शाम के सात बज चुके हैं। तुम्हें घर आए लगभग तीन घंटे से भी अधिक समय हो चुका है। हमारे बीच कोई विशेष संवाद नहीं हुआ है। वैसे जो संवाद हुए वे न भी हुए होते तो हम दोनों में से किसी की दिनचर्या में शायद ही कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मुझे दोपहर से सिर में तेज़ दर्द हो रहा है। तुम्हारे आने पर मैं रोज़ की तरह दरवाज़ा खोल खोल देती हूँ और चाय का पानी भी रोज़ की तरह आते ही चढ़ा देती हूँ। तुम कपड़े बदलकर आते हो तब तक रोज़ की तरह चाय और ‘रिच टी’ बिस्किट मेज पर रख दिए जाते हैं। मैं रोज़ की तरह, ज़रूरत न होते हुए भी पूछती हूँ, ”चीनी कितनी लोगे, एक चम्मच?” …तुम्हारी आँखों में एक अजीब सा भाव उतर आता है…। मुझे पल भर को लगता है कि शायद अब तुम कुछ बोलोगे…. लेकिन नहीं। कहा कुछ नहीं तुमने… चुपचाप चाय का कप हाथ में ले लिया। कभी–कभी मुझे लगता है कि तुम्हें न बोलने की जबरदस्त रियाज़ है। चाय पीकर तुम बगीचे में पानी देने चले जाते हो और मैं खाना बनाने लगती हूँ। अपने-अपने कामों में लग जाते हैं, रोज़ की तरह। सोचती हूँ कि यदि हमारे अपने-अपने काम न होते तो हम दोनों यह समय कैसे बिताते ?
रोटियाँ बनाते-बनाते खिड़की से बाहर देखती हूँ तो ऊँचे-ऊँचे वृक्ष दिखाई देते हैं। नाम नहीं जानती, अजनबी से हैं। वैसे नाम जानने से क्या अजनबीपन कम थोड़े ही हो जाता है। हरियाली देखकर मन मुस्कुराने ही वाला था, कि देखती हूँ कि वे वृक्ष हिल रहे हैं। लहरा नहीं रहे, मुस्कुरा नहीं रहे, इतरा भी नहीं रहे। सिर्फ़ हिल रहे हैं। पत्ते और शाखें ऐसे हिल रही हैं मानो जबरदस्ती की जा रही हो, हवा का आतंक हो या कोई रस्म या एटीकेट( शिष्टचार) हो कि हवा चल रही है तो उन्हें हिलना ही चाहिए। बिल्कुल पड़ोस की मिसेज़ स्मिथ की तरह, दिन में चार बार भी दिखें तो वही रटा-रटाया रस्मी जुमला-”आर यू ऑलराइट”
कैसे……………………………………………………………………………….
कभी- कभी मुझे एक क्षणिक अनुभूति होती है- स्वयं के भगवान होने की। मुझे, हम दोनों के बारे में सबकुछ पता होता है। अगले पल हम क्या करेंगे, कैसे करेंगे, कौन क्या कहेगा, आदि… और, यह बात मैं भृगु संहिता के लेखों की भांति बता सकती हूँ। थोड़ी ही देर में कुछ गिने-चुने, घिसे- पिटे और रटे हुए से संवादों का आदान-प्रदान होगा। जैसे ”खाना लगा दूँ? सब्ज़ी ठीक है क्या? एक रोटी और ले लो?… ।” इन प्रश्नों के उत्तर में मुझे ”ह्म्म… ” सुनने की ऐसी आदत हो गई है कि किसी और तरह का उत्तर शायद अब मेरा दिमाग रजिस्टर ही नहीं करेगा। आदत ……..। हाँ, तो टेबल पर बैठकर चुपचाप खाना खाया जाएगा। खाना खाना आवश्यक है। जीने के लिए खाना ज़रूरी है। जीने के लिए साँस लेना भी ज़रूरी है।…और खाना खाते में एक विशेष ढंग से बरतनों की आवाज आना भी ज़रूरी है।…. और खाना खाने के बाद बरतन साफ़ करना भी उतना ही ज़रुरी है ताकि अगली सुबह कुछ तो सुहाना लगे, चाहे वह किचन का सिंक ही क्यों न हो।
खाना हो गया है। मैंने ‘कुछ सुहाना लगे की कोशिश में’ किचन की सिंक चमका दी है। अब मैं तुम्हें दिनभर की बातें बताना? चाहती हूँ। इसी कोशिश में, यह देखने के बावज़ूद कि तुम लैपटॉप शुरू कर रहे हो, तुम्हारे पास आकर बैठ जाती हूँ। कुछ बोलूँ, इसके पहले तुमने मुँह लैपटॉप में गढ़ा लिया है। तुम्हारी अंगुलियाँ तीव्र गति से की-बोर्ड पर थिरकने लगती हैं। मुझे क्रोध आने लगता है। रोज की तरह मैं टी.वी. चालू कर देती हूँ। समय के साथ क्रोध की अभिव्यक्ति भी कब बदल जाती है पता ही नहीं चलता। मैं खटाखट टी.वी. के चैनल बदल रही हूँ। बदलते-बदलते मैं थकने लगती हूँ रात का ग्यारह बज चुका है। रोज की तरह हम बिस्तर पर चले जाते हैं। कुछ ही पलों में तुम्हारे खर्राटे, तुम्हारे गहरी नींद में डूब जाने की पुष्टि करते हैं, कुछ ही पलों में तुम्हारे खर्राटों से कमरा गूँजने लगता है। फिर तुम्हारे खर्राटे पूरे घर को गुँजाने लगते हैं। मैंने ज़ोर से तकिए में अपने दोनों कान दबा लिए हैं। लेकिन खर्राटों की आवाज़ पूरे वातावरण में व्याप गई है। दूसरी कोई आवाज़ नहीं। मैं चादर और तकिए में दफ़न होना चाहती हूँ। लेकिन यह आवाज़… मेरे दिमाग की नसें फटने लगती हैं। मैंने कस कर आँखें बंद कर ली हैं। मानो मैं अपने कानों से नहीं आँखों से सुनती हूँ। मेरा सारा शरीर खर्राटों के शोर से अकड़ने लगता है, ऐंठने लगता है। मैं खर्राटों से भी तेज़ आवाज़ में चीखना चाहती हूँ– ऐसी चीख जो मेरे शरीर की ऐंठन को सुन्न कर दे। लेकिन आवाज़ गले में ही घुट जाती है, शरीर भारी होता जाता है, हाथ-पैर शायद दफ़न होते जाते हैं। पूरा वज़ूद संज्ञाशून्य होता जाते हैं, डूबता जाता है, डूबता जाता है….
टिक टिक टिक टिक टिक ट्रिन्न्न….. एक और सुबह… रोज़ की तरह। छः बज गए हैं… उठना ही पड़ेगा… रोज़ की तरह।
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-वंदना मुकेश