उसके बालों को, मल्लिका के फूलों से
और करें फिर उसके संग, हम सब छेड़-छाड़
इठलाती हुई स्त्री को-
इच्छा पूरा करक प्रसन्न करो
ये कह कर आशीष दो बहनो
जन्मो ऐसे बालक को
जो करे नाम ऊँचा इस कुल का
आओ मिलकर गाएँ सीमंत जानकी देवी का।
संदर्भ पुस्तकें
1. Lakshmanan Chettiar, S.M.L.: Folklore of Tamil Nadu, National Book Trust,
New Delhi 1973, p. 76 (xi+208 pp.).
2. Pandey, Raj Bali: Hindu Samskāras Motilal Banarsidass, Delhi 1969, p. 64-69
(xxvi+237 pp.).
3. Thurston: Castes and Tribes of South India, 7, vols. Madras 1909.
4. यादव, शंकरलाल : ‘हरियाणा प्रदेश का लोक साहित्य’, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद सं० 2017, p. 127-128 (499 pp.).
(साभार – ज्वालामुखी पत्रिका, जापान)
