
पीयूष पांडे

डॉ. रेखा सेठी
(2012 में मेरी एक पुस्तक आई थी, ‘विज्ञापन डॉट कॉम’। इसका एक अंश विज्ञापन जगत की प्रमुख हस्तियों, प्रमुख विज्ञापन एजेंसियों और विशिष्ट विज्ञापनों पर केन्द्रित है. कल जब पीयूष पांडे के न रहने की खबर आई तो मन एक बार फिर इस पुस्तक की तरफ लौट गया. पीयूष पांडे पर लिखी एक विस्तृत टिप्पणी साझा कर रही हूँ, पढ़िए…)
पीयूष पांडे भारतीय विज्ञापन जगत के सरताज हैं। भारत में ओगिल्वी एंड माथर (ओ एंड एम) के कार्यकारी अध्यक्ष यानी एक्जेक्यूटिव चेयरमैन के रूप में पीयूष विज्ञापन की दुनिया में सफलता के नये मानदंड रचते रहे हैं। उनके आने से पहले भारतीय विज्ञापन की दुनिया अपनी श्रेष्ठता व संघांतता का रंभ भरती स्वयं में ही मग्न थी। उस पर अंग्रेजियत का खासा प्रभाव था। पीयूष ने स्थिति की इस जड़ता को तोड़कर अनेक ऐसे विज्ञापन बनाए जिन्होंने जनता के दिल को छुआ। उनके द्वारा निर्मित विज्ञापनों का मिजाज़ पूरी तरह भारतीय है। सौ करोड़ की आबादी से उनकी अपनी भाषा में बात करने का साहस सबसे पहले पीयूष पांडे ने ही किया, जिससे उन्हें इस उद्योग का निर्विवाद नेता माना जाता है।
1982 में उन्होंने ‘ओ एंड एम’ के क्लाइंट सर्विसिंग विभाग में एकाउंटे एकंक्यूटिव के रूप में प्रवेश किया। यहाँ उन्हें, रंजन कपूर तथा सुरेश मलिक जैसी विज्ञापन उद्योग को बड़ी हस्तियों के साथ काम करने का मौका मिला।
एजेंसी के माहौल में जो खुलापन था उसने उनकी रचनात्मकता को पल्लवित किया। एकाउंट एक्जेक्यूटिव के रूप में उनका काम क्लाइंट से होने वाली मीटिंग के समय बातचीत के मुख्य बिन्दु नोट करने का था, लेकिन वो उस सारी प्रक्रिया में गहरी दिलचस्पी लेते थे। रंजन कपूर उस समय को याद करते हुए बताते हैं कि वे अक्सर विज्ञापन के लिए ‘आइडिया’ सोचा करते और उन्हें अपने साथियों से बाँटते। रंजन उस समय एजेंसी के मैनेजिंग डॉयरेक्टर थे। उन्होंने पीयूष की क्षमता को पहचाना और 1987 में उन्हें रचनात्मक विभाग (क्रिएटिव डिपार्टमेंट) में बुला लिया। यहाँ सबसे पहले तो उन्होंने लूना स्कूटर के लिए ‘चल मेरी लूना’ का विज्ञापन लिखा जो काफी लोकप्रिय हुआ और अगले सात-आठ साल तक चलता रहा। एजेंसी के क्रिएटिव विभाग में पीयूष की स्थिति वेड कॉपीराइटर यानी हिन्दी अथवा भारतीय भाषा के कॉपी लेखक की थी। एक दिन उन्हें फेविकोल के विज्ञापन की कॉपी दी गयी और उसका हिन्दी अनुवाद करने को कहा गया। पीयूष ने मूल कॉपी फाड़कर फेंक दी और उसको जगह ‘दम लगा के हय्यश… वाली कॉपी लिखी। जब उन्होंने अपने साथियों को पढ़कर सुनाई तो किसी को यकीन न हुआ कि क्लाइंट ऐसी कॉपी को स्वीकार भी करेगा। सबको ऐसा काँपी लेखन मज़ाक ही लगा। अनुमान के विरुद्ध यह कॉपी न केवल चुनी गयी, बल्कि उसने एक इतिहास ही रख दिया। इस साल तक फेविकोल का यही विज्ञापन चलता रहा जिसने एक साधारण से उत्पाद को एक ब्रांड बना दिया। 1988 में ही सुरेश मलिक के साथ पीयूष पडि ने राष्ट्रीय एकता पर ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ विज्ञापन के लिए कॉपी लिखी। पीयूष को इस गीत को अठारह बार संशोधित करना पड़ा तब जाकर सुरेश मलिक ने उसे स्वीकार किया। इन सभी विज्ञापनों से पीयूष पांडे को एक पहचान मिली और फिर तो वह सिलसिला आगे ही बढ़ता गया।

अपने दिल की सुनने वाले पीयूष पांडे हमेशा लीक से हटकर चलने का यत्न करते रहे हैं। उन्होंने अपने विज्ञापनों में उन सभी भावनाओं का उपयोग किया जो दर्शक के मन को प्रभावित कर सकती थीं। एक गहरी रागात्मक भावुकता, कैडबरी और एशियन पेंट्स के लिए लिखे गये विज्ञापनों का प्राण है।
कैडबरी कम्पनी ने जब डेरी मिल्क चॉकलेट के लिए अपनी मार्केटिंग नीति बदली तब उसका दायित्व ‘ओ एंड एम’ एजेंसी को दिया गया। चुनौती यह थी कि उस बच्चों के उत्पाद-क्षेत्र से निकालकर, युवाओं को उसके लक्षित उपभोक्ता वर्ग के तौर पर प्रस्तावित करना था। कई महीनों से ‘ओ एंड एम’ के रचनात्मक विभाग के लोग उस पर काम कर रहे थे, लेकिन कोई सकारात्मक समाधान नहीं मिल रहा था। कैडबरी कम्पनी का सब्र भी अब जवाब देने लगा था। ये लोग ओ एंड एम से यह काम लेकर किसी अन्य एजेंसी को सौंपने की सोच रहे थे। तब पीयूष पांडे ने कोशिश की और पहली ही बार में जो कॉपी उन्होंने लिखी वह अभूतपूर्व थी। क्रिकेट फील्ड पर नाचती लड़की सबकी नजों में समा गयी। उत्पाद पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय पीयूष ने उसे जीवन की उमंग से जोड़ा और लिखा ‘कुछ खास है हम सभी में…’। डेरी मिल्क जिन्दगी के असली स्वाद के रूप में पेश की गयी।
एशियन पेंट्स के साथ भी उन्होंने सफलता की ऐसी ही कहानी रची। पेंट्स कोई ऐसा उत्पाद नहीं था जिससे लोग स्वयं को जोड़ पाते, लेकिन हर एक की जिंदगी में ‘घर’ की एक खास जगह होती है। पीयूष ने इसी स्वप्न के इर्द-गिर्द पेट्स के लिए जगह बनाई। मेरा वाला ब्लू, मेरी वाली दीवार, म्हारो वाला क्रीम हे लेकर मेरे वाले घर तक एशियन पेंट्स के रंगों की दुनिया साधारण भारतीयों आशा-आकांक्षाओं से जुड़ गयी। ‘हर घर कुछ कहता है’ की आत्मीय पुकार सबने दिल थाम कर सुनी।
पीयूष पांडे एक ओर अपनी तरल भावात्मकता से सबको छू रहे थे तो दूसरी और उन्होंने सरल हास्य-व्यंग्य को अपना अस्त्र बनाया। फेविकोल और संविश्विक के लिए उन्होंने बड़े मजेदार विज्ञापन बनाए। इनकी लोकप्रियता के परिणामस्वरूप ‘मनोरंजन’ अपने आप में एक विज्ञापन अपील बन गयी। वे इन विज्ञापनों में छोटी-छोटी कहानियाँ बुनने लगे जो दर्शकों को हँसते-हँसाते आनंदित करती थीं। उनकी इस मनोरंजन अपील की आलोचना भी हुई और यह कहा गया कि ऐसे विज्ञापन में देखने वाले का ध्यान उत्पाद पर कम, कहानी पर ज्यादा होता है। विज्ञापन तो दर्शकों को याद रहता है, पर उत्पाद भूल जाता है। पीयूष पांडे के लिए रचनात्मकता का पैमाना थोड़ा अलग है। वे मानते हैं कि विज्ञापन की रचनात्मकता इसी बात में है कि वह दर्शक को कितनी खुशी या आनंद दे सके क्योंकि तभी वे उससे जुड़ पाएँगे। अपनी तमाम रचनात्मकता में पांडे कभी नहीं भूलते कि विज्ञापन का उद्देश्य बिक्री पर प्रभाव डालना है। फिर मो, उनका दृढ़ विश्वास है कि यह तभी संभव होगा जब दर्शक उससे जुड़ पाईंगे। सौ साल पहले गा-गाकर चना जोरगरम बेचने वाले का उद्देश्य बड़ा गायक बन जाना नहीं था। वह यह सिर्फ इसलिए करता था कि सब उसी से खरीदें, दूसरे से नहीं। पीयूष ने भी विज्ञापन के फार्मूलाबद्ध ढाँचों में अपना अलग अंदाज रखने की कोशिश की है। इस रचनात्मक विशिष्टता के ही कारण वे 1994 में ‘ओ एंड एम इंडिया’ के नेशनल क्रिएटिव डायरेक्टर और फिर 2004 में भारत व दक्षिण एशिया में ओगिल्वी के एक्जेक्यूटिव चेयरमैन बने।
वे अपनी एजेंसी तथा विज्ञापन उद्योग के प्रेरणा पुरुष हैं। उनके नेतृत्व में ओगित्वी इंडिया ने विश्वभर में अपनी विशिष्ट रचनात्मक पहचान बनाई है। उन्होंने अपने काम से रचनात्मक प्रतिभाओं की एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया है। प्रसून जोशी, सागर महाबलेश्वर्कर, सोनल डबराल, अभिजित अवस्थी, रामानुज शास्त्री, मालविका मेहरा-विज्ञापन की दुनिया में इन सबका प्रशिक्षण पीयूष पांडे के ही निरीक्षण में हुआ है। पीयूष ने अपने साथियों को सदा रचनात्मक स्वतन्त्रता दी और उनकी योग्यता में विश्वास जताया। विज्ञापन के क्षेत्र में आने से पहले वे व्यावसायिक क्रिकेट खेलते थे। राजस्थान की ओर से वे रंजी ट्रॉफी में खेले हैं। इसलिए उनमें वह टीम भावना है। वे अपने नेतृत्व की तुलना वेस्टइंडीज के कप्तान क्लाइव लॉयड से करते हैं जिनका लक्ष्य यही रहा कि सब खिलाड़ियों को उनके साथ खेलते हुए यह अहसास रहे कि वे यब फल-फूल रहे हैं। उनकी तरक्की, साझी तरक्की है। अपने नये साथियों से वे अक्सर पूछते हैं- ‘उड़ना आता है’ उन्होंने सबको अपने साथ उड़ना सिखाया है।
एडवर्टाइजिंग एजेंसीज़ एसोसिएशन ऑफ इंडिया की ओर से उन्हें सन् 2010 में लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड से नवाज़ा गया। अपने विज्ञापनों के लिए उन्हें पाँच सौ से भी अधिक सम्मान प्राप्त हुए हैं और उनकी सबसे बड़ी खुशी इस बात में है कि उन्हें जिन विज्ञापनों के लिए पुरस्कार मिले वे विज्ञापन जनता द्वारा भी बेहद पसन्द किए गये। वे एकमात्र भारतीय तथा एशियाई मूल के पहले व्यक्ति हैं जिन्हें फ्रांस के कान (Cannes) विज्ञापन समारोह में ज्यूरी के अध्यक्ष होने का गौरव प्राप्त हुआ है। पीयूष पांडे ने अपने प्रयत्नों से भारतीय विज्ञापन जगत को अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर अंकित कर दिया है।
(यह पुस्तक 2012 में प्रकाशित हुई थी उसके बाद पीयूष पांडे कई प्रतिष्ठित सम्मान मिले, जिसमें पद्मश्री भी शामिल है।)
